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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
उद्धव
तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत
श्रीशुक
उवाच
ततस्ताः
कृष्णसन्देशैर्व्यपेतविरहज्वराः
उद्धवं
पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वात्मानमधोक्षजम् ॥५३॥
उवास
कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुदन्शुचः
कृष्णलीलाकथां
गायन्रमयामास गोकुलम् ५४
यावन्त्यहानि
नन्दस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः
व्रजौकसां
क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया ॥५५॥
सरिद्वनगिरिद्रो
णीर्वीक्षन्कुसुमितान्द्रु मान्
कृष्णं
संस्मारयन्रेमे हरिदासो व्रजौकसाम् ॥५६॥
दृष्ट्वैवमादि
गोपीनां कृष्णावेशात्मविक्लवम्
उद्धवः
परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ॥५७॥
एताः
परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो
गोविन्द
एव निखिलात्मनि रूढभावाः
वाञ्छन्ति
यद्भवभियो मुनयो वयं च
किं
ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ॥५८॥
क्वेमाः
स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः
कृष्णे
क्व चैष परमात्मनि रूढभावः
नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि
साक्षाच्
छ्रेयस्तनोत्यगदराज
इवोपयुक्तः ॥५९॥
नायं
श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः
स्वर्योषितां
नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः
रासोत्सवेऽस्य
भुजदण्डगृहीतकण्ठ
लब्धाशिषां
य उदगाद्व्रजवल्लभीनाम् ॥६०॥
आसामहो
चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने
किमपि गुल्मलतौषधीनाम्
या
दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं
श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥६१॥
या
वै श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामैर्
योगेश्वरैरपि
यदात्मनि रासगोष्ठ्याम्
कृष्णस्य
तद्भगवतः चरणारविन्दं
न्यस्तं
स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम् ॥६२॥
वन्दे
नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः
यासां
हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥६३॥
श्रीशुक
उवाच
अथ
गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नन्दमेव च
गोपानामन्त्र्य
दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम् ॥६४॥
तं
निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः
नन्दादयोऽनुरागेण
प्रावोचन्नश्रुलोचनाः ॥६५॥
मनसो
वृत्तयो नः स्युः कृष्ण पादाम्बुजाश्रयाः
वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां
कायस्तत्प्रह्वणादिषु ॥६६॥
कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां
यत्र क्वापीश्वरेच्छया
मङ्गलाचरितैर्दानै
रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ॥६७॥
एवं
सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नराधिप
उद्धवः
पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम् ॥६८॥
कृष्णाय
प्रणिपत्याह भक्त्युद्रे कं व्रजौकसाम्
वसुदेवाय
रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात् ॥६९॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—प्रिय परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के
विरह की व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान् श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के
रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धव जी का
सत्कार करने लगीं ॥५३ ॥ उद्धवजी गोपियोंकी विरह-व्यथा मिटानेके लिये कई महीनों तक
वहीं रहे। वे भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर
व्रजवासियोंको आनन्दित करते रहते ॥ ५४ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें जितने दिनोंतक उद्धवजी
रहे, उतने दिनोंतक भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाकी चर्चा होते
रहनेके कारण व्रजवासियोंको ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही
क्षण हुआ हो ॥ ५५ ॥ भगवान् के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदीतटपर जाते, कभी वनोंमें विहरते और कभी गिरिराजकी घाटियोंमें विचरते। कभी रंग-बिरंगे
फूलोंसे लदे हुए वृक्षोंमें ही रम जाते और यहाँ भगवान् श्रीकृष्णने कौन-सी लीला
की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियोंको भगवान् श्रीकृष्ण और
उनकी लीलाके स्मरणमें तन्मय कर देते ॥ ५६ ॥
उद्धवजीने
व्रजमें रहकर गोपियोंकी इस प्रकारकी प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम-
चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्णमें तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्दसे
भर गये। अब वे गोपियोंको नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे— ॥ ५७ ॥ ‘इस पृथ्वीपर केवल इन गोपियोंका ही शरीर धारण
करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान्
श्रीकृष्णके परम प्रेममय दिव्य महाभावमें स्थित हो गयी हैं। प्रेमकी यह
ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसारके भयसे भीत मुमुक्षुजनोंके लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों—मुक्त पुरुषों तथा हम
भक्तजनोंके लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है,
जिन्हें भगवान् श्रीकृष्णकी लीला- कथा के रस का चसका लग गया है,
उन्हें कुलीनता की, द्विजातिसमुचित संस्कारकी
और बड़े-बड़े यज्ञ-यागोंमें दीक्षित होनेकी क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान् की कथाका रस नहीं मिला, उसमें रुचि
नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पोंतक बार-बार ब्रह्मा होनेसे ही
क्या लाभ? ॥ ५८ ॥ कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान
और जातिसे हीन गाँवकी गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीकृष्णमें
यह अनन्य परम प्रेम ! अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध
होता है कि यदि कोई भगवान्के स्वरूप और रहस्यको न जानकर भी उनसे प्रेम करे,
उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्तिसे अपनी
कृपासे उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजानमें भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्तिसे ही पीनेवालेको
अमर बना देता है ॥ ५९ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने रासोत्सवके समय इन व्रजाङ्गनाओंके
गलेमें बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान्ने जिस कृपा-प्रसादका
वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान्की परमप्रेमवती नित्यसङ्गिनी वक्ष:स्थलपर विराजमान
लक्ष्मीजीको भी नहीं प्राप्त हुआ। कमलकी-सी सुगन्ध और कान्तिसे युक्त
देवाङ्गनाओंको भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या करें ? ॥ ६० ॥ मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाममें
कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि—जड़ी-बूटी ही
बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन
व्रजाङ्गनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करनेके लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण- रजमें
स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ। देखो तो सही, जिनको छोडऩा अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों
तथा लोक-वेदकी आर्य-मर्यादाका परित्याग करके इन्होंने भगवान्की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया
है—औरोंकी तो बात ही क्या—भगवद्वाणी,
उनकी नि:श्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें
भी अबतक भगवान्के परम प्रेममय स्वरूपको ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ॥ ६१ ॥ स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती
हैं; ब्रह्मा, शङ्कर आदि परम समर्थ
देवता, पूर्णकाम, आत्माराम और
बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयमें जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्णके उन्हीं चरणारविन्दोंको रास-लीलाके समय गोपियोंने अपने
वक्ष:स्थलपर रखा और उनका आलिङ्गन करके अपने हृदयकी जलन, विरह-व्यथा
शान्त की ॥ ६२ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें रहनेवाली गोपाङ्गनाओंकी चरणधूलिको मैं बारंबार
प्रणाम करता हूँ—उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा ! इन गोपियोंने
भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाकथाके सम्बन्धमें जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकोंको पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’
॥ ६३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार कई महीनोंतक व्रजमें रहकर उद्धवजीने अब मथुरा
जानेके लिये गोपियोंसे, नन्दबाबा और यशोदा मैयासे आज्ञा
प्राप्त की। ग्वालबालोंसे विदा लेकर वहाँसे यात्रा करनेके लिये वे रथपर सवार हुए ॥
६४ ॥ जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण
बहुत-सी भेंटकी सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखोंमें आँसू भरकर उन्होंने बड़े
प्रेमसे कहा— ॥ ६५ ॥ ‘उद्धवजी ! अब हम
यही चाहते हैं कि हमारे मनकी एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प
श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ही आश्रित रहे। उन्हींकी सेवाके लिये उठे और उन्हींमें लगी
भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हींके नामोंका उच्चारण करती रहे और शरीर
उन्हींको प्रणाम करने, उन्हींकी आज्ञा-पालन और सेवामें लगा
रहे ॥ ६६ ॥ उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्षकी इच्छा
बिलकुल नहीं है। हम भगवान्की इच्छासे अपने कर्मोंके अनुसार चाहे जिस योनिमें जन्म
लें—वहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और
उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति उत्तरोत्तर
बढ़ती रहे’ ॥ ६७ ॥ प्रिय परीक्षित् ! नन्दबाबा आदि गोपोंने
इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्तिके द्वारा उद्धवजीका सम्मान किया। अब वे भगवान्
श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित मथुरापुरीमें लौट आये ॥ ६८ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने
भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियोंकी प्रेममयी भक्तिका उद्रेक,
जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद
नन्दबाबाने भेंटकी जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी,
बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ॥ ६९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से