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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार
एवं
प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः ।
शत्रुं
हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ ॥ १७ ॥
सभयाः
स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ ।
पितरौ
अन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम् ॥ १८ ॥
तैस्तैर्नियुद्धविधिभिः
विविधैरच्युतेतरौ ।
युयुधाते
यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ ॥ १९ ॥
भगवद्गात्रनिष्पातैः
वज्रनीष्पेषनिष्ठुरैः ।
चाणूरो
भज्यमानाङ्गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह ॥ २० ॥
स
श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ ।
भगवन्तं
वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत ॥ २१ ॥
नाचलत्
तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः ।
बाह्वोर्निगृह्य
चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः ॥ २२ ॥
भूपृष्ठे
पोथयामास तरसा क्षीण जीवितम् ।
विस्रस्ताकल्पकेशस्रग्
इन्द्रध्वज इवापतत् ॥ २३ ॥
तथैव
मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै ।
बलभद्रेण
बलिना तलेनाभिहतो भृशम् ॥ २४ ॥
प्रवेपितः
स रुधिरं उद्वमन् मुखतोऽर्दितः ।
व्यसुः
पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्घ्रिपः ॥ २५ ॥
ततः
कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः ।
अवधीत्
लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना ॥ २६ ॥
तर्ह्येव
हि शलः कृष्ण प्रपदाहतशीर्षकः ।
द्विधा
विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः ॥ २७ ॥
चाणूरे
मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते ।
शेषाः
प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ २८ ॥
गोपान्
वयस्यान् आकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः ।
वाद्यमानेषु
तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ ॥ २९ ॥
जनाः
प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः ।
ऋते
कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति ॥ ३० ॥
हतेषु
मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट् ।
न्यवारयत्
स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३१ ॥
निःसारयत
दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात् ।
धनं
हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम् ॥ ३२ ॥
वसुदेवस्तु
दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः ।
उग्रसेनः
पिता चापि सानुगः परपक्षगः ॥ ३३ ॥
एवं
विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः ।
लघिम्नोत्पत्य
तरसा मञ्चमुत्तुङ्गमारुहत् ॥ ३४ ॥
तं
आविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात् ।
मनस्वी
सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी ॥ ३५ ॥
तं
खड्गपाणिं विचरन्तमाशु
श्येनं
यथा दक्षिणसव्यमम्बरे ।
समग्रहीद्
दुर्विषहोग्रतेजा
यथोरगं
तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य ॥ ३६ ॥
प्रगृह्य
केशेषु चलत्किरीतं
निपात्य
रङ्गोपरि तुङ्गमञ्चात् ।
तस्योपरिष्टात्
स्वत्स्वयमब्जनाभः
पपात
विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः ॥ ३७ ॥
तं
सम्परेतं विचकर्ष भूमौ
हरिर्यथेभं
जगतो विपश्यतः ।
हा
हेति शब्दः सुमहान् तदाभूद्
उदीरितः
सर्वजनैर्नरेन्द्र ॥ ३८ ॥
स
नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं
पिबन्
वदन् वा विचरन् स्वपन्श्वसन् ।
ददर्श
चक्रायुधमग्रतो यतः
तदेव
रूपं दुरवापमाप ॥ ३९ ॥
भरतवंशशिरोमणे
! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन शत्रुको मार डालनेका
निश्चय किया ॥ १७ ॥ स्त्रियोंकी ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन
रहे थे[*]। वे पुत्रस्नेहवश शोकसे विह्वल
हो गये। उनके हृदयमें बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी।
क्योंकि वे अपने पुत्रोंके बल-वीर्यको नहीं जानते थे ॥ १८ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और
उनसे भिडऩेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकारके दाँव- पेंचका प्रयोग करते हुए
परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक
भी भिड़े हुए थे ॥ १९ ॥ भगवान्के अङ्ग-प्रत्यङ्ग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी
रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके
शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा
हुई ॥ २० ॥ अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाजकी तरह झपटा और दोनों हाथोंके घूँसे
बाँधकर उसने भगवान् श्रीकृष्णकी छातीपर प्रहार किया ॥ २१ ॥ परंतु उसके प्रहारसे
भगवान् तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलोंके गजरेकी मारसे
गजराज। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई
बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित् ! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल
गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त- व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ
बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्रकी पूजाके लिये खड़े किये
गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ॥ २२-२३ ॥ इसी प्रकार मुष्टिकने भी पहले
बलरामजीको एक घूँसा मारा। इसपर बली बलरामजीने उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दिया ॥
२४ ॥ तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे उखड़े हुए वृक्षके समान अत्यन्त व्यथित
और अन्तमें प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ हे राजन् ! इसके
बाद योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान् बलरामजीने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवानको
खेल-खेलमें ही बायें हाथके घूँसेसे उपेक्षापूर्वक मार डाला ॥ २६ ॥ उसी समय भगवान्
श्रीकृष्णने पैरकी ठोकरसे शलका शिर धड़से अलग कर दिया और तोशलको तिनकेकी तरह चीरकर
दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये ॥ २७ ॥ जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ २८ ॥ उनके भाग
जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वालबालोंको खींच-खींचकर उनके
साथ भिडऩे और नाच-नाचकर भेरीध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकार को मिलाकर
मल्लक्रीडा—कुश्तीके खेल करने लगे ॥ २९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्भुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ।
श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य
है’,—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परंतु कंसको इससे
बड़ा दु:ख हुआ। वह और भी चिढ़ गया ॥ ३० ॥ जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और
बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने अपने बाजे-गाजे
बंद करा दिये और अपने सेवकोंको यह आज्ञा दी— ॥ ३१ ॥ ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लडक़ोंको नगरसे बाहर
निकाल दो। गोपोंका सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्दको कैद कर लो ॥ ३२ ॥ वसुदेव
भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होनेपर भी
अपने अनुयायियोंके साथ शत्रुओंसे मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोड़ो’
॥ ३३ ॥ कंस इस प्रकार बढ़-बढक़र बकवाद कर रहा था कि अविनाशी
श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मञ्चपर जा
चढ़े ॥ ३४ ॥ जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान् श्रीकृष्ण सामने आ
गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल
तथा तलवार उठा ली ॥ ३५ ॥ हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा
बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर।
परंतु भगवान् का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं,
वैसे ही भगवान् ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ॥ ३६ ॥ इसी समय कंसका
मुकुट गिर गया और भगवान् ने उसके केश पकडक़र उसे भी उस ऊँचे मञ्चसे रंगभूमिमें
गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उसके ऊपर
स्वयं कूद पड़े ॥ ३७ ॥ उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते
भगवान् श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र ! उस समय सबके मुँहसे ‘हाय ! हाय !’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ॥ ३८ ॥
कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह
खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस
लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान्
श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूप—वह
चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान् के उसी
रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है ॥ ३९ ॥
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स्त्रियाँ जहाँ बातें कर रही थीं, वहाँ से निकट ही वसुदेव-देवकी
कैद थे; अत: वे उनकी बातें सुन सके।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से