॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
रासलीलाका
आरम्भ
श्रीशुक
उवाच -
इति
विप्रियमाकर्ण्य गोप्यो गोविन्दभाषितम् ।
विषण्णा
भग्नसङ्कल्पाः चिन्तामापुर्दुरत्ययाम् ॥ २८ ॥
कृत्वा
मुखान्यव शुचः श्वसनेन शुष्यद्
बिम्बाधराणि
चरणेन भुवः लिखन्त्यः ।
अस्रैरुपात्तमषिभिः
कुचकुङ्कुमानि
तस्थुर्मृजन्त्य
उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ॥ ॥
प्रेष्ठं
प्रियेतरमिव प्रतिभाषमाणं
कृष्णं
तदर्थविनिवर्तितसर्वकामाः ।
नेत्रे
विमृज्य रुदितोपहते स्म किञ्चित्
संरम्भगद्गदगिरोऽब्रुवतानुरक्ताः
॥ ३० ॥
श्रीगोप्य
ऊचुः ।
मैवं
विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सन्त्यज्य
सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता
भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो
यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ ३१ ॥
यत्पत्यपत्यसुहृदां
अनुवृत्तिरङ्ग
स्त्रीणां
स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे
त्वयीशे
प्रेष्ठो
भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥ ३२ ॥
कुर्वन्ति
हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्
नित्यप्रिये
पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम् ।
तन्नः
प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या
आशां
धृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ॥ ३३ ॥
चित्तं
सुखेन भवतापहृतं गृहेषु
यन्निर्विशत्युत
करावपि गृह्यकृत्ये ।
पादौ
पदं न चलतस्तव पादमूलाद्
यामः
कथं व्रजमथो करवाम किं वा ॥ ३४ ॥
सिञ्चाङ्ग
नस्त्वदधरामृतपूरकेण
हासावलोककलगीतजहृच्छयाग्निम्
।
नो
चेद् वयं विरहजाग्नि उपयुक्तदेहा
ध्यानेन
याम पदयोः पदवीं सखे ते ॥ ३५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णका यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास,
खिन्न हो गयीं। उनकी आशा टूट गयी। वे चिन्ताके अथाह एवं अपार
समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं ॥ २८ ॥ उनके बिम्बाफल (पके हुए कुँदरू) के समान
लाल-लाल अधर शोकके कारण चलनेवाली लंबी और गरम साँससे सूख गये। उन्होंने अपने मुँह
नीचेकी ओर लटका लिये, वे पैरके नखोंसे धरती कुरेदने लगीं।
नेत्रोंसे दु:खके आँसू बह-बहकर काजलके साथ वक्ष:स्थलपर पहुँचने और वहाँ लगी हुई
केसरको धोने लगे। उनका हृदय दु:खसे इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं ॥ २९ ॥ गोपियोंने अपने प्यारे श्यामसुन्दरके लिये
सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्णमें उनका
अनन्य अनुराग, परम प्रेम था। जब उन्होंने अपने प्रियतम
श्रीकृष्णकी यह निष्ठुरतासे भरी बात सुनी, जो बड़ी ही
अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। आँखें
रोते-रोते लाल हो गयीं, आँसुओं के मारे रुँध गयीं। उन्होंने
धीरज धारण करके अपनी आँखोंके आँसू पोंछे और फिर प्रणयकोपके कारण वे गद्गद वाणीसे
कहने लगीं ॥ ३० ॥
गोपियोंने
कहा—प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदयकी बात जानते हो।
तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोडक़र केवल
तुम्हारे चरणोंमें ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और
हठीले हो। तुमपर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी ओरसे, जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तोंसे प्रेम
करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो ॥
३१ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम सब धर्मोंका रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र और भाई-बन्धुओंकी सेवा करना ही
स्त्रियोंका स्वधर्म है’—अक्षरश: ठीक है। परंतु इस उपदेशके
अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं
सब उपदेशोंके पद (चरम लक्ष्य) हो; साक्षात् भगवान् हो।
तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद् हो, आत्मा हो और परम
प्रियतम हो ॥ ३२ ॥ आत्मज्ञानमें निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं; क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो। अनित्य एवं दु:खद
पति-पुत्रादिसे क्या प्रयोजन है ? परमेश्वर ! इसलिये हमपर
प्रसन्न होओ। कृपा करो। कमलनयन ! चिरकालसे तुम्हारे प्रति पाली-पोसी आशा-अभिलाषाकी
लहलहाती लताका छेदन मत करो ॥ ३३ ॥ मनमोहन ! अबतक हमारा चित्त घरके काम-धंधोंमें
लगता था। इसीसे हमारे हाथ भी उनमें रमे हुए थे। परंतु तुमने हमारे देखते-देखते
हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न ! परंतु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है।
हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलोंको छोडक़र एक पग भी हटनेके लिये तैयार नहीं हैं,
नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रजमें कैसे जायँ ? और
यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ? ॥ ३४ ॥ प्राणवल्लभ ! हमारे
प्यारे सखा ! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेमभरी
चितवन और मनोहर संगीतने हमारे हृदयमें तुम्हारे प्रेम और मिलनकी आग धधका दी है।
उसे तुम अपने अधरोंकी रसधारासे बुझा दो। नहीं तो प्रियतम ! हम सच कहती हैं,
तुम्हारी विरह-व्यथाकी आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और
ध्यानके द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से