शनिवार, 22 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

गोप्युवाच

मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं सपत्न्याः

कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः

वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं

यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् १२

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा

सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्

परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा

ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः १३

किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं यदूनाम्

अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्

विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः

क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टाः १४

दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः

कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः

चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का

अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः १५

विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चाटुकारैर्

अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्

स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका

व्यसृजदकृतचेताः किं नु सन्धेयमस्मिन् १६

 

गोपीने कहारे मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरोंको मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्णकी जो वनमाला हमारी सौतोंके वक्ष:स्थलके स्पर्शसे मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुङ्कुम तेरी मूछोंपर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुमसे प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति श्रीकृष्ण मथुराकी मानिनी नायिकाओंको मनाया करें, उनका वह कुङ्कुमरूप कृपा-प्रसाद, जो युदवंशियोंकी सभामें उपहास करनेयोग्य है, अपने ही पास रखें। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ १२ ॥ जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पोंका रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बारहाँ, ऐसा ही लगता हैकेवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियोंको छोडक़र वे यहाँसे चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलोंकी सेवा कैसे करती रहती हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्णकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आ गयी होंगी। चितचोरने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ॥ १३ ॥ अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं । हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हमलोगोंके सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णका बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हमलोगोंको मनानेके लिये ही तो ? परंतु नहीं- नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिलकुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँसे चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्णकी मधुपुरवासिनी सखियोंके सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदयकी पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसीसे प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगी वस्तु देंगी ॥ १४ ॥ भौंरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौहोंके इशारेसे जो वशमें न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवेंऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान ! स्वर्गमें, पातालमें और पृथ्वीमें ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरजकी सेवा किया करती हैं ! फिर हम श्रीकृष्णके लिये किस गिनतीमें हैं ? परंतु तू उनके पास जाकर कहना कि तुम्हारा नाम तो उत्तमश्लोकहै, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्तिका गान करते हैं; परंतु इसकी सार्थकता तो इसीमें है कि तुम दीनोंपर दया करो। नहीं तो श्रीकृष्ण ! तुम्हारा उत्तमश्लोकनाम झूठा पड़ जाता है ॥ १५ ॥ अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत कोसन्देशवाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परंतु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेकी। देख, हमने श्रीकृष्णके लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परंतु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोडक़र चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उनपर विश्वास करना चाहिये ? ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

तं वीक्ष्य कृषानुचरं व्रजस्त्रियः

प्रलम्बबाहुं नवकञ्जलोचनम्

पीताम्बरं पुष्करमालिनं लसन्

मुखारविन्दं परिमृष्टकुण्डलम्

सुविस्मिताः कोऽयमपीव्यदर्शनः

कुतश्च कस्याच्युतवेषभूषणः

इति स्म सर्वाः परिवव्रुरुत्सुकास्

तमुत्तमःश्लोकपदाम्बुजाश्रयम्

तं प्रश्रयेणावनताः सुसत्कृतं

सव्रीडहासेक्षणसूनृतादिभिः

रहस्यपृच्छन्नुपविष्टमासने

विज्ञाय सन्देशहरं रमापतेः

जानीमस्त्वां यदुपतेः पार्षदं समुपागतम्

भर्त्रेह प्रेषितः पित्रोर्भवान्प्रियचिकीर्षया

अन्यथा गोव्रजे तस्य स्मरणीयं न चक्ष्महे

स्नेहानुबन्धो बन्धूनां मुनेरपि सुदुस्त्यजः

अन्येष्वर्थकृता मैत्री यावदर्थविडम्बनम्

पुम्भिः स्त्रीषु कृता यद्वत्सुमनःस्विव षट्पदैः

निःस्वं त्यजन्ति गणिका अकल्पं नृपतिं प्रजाः

अधीतविद्या आचार्यमृत्विजो दत्तदक्षिणम्

खगा वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चातिथयो गृहम्

दग्धं मृगास्तथारण्यं जारा भुक्त्वा रतां स्त्रियम्

इति गोप्यो हि गोविन्दे गतवाक्कायमानसाः

कृष्णदूते समायाते उद्धवे त्यक्तलौकिकाः

गायन्त्यः प्रीयकर्माणि रुदन्त्यश्च गतह्रियः

तस्य संस्मृत्य संस्मृत्य यानि कैशोरबाल्ययोः १०

काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती कृष्णसङ्गमम्

प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ११

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियोंने देखा कि श्रीकृष्णके सेवक उद्धवजीकी आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्णसे मिलती-जुलती है। घुटनोंतक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदलके समान कोमल नेत्र हैं, शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गलेमें कमलपुष्पोंकी माला है, कानोंमें मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है ॥ १ ॥ पवित्र मुसकानवाली गोपियोंने आपसमें कहा—‘यह पुरुष देखनेमें तो बहुत सुन्दर है। परंतु यह है कौन ? कहाँसे आया है ? किसका दूत है ? इसने श्रीकृष्ण-जैसी वेषभूषा क्यों धारण कर रखी है ?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उनमेंसे बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंके आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धवजीको चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं ॥ २ ॥ जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनयसे झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदिसे उद्धवजीका अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्तमें आसनपर बैठाकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगीं॥ ३ ॥ उद्धवजी ! हम जानती हैं कि आप यदुनाथके पार्षद हैं। उन्हींका संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामीने अपने माता-पिताको सुख देनेके लिये आपको यहाँ भेजा है ॥ ४ ॥ अन्यथा हमें तो अब इस नन्दगाँवमेंगौओंके रहनेकी जगहमें उनके स्मरण करनेयोग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियोंका स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाईसे छोड़ पाते हैं ॥ ५ ॥ दूसरोंके साथ जो प्रेम-सम्बन्धका स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थके लिये ही होता है। भौरोंका पुष्पोंसे और पुरुषोंका स्त्रियोंसे ऐसा ही स्वार्थका प्रेम-सम्बन्ध होता है ॥ ६ ॥ जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आनेवालेके पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जानेपर कितने शिष्य अपने आचार्योंकी सेवा करते हैं ? यज्ञकी दक्षिणा मिली कि ऋत्विज्लोग चलते बने ॥ ७ ॥ जब वृक्षपर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँसे बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेनेके बाद अतिथिलोग ही गृहस्थकी ओर कब देखते हैं ? वनमें आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्रीके हृदयमें कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेनेके बाद उलटकर भी तो नहीं देखता॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंके मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्णमें ही तल्लीन थे। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णके दूत बनकर उद्धवजी व्रजमें आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते यह भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान्‌ श्रीकृष्णने बचपनसे लेकर किशोर अवस्थातक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जाको भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ ९-१० ॥ एक गोपीको उस समय स्मरण हो रहा था भगवान्‌ श्रीकृष्णके मिलनकी लीलाका। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्णने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरेसे इस प्रकार कहने लगी॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

श्रीउद्धव उवाच

युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद

नारायणेऽखिलगुरौ यत्कृता मतिरीदृशी ३०

एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी

रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्

अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य

ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ ३१

यस्मिन्जनः प्राणवियोगकाले

क्षणं समावेश्य मनोऽविशुद्धम्

निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति

परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः ३२

तस्मिन्भवन्तावखिलात्महेतौ

नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ

भावं विधत्तां नितरां महात्मन्

किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम् ३३

आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः

प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान्सात्वतां पतिः ३४

हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्

यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत् ३५

मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके

अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि ३६

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः

नोत्तमो नाधमो वापि समानस्यासमोऽपि वा ३७

न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः

नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च ३८

न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु

क्रीडार्थं सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते ३९

सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्

क्रीडन्नतीतोऽपि गुणैः सृजत्यवन्हन्त्यजः ४०

यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते

चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः ४१

युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान्हरिः

सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः ४२

दृष्टं श्रुतं भूतभवद्भविष्यत्

स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च

विनाच्युताद्वस्तुतरां न वाच्यं

स एव सर्वं परमात्मभूतः ४३

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता

नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन्

गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्

वास्तून्समभ्यर्च्य दौधीन्यमन्थुन् ४४

ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू

रज्जूर्विकर्षद्भुजकङ्कणस्रजः

चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-

त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः ४५

उद्गायतीनामरविन्दलोचनं

व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद्ध्वनिः

दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो

निरस्यते येन दिशाममङ्गलम् ४६

भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः

दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन् ४७

अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः

येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः ४८

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रीतस्य निष्कृतिम्

ततः स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात्कृताह्निकः ४९

 

उद्धवजीने कहाहे मानद ! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेहपुत्रभाव है ॥ ३० ॥ बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं ॥ ३१ ॥ जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है ॥ ३२ ॥ वे भगवान्‌ ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है ॥ ३३ ॥ भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंकोअपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे ॥ ३४ ॥ जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और आपके पास आकर कहा कि मैं व्रजमें आऊँगा’, उस कथनको वे सत्य करेंगे ॥ ३५ ॥ नन्दबाबा और माता यशोदाजी ! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्रि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ३६ ॥ एक शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है ॥ ३७ ॥ न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही ॥ ३८ ॥ इस लोकमें उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियोंमें शरीर धारण करते हैं ॥ ३९ ॥ भगवान्‌ अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर भी लीलाके लिये खेल- खेलमें वे सत्त्व, रज और तमइन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ ४० ॥ जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेगसे चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परंतु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश उसे आत्माअपना मैंसमझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं ॥ ४२ ॥ बाबा ! जो कुछ देखा या सुना जाता हैवह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जङ्गम हो, महान् हो अथवा अल्प होऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान्‌ श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा ! श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तवमें सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं ॥ ४३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं ॥ ४४ ॥ गोपियोंकी कलाइयोंमें कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गलेके हार हिल रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल- हिलकर उनके कुङ्कुम-मण्डित कपोलोंकी लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणोंकी मणियाँ दीपककी ज्योतिसे और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभासे सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं ॥ ४५ ॥ उस समय गोपियाँकमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णके मङ्गलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह सङ्गीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमङ्गल मिटा देती है ॥ ४६ ॥

 

जब भगवान्‌ भुवनभास्करका उदय हुआ, तब व्रजाङ्गनाओंने देखा कि नन्दबाबाके दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक-दूसरेसे पूछने लगीं यह किसका रथ है ?’ ॥ ४७ ॥ किसी गोपीने कहा—‘कंसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है ? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दरको यहाँसे मथुरा ले गया था॥ ४८ ॥ किसी दूसरी गोपीने कहा—‘क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंसका पिण्डदान करेगा ? अब यहाँ उसके आनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपसमें बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्मसे निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुँचे ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छियालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

उद्धवजी की व्रजयात्रा

 

तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्

नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत् १४

भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्

गतश्रमं पर्यपृच्छत्पादसंवाहनादिभिः १५

कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः

आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद्व्रतः १६

दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना

साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा १७

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्

गोपान्व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम् १८

अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान्सकृदीक्षितुम्

तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् १९

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः

दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना २०

स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्

हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः २१

सरिच्छैलवनोद्देशान्मुकुन्दपदभूषितान्

आक्रीडानीक्ष्यमाणानां मनो याति तदात्मताम् २२

मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ

सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा २३

कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं यथा

अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः २४

तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्

बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद्गिरिम् २५

प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः

दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया २६

 

श्रीशुक उवाच

इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः

अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः २७

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च

शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत्स्नेहस्नुतपयोधरा २८

तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः

वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा २९

 

जब भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ गये हों ॥ १४ ॥ समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी ॥ १५ ॥ तब नन्दबाबाने उनसे पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी ! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न ? ॥ १६ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धाॢमक परम साधु यदुवंशियोंसे वह सदा द्वेष करता था ॥ १७ ॥ अच्छा उद्धवजी ! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते हैं ? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं ? ॥ १८ ॥ आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुह्ृद्-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख तो लेते ॥ १९ ॥ उद्धवजी ! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्युके निमित्तोंसेजिन्हें टालनेका कोई उपाय न थाएक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है ॥ २० ॥ उद्धवजी ! हम श्रीकृष्णके विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता ॥ २१ ॥ जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है ॥ २२ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान्‌ गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था ॥ २३ ॥ जैसे सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडक़ो मार डाला ॥ २४ ॥ उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक गिरिराजको उठाये रखा था ॥ २५ ॥ यहीं सबके देखते-देखते खेल- खेलमें उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी॥ २६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये ॥ २७ ॥ यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी ॥ २८ ॥ उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग हैयह देखकर आनन्दमग्र हो गये और उनसे कहने लगे ॥ २९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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