शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

इति विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम् ।

विषण्णा भग्नसङ्‌कल्पाः चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ॥ २८ ॥

कृत्वा मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्

बिम्बाधराणि चरणेन भुवः लिखन्त्यः ।

अस्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुङ्‌कुमानि

तस्थुर्मृजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ॥ ॥

प्रेष्ठं प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं

कृष्णं तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।

नेत्रे विमृज्य रुदितोपहते स्म किञ्चित्

संरम्भगद्‍गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः ॥ ३० ॥

 

श्रीगोप्य ऊचुः ।

मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं

सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।

भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्

देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ ३१ ॥

यत्पत्यपत्यसुहृदां अनुवृत्तिरङ्‌ग

स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।

अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे

प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥ ३२ ॥

कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्

नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।

तन्नः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या

आशां धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥ ३३ ॥

चित्तं सुखेन भवतापहृतं गृहेषु

यन्निर्विशत्युत करावपि गृह्यकृत्ये ।

पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद्

यामः कथं व्रजमथो करवाम किं वा ॥ ३४ ॥

सिञ्चाङ्‌ग नस्त्वदधरामृतपूरकेण

हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम् ।

नो चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा

ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते ॥ ३५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं। उनकी आशा टूट गयी। वे चिन्ताके अथाह एवं अपार समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ॥ २८ ॥ उनके बिम्बाफल (पके हुए कुँदरू) के समान लाल-लाल अधर शोकके कारण चलनेवाली लंबी और गरम साँससे सूख गये। उन्होंने अपने मुँह नीचेकी ओर लटका लिये, वे पैरके नखोंसे धरती कुरेदने लगीं। नेत्रोंसे दु:खके आँसू बह-बहकर काजलके साथ वक्ष:स्थलपर पहुँचने और वहाँ लगी हुई केसरको धोने लगे। उनका हृदय दु:खसे इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं ॥ २९ ॥ गोपियोंने अपने प्यारे श्यामसुन्दरके लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्णमें उनका अनन्य अनुराग, परम प्रेम था। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्णकी यह निष्ठुरतासे भरी बात सुनी, जो बड़ी ही अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आँसुओं के मारे रुँध गयीं। उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखोंके आँसू पोंछे और फिर प्रणयकोपके कारण वे गद्गद वाणीसे कहने लगीं ॥ ३० ॥

 

गोपियोंने कहाप्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदयकी बात जानते हो। तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोडक़र केवल तुम्हारे चरणोंमें ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो। तुमपर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी ओरसे, जैसे आदिपुरुष भगवान्‌ नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तोंसे प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो ॥ ३१ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मोंका रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका स्वधर्म है’—अक्षरश: ठीक है। परंतु इस उपदेशके अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान्‌ हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद् हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो ॥ ३२ ॥ आत्मज्ञानमें निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो। अनित्य एवं दु:खद पति-पुत्रादिसे क्या प्रयोजन है ? परमेश्वर ! इसलिये हमपर प्रसन्न होओ। कृपा करो। कमलनयन ! चिरकालसे तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषाकी लहलहाती लताका छेदन मत करो ॥ ३३ ॥ मनमोहन ! अबतक हमारा चित्त घरके काम-धंधोंमें लगता था। इसीसे हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे। परंतु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न ! परंतु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलोंको छोडक़र एक पग भी हटनेके लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रजमें कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ? ॥ ३४ ॥ प्राणवल्लभ ! हमारे प्यारे सखा ! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन और मनोहर संगीतने हमारे हृदयमें तुम्हारे प्रेम और मिलनकी आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरोंकी रसधारासे बुझा दो। नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथाकी आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यानके द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ॥ ३५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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गुरुवार, 16 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीभगवानुवाच -

स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः ।

व्रजस्यानामयं कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम् ॥ १८ ॥

रजन्येषा घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता ।

प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ॥ १९ ॥

मातरः पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः ।

विचिन्वन्ति ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम् ॥ २० ॥

दृष्टं वनं कुसुमितं राकेश कररञ्जितम् ।

यमुना अनिललीलैजत् तरुपल्लवशोभितम् ॥ २१ ॥

तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।

क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ॥ २२ ॥

अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।

आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥ २३ ॥

भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।

तद्‍बन्धूनां च कल्याणः प्रजानां चानुपोषणम् ॥ २४ ॥

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।

पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी ॥ २५ ॥

अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम् ।

जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रियः ॥ २६ ॥

श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानाद् मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।

न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ॥ २७ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामहाभाग्यवती गोपियो ! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करनेके लिये मैं कौन-सा काम करूँ ? व्रजमें तो सब कुशल-मङ्गल है न ? कहो, इस समय यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता पड़ गयी ? ॥ १८ ॥ सुन्दरी गोपियो ! रातका समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैै.। अत: तुम सब तुरंत व्रजमें लौट जाओ। रातके समय घोर जंगलमें स्त्रियोंको नहीं रुकना चाहिये ॥ १९ ॥ तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ़ रहे होंगे। उन्हें भयमें न डालो ॥ २० ॥ तुमलोगोंने रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे हुए इस वनकी शोभाको देखा। पूर्ण चन्द्रमाकी कोमल रश्मियोंसे यह रँगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और यमुनाजीके जलका स्पर्श करके बहनेवाले शीतल समीरकी मन्द-मन्द गतिसे हिलते हुए ये वृक्षोंके पत्ते तो इस वनकी शोभाको और भी बढ़ा रहे हैं। परंतु अब तो तुमलोगोंने यह सब कुछ देख लिया ॥ २१ ॥ हे सतियो ! अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रजमें लौट जाओ। अपने पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा करो। देखो, तुम्हारे घरके नन्हें-नन्हें बच्चे और गौओंके बछड़े रो-रँभा रहे हैं; उन्हें दूध पिलाओ, गौएँ दुहो ॥ २२ ॥ अथवा यदि मेरे प्रेमसे परवश होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि जगत्के पशु-पक्षीतक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं ॥ २३ ॥ कल्याणी गोपियो ! स्त्रियोंका परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई बन्धुओंकी निष्कपटभावसे सेवा करें और सन्तानका पालन-पोषण करें ॥ २४ ॥ जिन स्त्रियोंको उत्तम लोक प्राप्त करनेकी अभिलाषा हो, वे पातकीको छोडक़र और किसी भी प्रकारके पतिका परित्याग न करें। भले ही वह बुरे स्वभाववाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो ॥ २५ ॥ कुलीन स्त्रियोंके लिये जार पुरुषकी सेवा सब तरहसे निन्दनीय ही है। इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर्ग नहीं मिलता, इस लोकमें अपयश होता है। यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ क्षणिक है ही; इसमें प्रत्यक्षवर्तमानमें भी कष्ट-ही-कष्ट है। मोक्ष आदिकी तो बात ही कौन करे, यह साक्षात् परम भयनरक आदिका हेतु है ॥ २६ ॥ गोपियो ! मेरी लीला और गुणोंके श्रवणसे, रूपके दर्शनसे, उन सबके कीर्तन और ध्यानसे मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होती है, वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहनेसे नहीं होती। इसलिये तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ ॥ २७ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।

गुणप्रवाहोपरमः तासां गुणधियां कथम् ॥ १२ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

उक्तं पुरस्ताद् एतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ॥ १३ ॥

नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।

अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १४ ॥

कामं क्रोधं भयं स्नेहं ऐक्यं सौहृदमेव च ।

नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ॥ १५ ॥

न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।

योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते ॥ १६ ॥

ता दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।

अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन् ॥ १७ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! गोपियाँ तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उनमें ब्रह्मभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणोंमें ही आसक्त दीखती है। ऐसी स्थितिमें उनके लिये गुणोंके प्रवाहरूप इस संसारकी निवृत्ति कैसे सम्भव हुई ? ॥ १२ ॥

 

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान्‌ के प्रति द्वेष-भाव रखनेपर भी अपने प्राकृत शरीरको छोडक़र अप्राकृत शरीरसे उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थितिमें जो समस्त प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्यारी हैं और उनसे अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जायँइसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! वास्तव में भगवान्‌ प्रकृतिसम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुणगुणीभावसे रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे ॥ १४ ॥ इसलिये भगवान्‌ से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा होकामका हो, क्रोधका हो या भयका हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्दका हो। चाहे जिस भावसे भगवान्‌ में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान्‌ से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं, और उस जीव को भगवान्‌ की ही प्राप्ति होती है ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम्हारे-जैसे परम भागवत भगवान्‌ का रहस्य जाननेवाले भक्तको श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरोंके भी ईश्वर अजन्मा भगवान्‌ के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है ? अरे ! उनके संकल्पमात्रसेभौंहें के इशारे से सारे जगत् का परम कल्याण हो सकता है ॥ १६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाक्चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहाक्यों न होभूत, भविष्य और वर्तमानकालके जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ १७ ॥

 

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बुधवार, 15 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।

पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः ॥ ५ ॥

परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः ।

शुश्रूषन्त्यः पतीन् काश्चिद् अश्नन्त्योऽपास्य भोजनम् ॥ ६ ॥

लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने ।

व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः ॥ ७ ॥

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः ।

गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ॥ ८ ॥

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।

कृष्णं तद्‍भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ॥ ९ ॥

दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।

ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमङ्‌गलाः ॥ १० ॥

तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्‌गताः ।

जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ॥ ११ ॥

 

वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोडक़र चल पड़ीं। जो चूल्हेपर दूध औंटा रही थीं वे उफनता हुआ दूध छोडक़र और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोडक़र चल दीं ॥ ५ ॥ जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोडक़र, जो छोटे-छोटे बच्चोंको दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोडक़र, जो पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोडक़र और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोडक़र अपने कृष्णप्यारेके पास चल पड़ीं ॥ ६ ॥ कोई-कोई गोपी अपने शरीरमें अङ्गराग, चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखोंमें अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोडक़र तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं ॥ ७ ॥ पिता और पतियोंने, भाई और जाति-बन्धुओंने उन्हें रोका, उनकी मङ्गलमयी प्रेमयात्रामें विघ्र डाला। परंतु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकनेपर भी न रुकीं, न रुक सकीं। रुकतीं कैसे? विश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलनेका मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयतासे श्रीकृष्णके सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओंका ध्यान करने लगीं ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथाइतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसे, बड़े आवेग से उनका आलिङ्गन किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिङ्गन किया, चाहे किसी भी भावसे किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान्‌ की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ॥ ११ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

भगवान् अपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।

वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ १ ॥

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं

प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।

स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्

प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ॥ २ ॥

दृष्ट्वा कुमुद्वन्तं अखण्डमण्डलं

रमाननाभं नवकुङ्‌कुमारुणम् ।

वनं च तत्कोमलगोभी रञ्जितं

जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ॥ ३ ॥

निशम्य गीतां तदनङ्‌गवर्धनं

व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।

आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः

स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ॥ ४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महँक रहे थे। भगवान्‌ ने चीरहरणके समय गोपियोंको जिन रात्रियोंका संकेत किया था वे सब-की-सब पुञ्जीभूत होकर एक ही रात्रिके रूपमें उल्लसित हो रही थीं। भगवान्‌ ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान्‌ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करनेका संकल्प किया। अमना होनेपर भी उन्होंने अपने प्रेमियोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मन स्वीकार किया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशाके मुखमण्डलपर अपने शीतल किरणरूपी करकमलोंसे लालिमाकी रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत दिनोंके बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नीके पास आकर उसके प्रियतम पतिने उसे आनन्दित करनेके लिये ऐसा किया हो ! इस प्रकार चन्द्रदेवने उदय होकर न केवल पूर्वदिशाका, प्रत्युत संसारके समस्त चर-अचर प्राणियोंका सन्तापजो दिनमें शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियोंके कारण बढ़ गया थादूर कर दिया ॥ २ ॥ उस दिन चन्द्रदेवका मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमाकी रात्रि थी। वे नूतन केसरके समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ सङ्कोचमिश्रित अभिलाषासे युक्त जान पड़ते थे। उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजीके समान मालूम हो रहा था। उनकी कोमल किरणोंसे सारा वन अनुरागके रंगमें रँग गया था। वनके कोने-कोनेमें उन्होंने अपनी चाँदनीके द्वारा अमृतका समुद्र उड़ेल दिया था। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दिव्य उज्ज्वल रसके उद्दीपनकी पूरी सामग्री उन्हें और उस वनको देखकर अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियों- के मनको हरण करनेवाली कामबीज क्ली.की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ का वह वंशीवादन भगवान्‌ के प्रेमको, उनके मिलनकी लालसाको अत्यन्त उकसानेवालाबढ़ानेवाला था। यों तो श्यामसुन्दरने पहलेसे ही गोपियोंके मनको अपने वशमें कर रखा था। अब तो उनके मनकी सारी वस्तुएँभय, सङ्कोच, धैर्य, मर्यादा आदिकी वृत्तियाँ भीछीन लीं। वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्णको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये, वे गोपियाँ भी एक-दूसरे को सूचना न देकरयहाँ तक कि एक-दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर जहाँ वे थे, वहाँ के लिये चल पड़ीं। परीक्षित्‌ ! वे इतने वेग से चली थीं कि उनके कानों के कुण्डल झोंके खा रहे थे ॥ ४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 14 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वरुणलोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना

 

श्रीशुक उवाच -

एवं प्रसादितः कृष्णो भगवान् ईश्वरेश्वरः ।

आदायागात् स्वपितरं बन्धूनां चावहन् मुदम् ॥ ९ ॥

नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम् ।

कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

ते चौत्सुक्यधियो राजन् मत्वा गोपास्तमीश्वरम् ।

अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मां उपाधास्यदधीश्वरः ॥ ११ ॥

इति स्वानां स भगवान् विज्ञायाखिलदृक् स्वयम् ।

सङ्‌कल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिन्तयत् ॥ १२ ॥

जनो वै लोक एतस्मिन् अविद्याकामकर्मभिः ।

उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन् ॥ १३ ॥

इति सञ्चिन्त्य भगवान् महाकारुणिको हरिः ।

दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम् ॥ १४ ॥

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।

यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिताः ॥ १५ ॥

ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्‌धृताः ।

ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोऽध्यगात् पुरा ॥ १६ ॥

नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्दनिवृताः ।

कृष्णं च तत्रच्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः ॥ १७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुणने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान्‌ अपने पिता नन्दजीको लेकर व्रजमें चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओंको आनन्दित किया ॥ ९ ॥ नन्द- बाबाने वरुणलोकमें लोकपालके इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्तिको देखा तथा यह भी देखा कि वहाँके निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्णके चरणोंमें झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रजमें आकर अपने जाति-भाइयोंको सब बातें कह सुनायीं ॥ १० ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान्‌ हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकतासे विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमलोगोंको भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपोंकी यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करनेके लिये कृपासे भरकर इस प्रकार सोचने लगे ॥ १२ ॥ इस संसारमें जीव अज्ञानवश शरीरमें आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँतिकी कामना और उनकी पूर्तिके लिये नाना प्रकारके कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियोंमें भटकता फिरता है, अपनी असली गतिकोआत्मस्वरूपको नहीं पहचान पाता ॥ १३ ॥ परमदयालु भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सोचकर उन गोपोंको मायान्धकारसे अतीत अपना परमधाम दिखलाया ॥ १४ ॥ भगवान्‌ने पहले उनको उस ब्रह्मका साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योति:स्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ॥ १५ ॥ जिस जलाशयमें अक्रूर को भगवान्‌ ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मह्रद में भगवान्‌ उन गोपों को ले गये। वहाँ उन लोगों ने उसमें डुबकी लगायी। वे ब्रह्मह्रदमें  प्रवेश कर गये। तब भगवान्‌ ने उसमेंसे उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया ॥ १६ ॥ उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान् होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ॥ १७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वरुणलोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना

 

श्रीशुक उवाच -

एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ।

स्नातुं नन्दस्तु कालिन्द्यां द्वादश्यां जलमाविशत् ॥ १ ॥

तं गृहीत्वानयद् भृत्यो वरुणस्यासुरोऽन्तिकम् ।

अवज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि ॥ २ ॥

चुक्रुशुस्तमपश्यन्तः कृष्ण रामेति गोपकाः ।

भगवांस्तदुपश्रुत्य पितरं वरुणाहृतम् ।

तदन्तिकं गतो राजन् स्वानामभयदो विभुः ॥ ३ ॥

प्राप्तं वीक्ष्य हृषीकेशं लोकपालः सपर्यया ।

महत्या पूजयित्वाऽऽह तद्दर्शनमहोत्सवः ॥ ४ ॥

 

श्रीवरुण उवाच -

अद्य मे निभृतो देहो अद्यैवार्थोऽधिगतः प्रभो ।

त्वत्पादभाजो भगवन् अवापुः पारमध्वनः ॥ ५ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने ।

न यत्र श्रूयते माया लोकसृष्टिविकल्पना ॥ ६ ॥

अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना ।

आनीतोऽयं तव पिता तद् भवान् क्षन्तुमर्हति ॥ ७ ॥

ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुं अर्हस्यशेषदृक् ।

गोविन्द नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल ॥ ८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा ने कार्तिक शुक्ल एकादशीका उपवास किया और भगवान्‌की पूजा की तथा उसी दिन रातमें द्वादशी लगनेपर स्नान करनेके लिये यमुना-जलमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ नन्दबाबाको यह मालूम नहीं था कि यह असुरोंकी वेला है, इसलिये वे रातके समय ही यमुनाजलमें घुस गये। उस समय वरुणके सेवक एक असुर ने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामीके पास ले गया ॥ २ ॥ नन्दबाबा के खो जाने से व्रज के सारे गोप श्रीकृष्ण ! अब तुम्हीं अपने पिताको ला सकते हो; बलराम ! अब तुम्हारा ही भरोसा है’—इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् हैं एवं सदासे ही अपने भक्तोंका भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियोंका रोना पीटना सुना और यह जाना कि पिताजीको वरुणका कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुणजीके पास गये ॥ ३ ॥ जब लोकपाल वरुणने देखा कि समस्त जगत्के अन्तरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियोंके प्रवर्तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान्‌ के दर्शनसे उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान्‌ से निवेदन किया ॥ ४ ॥

 

वरुणजीने कहाप्रभो ! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया। क्योंकि आज मुझे आपके चरणोंकी सेवाका शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवन् ! जिन्हें भी आपके चरणकमलोंकी सेवाका सुअवसर मिला, वे भवसागरसे पार हो गये ॥ ५ ॥ आप भक्तोंके भगवान्‌, वेदान्तियों के ब्रह्म और योगियों के परमात्मा हैं। आपके स्वरूपमें विभिन्न लोकसृष्टियों की कल्पना करनेवाली माया नहीं हैऐसा श्रुति कहती है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥ प्रभो ! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्यको भी नहीं जानता। वही आपके पिताजीको ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये ॥ ७ ॥ गोविन्द ! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिताके प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परंतु भगवन् ! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दासपर भी कृपा कीजिये ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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