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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण
के विरह में गोपियों की दशा
दृष्टो
वः कच्चिदश्वत्थ प्लक्ष न्यग्रोध नो मनः ।
नन्दसूनुर्गतो
हृत्वा प्रेमहासावलोकनैः ॥ ५ ॥
कच्चित्कुरबकाशोक
नागपुन्नागचम्पकाः ।
रामानुजो
मानिनीनामितो दर्पहरस्मितः ॥ ६ ॥
कच्चित्तुलसि
कल्याणि गोविन्दचरणप्रिये ।
सह
त्वालिकुलैर्बिभ्रद्दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः ॥ ७ ॥
मालत्यदर्शि
वः कच्चिन्मल्लिके जातियूथिके ।
प्रीतिं
वो जनयन् यातः करस्पर्शेन माधवः ॥ ८ ॥
चूतप्रियालपनसासनकोविदार-
जम्ब्वर्कबिल्वबकुलाम्रकदम्बनीपाः
।
येऽन्ये
परार्थभवका यमुनोपकूलाः
शंसन्तु
कृष्णपदवीं रहितात्मनां नः ॥ ९ ॥
किं
ते कृतं क्षिति तपो बत केशवाङ्घ्रि-
स्पर्शोत्सवोत्पुलकिताङ्गनहैर्विभासि
।
अप्यङ्घ्रिसम्भव
उरुक्रमविक्रमाद्-
वा
आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन ॥ १० ॥
अप्येणपत्न्युपगतः
प्रिययेह गात्रै-
स्तन्वन्
दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः ।
कान्ताङ्गसङ्गकुचकुङ्कुमरञ्जितायाः
कुन्दस्रजः
कुलपतेरिह वाति गन्धः ॥ ११ ॥
बाहुं
प्रियांस उपधाय गृहीतपद्मो
रामानुजस्तुलसिकालिकुलैर्मदान्धैः
।
अन्वीयमान
इह वस्तरवः प्रणामं
किं
वाभिनन्दति चरन् प्रणयावलोकैः ॥ १२ ॥
पृच्छतेमा
लता बाहूनप्याश्लिष्टा वनस्पतेः ।
नूनं
तत्करजस्पृष्टा बिभ्रत्युत्पुलकान्यहो ॥ १३ ॥
(गोपियोंने
पहले बड़े-बड़े वृक्षोंसे जाकर पूछा) ‘हे पीपल, पाकर और बरगद ! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेमभरी मुसकान और चितवनसे
हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुमलोगोंने उन्हें देखा है ? ॥ ५ ॥ कुरबक, अशोक, नागकेशर,
पुन्नाग और चम्पा ! बलरामजीके छोटे भाई, जिनकी
मुसकानमात्रसे बड़ी-बड़ी मानिनियोंका मानमर्दन हो जाता है, इधर
आये थे क्या ?’ ॥ ६ ॥ (अब उन्होंने स्त्रीजातिके पौधोंसे कहा—)
‘बहिन तुलसी ! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगोंका कल्याण चाहती हो। भगवान्के चरणोंमें तुम्हारा प्रेम
तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरोंके
मँडराते रहनेपर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा
पहने रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दरको देखा है ? ॥ ७ ॥ प्यारी मालती ! मल्लिके ! जाती और जूही ! तुमलोगोंने कदाचित् हमारे
प्यारे माधवको देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित
करते हुए इधरसे गये हैं ? ॥ ८ ॥ ‘रसाल,
प्रियाल, कटहल, पीतशाल,
कचनार, जामुन, आक,
बेल, मौलसिरी, आम,
कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुनाके तटपर विराजमान सुखी तरुवरो !
तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकारके लिये है। श्रीकृष्णके बिना हमारा जीवन सूना हो
रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पानेका मार्ग बता दो’ ॥ ९ ॥ ‘भगवान् की प्रेयसी पृथ्वीदेवी ! तुमने ऐसी
कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्दसे
भर रही हो और तृण-लता आदिके रूपमें अपना रोमाञ्च प्रकट कर रही हो ? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्णके चरणस्पर्श के कारण है अथवा
वामनावतार में विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है ? कहीं उनसे भी पहले वराहभगवान् के
अङ्ग-सङ्ग के कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है ?’ ॥
१० ॥ ‘अरी सखी ! हरिनियो ! हमारे श्यामसुन्दर के अङ्ग-सङ्ग से
सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी
प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्दका दान करते हुए इधरसे ही तो नहीं
गये हैं ? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की मालाकी मनोहर गन्ध आ रही है,
जो उनकी परम प्रेयसी के अङ्ग-सङ्ग से लगे हुए कुच-कुङ्कुम से
अनुरञ्जित रहती है’ ॥ ११ ॥ ‘तरुवरो !
उनकी मालाकी तुलसीमें ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्धके लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक
क्षण उसपर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथमें लीलाकमल होगा और दूसरा हाथ अपनी
प्रेयसीके कंधेपर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधरसे विचरते हुए अवश्य गये
होंगे। जान पड़ता है, तुमलोग उन्हें प्रणाम करनेके लिये ही झुके
हो। परंतु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे भी तुम्हारी वन्दनाका अभिनन्दन किया है
या नहीं ?’ ॥ १२ ॥ ‘अरी सखी ! इन
लताओंसे पूछो। ये अपने पति वृक्षोंको भुजपाशमें बाँधकर आलिङ्गन किये हुए हैं,
इससे क्या हुआ ? इनके शरीरमें जो पुलक है,
रोमाञ्च है, वह तो भगवान् के नखों के
स्पर्शसे ही है। अहो ! इनका कैसा सौभाग्य है ?’ ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से