बुधवार, 19 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

अथ नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः

सङ्कर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः २०

पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्

पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि २१

स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्

शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे २२

यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्

ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् २३

एवं सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सव्रजमच्युतः

वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम् २४

इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः

पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ २५

अथ शूरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्

पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्द्विजसंस्कृतिम् २६

तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः

स्वलङ्कृतेभ्यः सम्पूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः २७

याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः

ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः २८

ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ

गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ २९

प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ

नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ३०

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! अब देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे॥ २० ॥ पिताजी ! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं ॥ २१ ॥ जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दु:ख होगा। यहाँके सुहृद्- सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया ॥ २४ ॥ भगवान्‌की बात सुनकर नन्दबाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया ॥ २५ ॥

 

हे राजन् ! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया ॥ २६ ॥ उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए थीं तथा और भी बहुत-से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं ॥ २७ ॥ महामति वसुदेवजीने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म- नक्षत्रमें जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं ॥ २८ ॥ इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमत: स्वीकार किया ॥ २९ ॥ श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वत:सिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




मंगलवार, 18 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीशुक उवाच

इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा

मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् १०

सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ

न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ११

एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः

मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् १२

आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि

ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने १३

मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः

बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः १४

सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्

यदुवृष्ण्यन्धकमधु दाशार्हकुकुरादिकान् १५

सभाजितान्समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्

न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः सन्तर्प्य विश्वकृत् १६

कृष्णसङ्कर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः

गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः १७

वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्

नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम् १८

तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः

पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया ॥ १० ॥ राजन् ! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णत: मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके ॥ ११ ॥

देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया ॥ १२ ॥ और उनसे कहा—‘महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा।) ॥ १३ ॥ जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो कहना ही क्या है ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता हैं। उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दाशाहर् और कुकुर आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़-ढूँढक़र बुलवाया। उन्हें घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान्‌ ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें खूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरोंमें बसा दिया ॥ १५-१६ ॥ अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे। उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं थी, दु:ख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलानेवाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्र रहते ॥ १८ ॥ मथुराके वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान्‌ के मुखारविन्दका अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश

 

श्रीशुक उवाच

पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः

मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् ॥१॥

उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः

प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्

नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि

बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित्

न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके

यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम्

सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः

न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा

यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च

वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि

मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्

गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः

तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः

मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः

तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः

अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है ॥ १ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर मेरी अम्मा ! मेरे पिताजी !इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे॥ २ ॥ पिताजी ! माताजी ! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोरावस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके ॥ ३ ॥ दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका ॥ ४ ॥ पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता ॥ ५ ॥ जो पुत्र सामथ्र्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं ॥ ६ ॥ जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करतावह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है ! ॥ ७ ॥ पिताजी ! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्रचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे ॥ ८ ॥ मेरी माँ और मेरे पिताजी ! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय ! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके॥ ९ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 17 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कंकन्यग्रोधकादयः ।

अभ्यधावन् अतिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः ॥ ४० ॥

तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तात् रोहिणीसुतः ।

अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः ॥ ४१ ॥

नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः ।

पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः ॥ ४२ ॥

तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः ।

तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः ॥ ४३ ॥

शयानान् न्वीरशय्यायां पतीन् आलिङ्‌ग्य शोचतीः ।

विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः ॥ ४४ ॥

हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल ।

त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः ॥ ४५ ॥

त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ ।

न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्‌गला ॥ ४६ ॥

अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम् ।

तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम् ॥ ४७ ॥

सर्वेषामिह भूतानां एष हि प्रभवाप्ययः ।

गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

राजयोषित आश्वास्य भगवान् लोकभावनः ।

यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत् ॥ ४९ ॥

मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात् ।

कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसा स्पृश्य पादयोः ॥ ५० ॥

देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ ।

कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्‌कितौ ॥ ५१ ॥

 

कंस के कङ्क और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोधसे आग-बबूले होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े ॥ ४० ॥ जब भगवान्‌ बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्धके लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है ॥ ४१ ॥ उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्‌ के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४२ ॥ महाराज ! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दु:खित हुर्ईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं ॥ ४३ ॥ वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं ॥ ४४ ॥ हा नाथ ! हे प्यारे ! हे धर्मज्ञ ! हे करुणामय ! हे अनाथवत्सल ! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी ॥ ४५ ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! इस पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मङ्गलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी ॥ ४६ ॥ स्वामी ! आपने निरपराध प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ॥ ४७ ॥ ये भगवान्‌ श्रीकृष्ण जगत्के समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोकरीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की ॥ ५० ॥ किन्तु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शङ्का हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें ॥ ५१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुर्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार

 

एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः ।

शत्रुं हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ ॥ १७ ॥

सभयाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ ।

पितरौ अन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम् ॥ १८ ॥

तैस्तैर्नियुद्धविधिभिः विविधैरच्युतेतरौ ।

युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ ॥ १९ ॥

भगवद्‍गात्रनिष्पातैः वज्रनीष्पेषनिष्ठुरैः ।

चाणूरो भज्यमानाङ्‌गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह ॥ २० ॥

स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ ।

भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत ॥ २१ ॥

नाचलत् तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः ।

बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः ॥ २२ ॥

भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीण जीवितम् ।

विस्रस्ताकल्पकेशस्रग् इन्द्रध्वज इवापतत् ॥ २३ ॥

तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै ।

बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम् ॥ २४ ॥

प्रवेपितः स रुधिरं उद्‌वमन् मुखतोऽर्दितः ।

व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्‌घ्रिपः ॥ २५ ॥

ततः कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः ।

अवधीत् लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना ॥ २६ ॥

तर्ह्येव हि शलः कृष्ण प्रपदाहतशीर्षकः ।

द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः ॥ २७ ॥

चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते ।

शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ २८ ॥

गोपान् वयस्यान् आकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः ।

वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ ॥ २९ ॥

जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः ।

ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति ॥ ३० ॥

हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट् ।

न्यवारयत् स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह ॥ ३१ ॥

निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात् ।

धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम् ॥ ३२ ॥

वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः ।

उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः ॥ ३३ ॥

एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः ।

लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्‌गमारुहत् ॥ ३४ ॥

तं आविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात् ।

मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी ॥ ३५ ॥

तं खड्गपाणिं विचरन्तमाशु

श्येनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे ।

समग्रहीद् दुर्विषहोग्रतेजा

यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य ॥ ३६ ॥

प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीतं

निपात्य रङ्‌गोपरि तुङ्‌गमञ्चात् ।

तस्योपरिष्टात् स्वत्स्वयमब्जनाभः

पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः ॥ ३७ ॥

तं सम्परेतं विचकर्ष भूमौ

हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः ।

हा हेति शब्दः सुमहान् तदाभूद्

उदीरितः सर्वजनैर्नरेन्द्र ॥ ३८ ॥

स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं

पिबन् वदन् वा विचरन् स्वपन्श्वसन् ।

ददर्श चक्रायुधमग्रतो यतः

तदेव रूपं दुरवापमाप ॥ ३९ ॥

 

भरतवंशशिरोमणे ! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने मन-ही-मन शत्रुको मार डालनेका निश्चय किया ॥ १७ ॥ स्त्रियोंकी ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे[*]।  वे पुत्रस्नेहवश शोकसे विह्वल हो गये। उनके हृदयमें बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रोंके बल-वीर्यको नहीं जानते थे ॥ १८ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनसे भिडऩेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकारके दाँव- पेंचका प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे ॥ १९ ॥ भगवान्‌के अङ्ग-प्रत्यङ्ग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई ॥ २० ॥ अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाजकी तरह झपटा और दोनों हाथोंके घूँसे बाँधकर उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी छातीपर प्रहार किया ॥ २१ ॥ परंतु उसके प्रहारसे भगवान्‌ तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलोंके गजरेकी मारसे गजराज। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित्‌ ! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त- व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्रकी पूजाके लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा ॥ २२-२३ ॥ इसी प्रकार मुष्टिकने भी पहले बलरामजीको एक घूँसा मारा। इसपर बली बलरामजीने उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दिया ॥ २४ ॥ तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे उखड़े हुए वृक्षके समान अत्यन्त व्यथित और अन्तमें प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ हे राजन् ! इसके बाद योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ बलरामजीने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवानको खेल-खेलमें ही बायें हाथके घूँसेसे उपेक्षापूर्वक मार डाला ॥ २६ ॥ उसी समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने पैरकी ठोकरसे शलका शिर धड़से अलग कर दिया और तोशलको तिनकेकी तरह चीरकर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये ॥ २७ ॥ जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशलये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए ॥ २८ ॥ उनके भाग जानेपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वालबालोंको खींच-खींचकर उनके साथ भिडऩे और नाच-नाचकर भेरीध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकार को मिलाकर मल्लक्रीडाकुश्तीके खेल करने लगे ॥ २९ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्भुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष धन्य है, धन्य है’,—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परंतु कंसको इससे बड़ा दु:ख हुआ। वह और भी चिढ़ गया ॥ ३० ॥ जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकोंको यह आज्ञा दी॥ ३१ ॥ अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लडक़ोंको नगरसे बाहर निकाल दो। गोपोंका सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्दको कैद कर लो ॥ ३२ ॥ वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होनेपर भी अपने अनुयायियोंके साथ शत्रुओंसे मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोड़ो॥ ३३ ॥ कंस इस प्रकार बढ़-बढक़र बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मञ्चपर जा चढ़े ॥ ३४ ॥ जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल तथा तलवार उठा ली ॥ ३५ ॥ हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परंतु भगवान्‌ का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्‌ ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया ॥ ३६ ॥ इसी समय कंसका मुकुट गिर गया और भगवान्‌ ने उसके केश पकडक़र उसे भी उस ऊँचे मञ्चसे रंगभूमिमें गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े ॥ ३७ ॥ उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान्‌ श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र ! उस समय सबके मुँहसे हाय ! हाय !की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ॥ ३८ ॥ कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेतेसब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूपवह चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया होउसे भगवान्‌ के उसी रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है ॥ ३९ ॥

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[*] स्त्रियाँ जहाँ बातें कर रही थीं, वहाँ से निकट ही वसुदेव-देवकी कैद थे; अत: वे उनकी बातें सुन सके।

 शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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