॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
उद्धव
तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
गोप्युवाच
मधुप
कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं सपत्न्याः
कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः
वहतु
मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं
यदुसदसि
विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥१२॥
सकृदधरसुधां
स्वां मोहिनीं पाययित्वा
सुमनस
इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्
परिचरति
कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा
ह्यपि
बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥१३॥
किमिह
बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं यदूनाम्
अधिपतिमगृहाणामग्रतो
नः पुराणम्
विजयसखसखीनां
गीयतां तत्प्रसङ्गः
क्षपितकुचरुजस्ते
कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥१४॥
दिवि
भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य
याः स्युः
चरणरज
उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का
अपि
च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥१५॥
विसृज
शिरसि पादं वेद्म्यहं चाटुकारैर्
अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य
दौत्यैर्मुकुन्दात्
स्वकृत
इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका
व्यसृजदकृतचेताः
किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥१६॥
गोपीने
कहा—रे मधुप ! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है।
तू हमारे पैरोंको मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं
कि श्रीकृष्णकी जो वनमाला हमारी सौतोंके वक्ष:स्थलके स्पर्शसे मसली हुई है,
उसका पीला-पीला कुङ्कुम तेरी मूछोंपर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो
किसी कुसुमसे प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है।
जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू ! मधुपति श्रीकृष्ण मथुराकी
मानिनी नायिकाओंको मनाया करें, उनका वह कुङ्कुमरूप
कृपा-प्रसाद, जो युदवंशियोंकी सभामें उपहास करनेयोग्य है,
अपने ही पास रखें। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजनेकी क्या आवश्यकता है ?
॥ १२ ॥ जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं।
तू भी पुष्पोंका रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले।
उन्होंने हमें केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही
लगता है—केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक
अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियोंको छोडक़र वे यहाँसे चले गये। पता
नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलोंकी सेवा कैसे करती रहती
हैं ! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्णकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आ गयी होंगी।
चितचोरने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ॥ १३ ॥ अरे भ्रमर ! हम वनवासिनी हैं । हमारे
तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हमलोगोंके सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णका बहुत-सा
गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हमलोगोंको मनानेके लिये
ही तो ? परंतु नहीं- नहीं, वे हमारे
लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये तो जाने-पहचाने, बिलकुल
पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँसे
चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्णकी
मधुपुरवासिनी सखियोंके सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदयकी पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी,
तेरी चापलूसीसे प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगी वस्तु देंगी ॥ १४ ॥
भौंरे ! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ?
उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौहोंके इशारेसे जो वशमें न हो जायँ,
उनके पास दौड़ी न आवें—ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ
हैं ? अरे अनजान ! स्वर्गमें, पातालमें
और पृथ्वीमें ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरजकी सेवा किया करती हैं ! फिर हम श्रीकृष्णके
लिये किस गिनतीमें हैं ? परंतु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है,
अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्तिका गान करते हैं; परंतु इसकी सार्थकता तो इसीमें है कि तुम दीनोंपर दया करो। नहीं तो
श्रीकृष्ण ! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम
झूठा पड़ जाता है ॥ १५ ॥ अरे मधुकर ! देख, तू मेरे पैर पर
सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना
करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि
रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को— सन्देशवाहक को कितनी
चाटुकारिता करनी चाहिये। परंतु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलनेकी। देख,
हमने श्रीकृष्णके लिये ही अपने पति, पुत्र और
दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परंतु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही
निकले कि हमें छोडक़र चलते बने ! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के
साथ हम क्या सन्धि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उनपर
विश्वास करना चाहिये ? ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से