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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीकृष्ण
के विरह में गोपियों की दशा
एवं
कृष्णं पृच्छमाना व्र्ण्दावनलतास्तरून् ।
व्यचक्षत
वनोद्देशे पदानि परमात्मनः ॥ २४ ॥
पदानि
व्यक्तमेतानि नन्दसूनोर्महात्मनः ।
लक्ष्यन्ते
हि ध्वजाम्भोज वज्राङ्कुशयवादिभिः ॥ २५ ॥
तैस्तैः
पदैस्तत्पदवीमन्विच्छन्त्योऽग्रतोऽबलाः ।
वध्वाः
पदैः सुपृक्तानि विलोक्यार्ताः समब्रुवन् ॥ २६ ॥
कस्याः
पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः
करेणोः करिणा यथा ॥ २७ ॥
अनयाराधितो
नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो
विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ २८ ॥
धन्या
अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।
यान्
ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ २९ ॥
तस्या
अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्-
यैकापहृत्य
गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ॥ ३० ॥
न
लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः
खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये
प्रेयसीं प्रियः ॥ ३१ ॥
इमान्यधिकमग्नानि
पदानि वहतो वधूम् ।
गोप्यः
पश्यत कृष्णस्य भाराक्रान्तस्य कामिनः ॥ ३२ ॥
अत्रावरोपिता
कान्ता पुष्पहेतोर्महात्मना ।
अत्र
प्रसूनावचयः प्रियार्थे प्रेयसा कृतः ।
प्रपदाक्रमण
एते पश्यतासकले पदे ॥ ३३ ॥
केशप्रसाधनं
त्वत्र कामिन्याः कामिना कृतम् ।
तानि
चूडयता कान्तामुपविष्टमिह ध्रुवम् ॥ ३४ ॥
रेमे
तया चात्मरत आत्मारामोऽप्यखण्डितः ।
कामिनां
दर्शयन् दैन्यं स्त्रीणां चैव दुरात्मताम् ॥ ३५ ॥
परीक्षित्
! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावनके वृक्ष और लता आदिसे फिर भी
श्रीकृष्णका पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थानपर भगवान्के चरणचिह्न देखे
॥ २४ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘अवश्य ही ये चरणचिह्न
उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके हैं; क्योंकि इनमें
ध्वजा, कमल, वज्र, अङ्कुश और जौ आदिके चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं’ ॥
२५ ॥ उन चरणचिह्नोंके द्वारा व्रजवल्लभ भगवान्को ढूँढ़ती हुई गोपियाँ आगे बढ़ीं,
तब उन्हें श्रीकृष्णके साथ किसी व्रजयुवतीके भी चरणचिह्न दीख पड़े।
उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपसमें कहने लगीं— ॥ २६
॥ ‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराजके साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दरके साथ उनके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाली किस
बड़भागिनीके ये चरणचिह्न हैं ? ॥ २७ ॥ अवश्य ही
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी यह ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दरने हमें
छोड़ दिया है और इसे एकान्तमें ले गये हैं ॥ २८ ॥ प्यारी सखियो ! भगवान्
श्रीकृष्ण अपने चरणकमलसे जिस रजका स्पर्श कर देते हैं, वह
धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं; क्योंकि
ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करनेके
लिये उस रजको अपने सिरपर धारण करते हैं’ ॥ २९ ॥ ‘अरी सखी ! चाहे कुछ भी हो—यह जो सखी हमारे सर्वस्व
श्रीकृष्णको एकान्तमें ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधाका रस पी रही है, इस गोपीके उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदयमें बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर
रहे हैं’ ॥ ३० ॥ यहाँ उस गोपीके पैर नहीं दिखायी देते। मालूम
होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दरने देखा होगा कि मेरी
प्रेयसीके सुकुमार चरणकमलोंमें घासकी नोक गड़ती होगी; इसलिये
उन्होंने उसे अपने कंधेपर चढ़ा लिया होगा ॥ ३१ ॥ सखियो ! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्णके चरणचिह्न अधिक गहरे—बालूमें धँसे
हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तुको उठाकर चले हैं, उसीके बोझसे उनके पैर जमीनमें धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामीने अपनी
प्रियतमाको अवश्य कंधेपर चढ़ाया होगा ॥ ३२ ॥ देखो-देखो, यहाँ
परमप्रेमी व्रजवल्लभने फूल चुननेके लिये अपनी प्रेयसीको नीचे उतार दिया है और यहाँ
परम प्रियतम श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसीके लिये फूल चुने हैं। उचक-उचककर फूल तोडऩेके
कारण यहाँ उनके पंजे तो धरतीमें गड़े हुए हैं और एड़ीका पता ही नहीं है ॥ ३३ ॥ परम
प्रेमी श्रीकृष्णने कामी पुरुषके समान यहाँ अपनी प्रेयसीके केश सँवारे हैं। देखो,
अपने चुने हुए फूलोंको प्रेयसीकी चोटीमें गूँथनेके लिये वे यहाँ
अवश्य ही बैठे रहे होंगे ॥ ३४ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे
अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें
दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें कामकी कल्पना कैसे हो सकती
है ? फिर भी उन्होंने कामियोंकी दीनता-स्त्रीपरवशता और
स्त्रियोंकी कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपीके साथ एकान्तमें क्रीडा की थी—एक खेल रचा था ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से