सोमवार, 17 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः ।

अभ्यधावन् अतिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः ॥ ४० ॥

तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तात् रोहिणीसुतः ।

अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः ॥ ४१ ॥

नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः ।

पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥ ४२ ॥

तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः ।

तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः ॥ ४३ ॥

शयानान् न्वीरशय्यायां पतीन् आलिङ्‌ग्य शोचतीः ।

विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः ॥ ४४ ॥

हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल ।

त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः ॥ ४५ ॥

त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।

न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्‌गला ॥ ४६ ॥

अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम् ।

तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम् ॥ ४७ ॥

सर्वेषामिह भूतानां एष हि प्रभवाप्ययः ।

गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

राजयोषित आश्वास्य भगवान् लोकभावनः ।

यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत् ॥ ४९ ॥

मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात् ।

कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयोः ॥ ५० ॥

देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।

कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्‌कितौ ॥ ५१ ॥

 

कंस के कङ्क और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोधसे आग-बबूले होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े ॥ ४० ॥ जब भगवान्‌ बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्धके लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है ॥ ४१ ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्‌ के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४२ ॥ महाराज ! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दु:खित हुर्ईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ॥ ४३ ॥ वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ ४४ ॥ हा नाथ ! हे प्यारे ! हे धर्मज्ञ ! हे करुणामय ! हे अनाथवत्सल ! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ॥ ४५ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! इस पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मङ्गलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी ॥ ४६ ॥ स्वामी ! आपने निरपराध प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ॥ ४७ ॥ ये भगवान्‌ श्रीकृष्ण जगत्के समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोकरीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ॥ ५० ॥ किन्तु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शङ्का हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें ॥ ५१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुर्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः ।

शत्रुं हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ ॥ १७ ॥

सभयाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ ।

पितरौ अन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम् ॥ १८ ॥

तैस्तैर्नियुद्धविधिभिः विविधैरच्युतेतरौ ।

युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ ॥ १९ ॥

भगवद्‍गात्रनिष्पातैः वज्रनीष्पेषनिष्ठुरैः ।

चाणूरो भज्यमानाङ्‌गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह ॥ २० ॥

स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ ।

भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत ॥ २१ ॥

नाचलत् तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः ।

बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः ॥ २२ ॥

भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीण जीवितम् ।

विस्रस्ताकल्पकेशस्रग् इन्द्रध्वज इवापतत् ॥ २३ ॥

तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै ।

बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम् ॥ २४ ॥

प्रवेपितः स रुधिरं उद्‌वमन् मुखतोऽर्दितः ।

व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्‌घ्रिपः ॥ २५ ॥

ततः कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः ।

अवधीत् लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना ॥ २६ ॥

तर्ह्येव हि शलः कृष्ण प्रपदाहतशीर्षकः ।

द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः ॥ २७ ॥

चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते ।

शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ २८ ॥

गोपान् वयस्यान् आकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः ।

वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ ॥ २९ ॥

जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः ।

ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति ॥ ३० ॥

हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट् ।

न्यवारयत् स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३१ ॥

निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात् ।

धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम् ॥ ३२ ॥

वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः ।

उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः ॥ ३३ ॥

एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः ।

लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्‌गमारुहत् ॥ ३४ ॥

तं आविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात् ।

मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी ॥ ३५ ॥

तं खड्गपाणिं विचरन्तमाशु

श्येनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे ।

समग्रहीद् दुर्विषहोग्रतेजा

यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य ॥ ३६ ॥

प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीतं

निपात्य रङ्‌गोपरि तुङ्‌गमञ्चात् ।

तस्योपरिष्टात् स्वत्स्वयमब्जनाभः

पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः ॥ ३७ ॥

तं सम्परेतं विचकर्ष भूमौ

हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः ।

हा हेति शब्दः सुमहान् तदाभूद्

उदीरितः सर्वजनैर्नरेन्द्र ॥ ३८ ॥

स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं

पिबन् वदन् वा विचरन् स्वपन्श्वसन् ।

ददर्श चक्रायुधमग्रतो यतः

तदेव रूपं दुरवापमाप ॥ ३९ ॥

 

भरतवंशशिरोमणे ! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने मन-ही-मन शत्रुको मार डालनेका निश्चय किया ॥ १७ ॥ स्त्रियोंकी ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे[*]।  वे पुत्रस्नेहवश शोकसे विह्वल हो गये। उनके हृदयमें बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रोंके बल-वीर्यको नहीं जानते थे ॥ १८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनसे भिडऩेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकारके दाँव- पेंचका प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे ॥ १९ ॥ भगवान्‌के अङ्ग-प्रत्यङ्ग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई ॥ २० ॥ अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाजकी तरह झपटा और दोनों हाथोंके घूँसे बाँधकर उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी छातीपर प्रहार किया ॥ २१ ॥ परंतु उसके प्रहारसे भगवान्‌ तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलोंके गजरेकी मारसे गजराज। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित्‌ ! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त- व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्रकी पूजाके लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ॥ २२-२३ ॥ इसी प्रकार मुष्टिकने भी पहले बलरामजीको एक घूँसा मारा। इसपर बली बलरामजीने उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दिया ॥ २४ ॥ तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे उखड़े हुए वृक्षके समान अत्यन्त व्यथित और अन्तमें प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ हे राजन् ! इसके बाद योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ बलरामजीने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवानको खेल-खेलमें ही बायें हाथके घूँसेसे उपेक्षापूर्वक मार डाला ॥ २६ ॥ उसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने पैरकी ठोकरसे शलका शिर धड़से अलग कर दिया और तोशलको तिनकेकी तरह चीरकर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये ॥ २७ ॥ जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशलये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ २८ ॥ उनके भाग जानेपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वालबालोंको खींच-खींचकर उनके साथ भिडऩे और नाच-नाचकर भेरीध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकार को मिलाकर मल्लक्रीडाकुश्तीके खेल करने लगे ॥ २९ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्भुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष धन्य है, धन्य है’,—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परंतु कंसको इससे बड़ा दु:ख हुआ। वह और भी चिढ़ गया ॥ ३० ॥ जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकोंको यह आज्ञा दी॥ ३१ ॥ अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लडक़ोंको नगरसे बाहर निकाल दो। गोपोंका सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्दको कैद कर लो ॥ ३२ ॥ वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होनेपर भी अपने अनुयायियोंके साथ शत्रुओंसे मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोड़ो॥ ३३ ॥ कंस इस प्रकार बढ़-बढक़र बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मञ्चपर जा चढ़े ॥ ३४ ॥ जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल तथा तलवार उठा ली ॥ ३५ ॥ हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परंतु भगवान्‌ का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्‌ ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ॥ ३६ ॥ इसी समय कंसका मुकुट गिर गया और भगवान्‌ ने उसके केश पकडक़र उसे भी उस ऊँचे मञ्चसे रंगभूमिमें गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े ॥ ३७ ॥ उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान्‌ श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र ! उस समय सबके मुँहसे हाय ! हाय !की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ॥ ३८ ॥ कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेतेसब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूपवह चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया होउसे भगवान्‌ के उसी रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है ॥ ३९ ॥

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[*] स्त्रियाँ जहाँ बातें कर रही थीं, वहाँ से निकट ही वसुदेव-देवकी कैद थे; अत: वे उनकी बातें सुन सके।

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रविवार, 16 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एवं चर्चितसङ्‌कल्पो भगवान् मधुसूदनः ।

आससादाथ चणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः ॥ १ ॥

हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्‍भ्यामेव च पादयोः ।

विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया ॥ २ ॥

अरत्‍नी द्वे अरत्‍निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी ।

शिरः शीर्ष्णोरसोरस्तौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ ३ ॥

परिभ्रामणविक्षेप परिरम्भावपातनैः ।

उत्सर्पणापसर्पणैः चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम् ॥ ४ ॥

उत्थापनैरुन्नयनैः चालनैः स्थापनैरपि ।

परस्परं जिगीषन्तौ अपचक्रतुरात्मनः ॥ ५ ॥

तद्‍बलाबलवद् युद्धं समेताः सर्वयोषितः ।

ऊचुः परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः ॥ ६ ॥

महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम् ।

ये बलाबलवद् युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः ॥ ७ ॥

क्व वज्रसारसर्वाङ्‌गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ ।

क्व चातिसुकुमाराङ्‌गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ ॥ ८ ॥

धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत् ।

यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेत् न स्थेयं तत्र कर्हिचित् ॥ ९ ॥

न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषान् अनुस्मरन् ।

अब्रुवन् विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते ॥ १० ॥

वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम् ।

वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः ॥ ११ ॥

किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम् ।

मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम् ॥ १२ ॥

पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्‌ग

गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः ।

गाः पालयन्सहबलः क्वणयंश्च वेणुं

विक्रीदयाञ्चति गिरित्ररमार्चिताङ्‌घ्रिः ॥ १३ ॥

गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं

लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् ।

दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम्

एकान्तधाम यशसः श्रीय ऐश्वरस्य ॥ १४ ॥

या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप

प्रेङ्‌खेङ्‌खनार्भरुदितो-क्षणमार्जनादौ ।

गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो

धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥ १५ ॥

प्रातर्व्रजाद् व्रजत आविशतश्च सायं

गोभिः समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम् ।

निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः

पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम् ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े ॥ १ ॥ वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ॥ २ ॥ वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे घुटने, माथेसे माथा और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट करने लगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदारको पकडक़र इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोरसे जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोडक़र पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरेको रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़ देनेकी चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरोंमें दबाकर उठा लेता। हाथोंसे पकडक़र ऊपर ले जाता। गलेमें लिपट जानेपर ढकेल देता और आवश्यकता होनेपर हाथ-पाँव इकट्ठेकरके गाँठ बाँध देता ॥ ४-५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं॥ ६ ॥ यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं ॥ ७ ॥ बहिन ! देखो, इन पहलवानोंका एक-एक अङ्ग वज्रके समान कठोर है। ये देखनेमें बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परंतु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इनकी किशोरावस्था है। इनका एक- एक अङ्ग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे ? ॥ ८ ॥ जितने लोग यहाँ इकट्ठेहुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लङ्घनका पाप लगेगा। सखी ! अब हमें भी यहाँसे चल देना चाहिये। जहाँ अधर्मकी प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे; यही शास्त्रका नियम है ॥ ९ ॥ देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए, सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देनाये तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं ॥ १० ॥ देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रुके चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुखपर पसीनेकी बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशपर जलकी बूँदें ॥ ११ ॥ सखियो ! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजीका मुख मुष्टिकके प्रति क्रोधके कारण कुछ-कुछ लाल लोचनोंसे युक्त हो रहा है ! फिर भी हास्यका अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है ॥ १२ ॥ सखी ! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान्‌ शङ्कर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए आनन्दसे विचरते हैं ॥ १३ ॥ सखी ! पता नहीं, गोपियोंने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रोंके दोनोंसे नित्य-निरन्तर इनकी रूप- माधुरीका पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्यका सार ! संसारमें या उससे परे किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है, फिर बढक़र होनेकी तो बात ही क्या है ! सो भी किसीके सँवारने-सजानेसे नहीं, गहने-कपड़ेसे भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते- देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसीके आश्रित हैं। सखियो ! परंतु इसका दर्शन तो औरोंके लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियोंके ही भाग्यमें बदा है ॥ १४ ॥ सखी ! व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गद्गद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरोंको झाड़ते- बुहारतेकहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं ॥ १५ ॥ ये श्रीकृष्ण जब प्रात:काल गौओंको चरानेके लिये व्रजसे वनमें जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रजमें लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वरसे बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घरका सारा कामकाज छोडक़र झटपट रास्तेमें दौड़ आती हैं और श्रीकृष्णका मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवनसे युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं॥ १६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...