॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
महारास
गोप्यो
लब्ध्वाच्युतं कान्तं श्रिय एकान्तवल्लभम् ।
गृहीतकण्ठ्यस्तद्दोर्भ्यां
गायन्त्यस्तं विजह्रिरे ॥ १५ ॥
कर्णोत्पलालकविटङ्ककपोलघर्म
वक्त्रश्रियो
वलयनूपुरघोषवाद्यैः ।
गोप्यः
समं भगवता ननृतुः स्वकेश
स्रस्तस्रजो
भ्रमरगायकरासगोष्ठ्याम् ॥ १६ ॥
एवं
परिष्वङ्गकराभिमर्श
स्निग्धेक्षणोद्दामविलासहासैः
।
रेमे
रमेशो व्रजसुन्दरीभिः
यथार्भकः
स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः ॥ १७ ॥
तदङ्गसङ्गप्रमुदाकुलेन्द्रियाः
केशान्
दूकूलं कुचपट्टिकां वा ।
नाञ्जः
प्रतिव्योढुमलं व्रजस्त्रियो
विस्रस्तमालाभरणाः
कुरूद्वह ॥ १८ ॥
कृष्णविक्रीडितं
वीक्ष्य मुमुहुः खेचरस्त्रियः ।
कामार्दिताः
शशाङ्कश्च सगणो विस्मितोऽभवत् ॥ १९ ॥
कृत्वा
तावन्तमात्मानं यावतीर्गोपयोषितः ।
रेमे
स भगवान् ताभिः आत्मारामोऽपि लीलया ॥ २० ॥
तासां
अतिविहारेण श्रान्तानां वदनानि सः ।
प्रामृजत्
करुणः प्रेम्णा शन्तमेनाङ्ग पाणिना ॥ २१ ॥
गोप्यः
स्फुरत्पुरटकुण्डलकुन्तलत्विड्
गण्डश्रिया
सुधितहासनिरीक्षणेन ।
मानं
दधत्य ऋषभस्य जगुः कृतानि
पुण्यानि
तत्कररुहस्पर्शप्रमोदाः ॥ २२ ॥
ताभिर्युतः
श्रममपोहितुमङ्गसङ्ग
घृष्टस्रजः
स कुचकुङ्कुमरञ्जितायाः ।
गन्धर्वपालिभिरनुद्रुत
आविशद् वा
श्रान्तो
गजीभिरिभराडिव भिन्नसेतुः ॥ २३ ॥
सोऽम्भस्यलं
युवतिभिः परिषिच्यमानः
प्रेम्णेक्षितः
प्रहसतीभिरितस्ततोऽङ्ग ।
वैमानिकैः
कुसुमवर्षिभिरीड्यमानो
रेमे
स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः ॥ २४ ॥
ततश्च
कृष्णोपवने जलस्थल
प्रसूनगन्धानिलजुष्टदिक्तटे
।
चचार
भृङ्गप्रमदागणावृतो
यथा
मदच्युद् द्विरदः करेणुभिः ॥ २५ ॥
एवं
शशाङ्कांशुविराजिता निशाः
स
सत्यकामोऽनुरताबलागणः ।
सिषेव
आत्मन्यवरुद्धसौरतः
सर्वाः
शरत्काव्यकथारसाश्रयाः ॥ २६ ॥
परीक्षित्
! गोपियोंका सौभाग्य लक्ष्मीजीसे भी बढक़र है। लक्ष्मीजीके परम प्रियतम एकान्तवल्लभ
भगवान् श्रीकृष्णको अपने परम प्रियतमके रूपमें पाकर गोपियाँ गान करती हुई उनके
साथ विहार करने लगीं। भगवान् श्रीकृष्णने उनके गलोंको अपने भुजपाशमें बाँध रखा था, उस समय गोपियोंकी बड़ी अपूर्व शोभा थी ॥ १५ ॥ उनके कानोंमें कमलके कुण्डल
शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं। पसीनेकी बूँदें झलकनेसे उनके
मुखकी छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान् श्रीकृष्णके साथ नृत्य कर
रही थीं। उनके कंगन और पायजेबोंके बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुरमें अपना सुर
मिलाकर गा रहे थे और उनके जूडों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे ॥
१६ ॥ परीक्षित् ! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछार्ईं के साथ खेलता
है, वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने
हृदयसे लगा लेते, कभी हाथसे उनका अङ्गस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते, तो कभी
लीलासे उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दरियोंके साथ क्रीडा
की, विहार किया ॥ १७ ॥ परीक्षित् ! भगवान्के अङ्गोंका
संस्पर्श प्राप्त करके गोपियोंकी इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्दसे विह्वल हो गयीं।
उनके केश बिखर गये। फूलोंके हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश,
वस्त्र और कंचुकीको भी पूर्णतया सँभालनेमें असमर्थ हो गयीं ॥ १८ ॥
भगवान् श्रीकृष्णकी यह रासक्रीडा देखकर स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ भी मिलनकी कामनासे
मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहोंके साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं—उन्हें अपने अतिरिक्त और किसीकी भी आवश्यकता नहीं है—फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप
धारण किये और खेल- खेलमें उनके साथ इस प्रकार विहार किया ॥ २० ॥ जब बहुत देरतक गान
और नृत्य आदि विहार करनेके कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय
भगवान् श्रीकृष्णने बड़े प्रेमसे स्वयं अपने सुखद करकमलोंके द्वारा उनके मुँह
पोंछे ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! भगवान्के करकमल और नखस्पर्शसे गोपियोंको बड़ा आनन्द
हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलोंके सौन्दर्यसे, जिनपर सोनेके
कुण्डल झिलमिला रहे थे और घुँघराली अलकें लटक रही थीं तथा उस प्रेमभरी चितवनसे,
जो सुधासे भी मीठी मुसकानसे उज्ज्वल हो रही थी, भगवान् श्रीकृष्णका सम्मान किया और प्रभुकी परम पवित्र लीलाओंका गान करने
लगीं ॥ २२ ॥ इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारोंको तोड़ता हुआ हथिनियोंके साथ
जलमें घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेदकी मर्यादाका
अतिक्रमण करनेवाले भगवान्ने अपनी थकान दूर करनेके लिये गोपियोंके साथ जलक्रीडा
करनेके उद्देश्यसे यमुनाके जलमें प्रवेश किया। उस समय भगवान्की वनमाला गोपियोंके
अङ्गकी रगड़से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्ष:स्थलकी केसरसे वह रँग भी गयी थी।
उसके चारों ओर गुन- गुनाते हुए भौंरे उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे मानो
गन्धर्वराज उनकी कीर्तिका गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों ॥ २३ ॥ परीक्षित् !
यमुनाजल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवनसे भगवान्की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर
उनपर इधर-उधरसे जलकी खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया।
विमानोंपर चढ़े हुए देवता पुष्पोंकी वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार
यमुनाजलमें स्वयं आत्माराम भगवान् श्रीकृष्णने गजराजके समान जलविहार किया ॥ २४ ॥
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण व्रजयुवतियों और भौंरोंकी भीड़से घिरे हुए यमुनातटके
उपवनमें गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थलमें बड़ी सुन्दर
सुगन्धवाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें
भगवान् इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज
हथिनियोंके झुंडके साथ घूम रहा हो ॥ २५ ॥ परीक्षित्! शरद्की वह रात्रि जिसके
रूपमें अनेक रात्रियाँ पुञ्जीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर
थी। चारों ओर चन्द्रमाकी बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्यों में शरद् ऋतुकी
जिन रस- सामग्रियों का वर्णन मिलता है, उन सभीसे वह युक्त
थी। उसमें भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्रेयसी गोपियोंके साथ यमुनाके पुलिन, यमुनाजी और उनके उपवनमें विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान्
सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मयी लीला है। और उन्होंने इस
लीलामें कामभाव को, उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रियाको
सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आपमें कैद कर रखा
था ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से