शनिवार, 15 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।

मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥

रङ्‌गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।

अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥

बद्ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।

उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।

नो चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।

चोदयामास कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत् ।

कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्‌घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥

सङ्‌क्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।

परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।

विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।

बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥

ततोऽभिमखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।

प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥

स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।

तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥

स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।

चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः ।

निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।

दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकाम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्‌ ! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ॥ ४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे भगवान्‌की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु भगवान्‌ सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥ ६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्‌को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान्‌ उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान्‌ मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान्‌ ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

श्रीशुक उवाच -

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।

मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥

रङ्‌गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।

अपश्यत्कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥

बद्ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।

उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।

नो चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।

चोदयामास कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत् ।

कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्‌घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥

सङ्‌क्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।

परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।

विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।

बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥

ततोऽभिमखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।

प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥

स धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।

तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥

स्वविक्रमे प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।

चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः ।

निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।

दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकाम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्‌ ! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ॥ ४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे भगवान्‌की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु भगवान्‌ सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥ ६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्‌को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान्‌ उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान्‌ मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान्‌ ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट

 

कंसस्तु धनुषो भङ्‌गं रक्षिणां स्वबलस्य च ।

वधं निशम्य गोविन्द रामविक्रीडितं परम् ॥ २६ ॥

दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः ।

बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च ॥ २७ ॥

अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि ।

असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा ॥ २८ ॥

छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः ।

स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम् ॥ २९ ॥

स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्‌गः खरयानं विषादनम् ।

यायान्नलदमाल्येकः तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः ॥ ३० ॥

अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च ।

पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया ॥ ३१ ॥

व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्‍भ्यः समुत्थिते ।

कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम् ॥ ३२ ॥

आनर्चुः पुरुषा रङ्‌गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ।

मञ्चाश्चालङ्‌कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः ॥ ३३ ॥

तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः ।

यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः ॥ ३४ ॥

कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत् ।

मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता ॥ ३५ ॥

वाद्यमानेसु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च ।

मल्लाः स्वलङ्‌कृताः दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन् ॥ ३६ ॥

चाणूरो मुष्टिकः कूतः शलस्तोशल एव च ।

त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः ॥ ३७ ॥

नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः ।

निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन् ॥ ३८ ॥

 

जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही थाइसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ॥ २६ ॥ तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए, जो उसकी मृत्यु के सूचक थे ॥ २७ ॥ जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछार्ईं तो पड़ती है, परंतु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं ॥ २८ ॥ छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अँगुली डालकर सुननेपर भी प्राणोंका घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते ॥ २९ ॥ कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढक़र चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल) की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है ॥ ३० ॥ स्वप्न और जाग्रत्-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी ॥ ३१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल- क्रीड़ा-(दंगल-) का महोत्सव प्रारम्भ कराया ॥ ३२ ॥ राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगोंके बैठनेके मञ्च फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये ॥ ३३ ॥ उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासीसब यथास्थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे ॥ ३४ ॥ राजा कंस अपने मन्ङ्क्षत्रयोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राज-सिंहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था ॥ ३५ ॥ तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे ॥ ३६ ॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये ॥ ३७ ॥ इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया। उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मञ्चपर बैठ गये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरङोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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