सोमवार, 24 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

ततस्ताः कृष्णसन्देशैर्व्यपेतविरहज्वराः

उद्धवं पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वात्मानमधोक्षजम् ५३

उवास कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुदन्शुचः

कृष्णलीलाकथां गायन्रमयामास गोकुलम् ५४

यावन्त्यहानि नन्दस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः

व्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया ५५

सरिद्वनगिरिद्रो णीर्वीक्षन्कुसुमितान्द्रु मान्

कृष्णं संस्मारयन्रेमे हरिदासो व्रजौकसाम् ५६

दृष्ट्वैवमादि गोपीनां कृष्णावेशात्मविक्लवम्

उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ५७

एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो

गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावाः

वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च

किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ५८

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः

कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः

नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षाच्

छ्रेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्तः ५९

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः

स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः

रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ

लब्धाशिषां य उदगाद्व्रजवल्लभीनाम् ६०

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां

वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्

या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा

भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ६१

या वै श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामैर्

योगेश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ठ्याम्

कृष्णस्य तद्भगवतः चरणारविन्दं

न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम् ६२

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः

यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ६३

 

श्रीशुक उवाच

अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नन्दमेव च

गोपानामन्त्र्य दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम् ६४

तं निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः

नन्दादयोऽनुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः ६५

मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्ण पादाम्बुजाश्रयाः

वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु ६६

कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया

मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ६७

एवं सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नराधिप

उद्धवः पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम् ६८

कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रे कं व्रजौकसाम्

वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात् ६९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह की व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान्‌ श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धव जी का सत्कार करने लगीं ॥५३ ॥ उद्धवजी गोपियोंकी विरह-व्यथा मिटानेके लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रजवासियोंको आनन्दित करते रहते ॥ ५४ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें जितने दिनोंतक उद्धवजी रहे, उतने दिनोंतक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकी चर्चा होते रहनेके कारण व्रजवासियोंको ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ॥ ५५ ॥ भगवान्‌ के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदीतटपर जाते, कभी वनोंमें विहरते और कभी गिरिराजकी घाटियोंमें विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलोंसे लदे हुए वृक्षोंमें ही रम जाते और यहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनकी लीलाके स्मरणमें तन्मय कर देते ॥ ५६ ॥

 

उद्धवजीने व्रजमें रहकर गोपियोंकी इस प्रकारकी प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम- चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्णमें तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्दसे भर गये। अब वे गोपियोंको नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे॥ ५७ ॥ इस पृथ्वीपर केवल इन गोपियोंका ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम प्रेममय दिव्य महाभावमें स्थित हो गयी हैं। प्रेमकी यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसारके भयसे भीत मुमुक्षुजनोंके लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियोंमुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनोंके लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला- कथा के रस का चसका लग गया है, उन्हें कुलीनता की, द्विजातिसमुचित संस्कारकी और बड़े-बड़े यज्ञ-यागोंमें दीक्षित होनेकी क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान्‌ की कथाका रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पोंतक बार-बार ब्रह्मा होनेसे ही क्या लाभ? ॥ ५८ ॥ कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जातिसे हीन गाँवकी गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ श्रीकृष्णमें यह अनन्य परम प्रेम ! अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध होता है कि यदि कोई भगवान्‌के स्वरूप और रहस्यको न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्तिसे अपनी कृपासे उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजानमें भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्तिसे ही पीनेवालेको अमर बना देता है ॥ ५९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रासोत्सवके समय इन व्रजाङ्गनाओंके गलेमें बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान्‌ने जिस कृपा-प्रसादका वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान्‌की परमप्रेमवती नित्यसङ्गिनी वक्ष:स्थलपर विराजमान लक्ष्मीजीको भी नहीं प्राप्त हुआ। कमलकी-सी सुगन्ध और कान्तिसे युक्त देवाङ्गनाओंको भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या करें ? ॥ ६० ॥ मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाममें कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधिजड़ी-बूटी ही बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजाङ्गनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करनेके लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण- रजमें स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ। देखो तो सही, जिनको छोडऩा अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेदकी आर्य-मर्यादाका परित्याग करके इन्होंने भगवान्‌की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया हैऔरोंकी तो बात ही क्याभगवद्वाणी, उनकी नि:श्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान्‌के परम प्रेममय स्वरूपको ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ॥ ६१ ॥ स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शङ्कर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम, आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयमें जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान्‌ श्रीकृष्णके उन्हीं चरणारविन्दोंको रास-लीलाके समय गोपियोंने अपने वक्ष:स्थलपर रखा और उनका आलिङ्गन करके अपने हृदयकी जलन, विरह-व्यथा शान्त की ॥ ६२ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें रहनेवाली गोपाङ्गनाओंकी चरणधूलिको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँउसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा ! इन गोपियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकथाके सम्बन्धमें जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकोंको पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा॥ ६३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कई महीनोंतक व्रजमें रहकर उद्धवजीने अब मथुरा जानेके लिये गोपियोंसे, नन्दबाबा और यशोदा मैयासे आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालोंसे विदा लेकर वहाँसे यात्रा करनेके लिये वे रथपर सवार हुए ॥ ६४ ॥ जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखोंमें आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेमसे कहा॥ ६५ ॥ उद्धवजी ! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मनकी एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ही आश्रित रहे। उन्हींकी सेवाके लिये उठे और उन्हींमें लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हींके नामोंका उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हींको प्रणाम करने, उन्हींकी आज्ञा-पालन और सेवामें लगा रहे ॥ ६६ ॥ उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्षकी इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान्‌की इच्छासे अपने कर्मोंके अनुसार चाहे जिस योनिमें जन्म लेंवहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे॥ ६७ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! नन्दबाबा आदि गोपोंने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्तिके द्वारा उद्धवजीका सम्मान किया। अब वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित मथुरापुरीमें लौट आये ॥ ६८ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियोंकी प्रेममयी भक्तिका उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबाने भेंटकी जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ॥ ६९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

एवं प्रियतमादिष्टमाकर्ण्य व्रजयोषितः

ता ऊचुरुद्धवं प्रीतास्तत्सन्देशागतस्मृतीः ३८

 

गोप्य ऊचुः

दिष्ट्याहितो हतः कंसो यदूनां सानुगोऽघकृत्

दिष्ट्याप्तैर्लब्धसर्वार्थैः कुशल्यास्तेऽच्युतोऽधुना ३९

कच्चिद्गदाग्रजः सौम्य करोति पुरयोषिताम्

प्रीतिं नः स्निग्धसव्रीड हासोदारेक्षणार्चितः ४०

कथं रतिविशेषज्ञः प्रियश्च पुरयोषिताम्

नानुबध्येत तद्वाक्यैर्विभ्रमैश्चानुभाजितः ४१

अपि स्मरति नः साधो गोविन्दः प्रस्तुते क्वचित्

गोष्ठिमध्ये पुरस्त्रीणाम्ग्राम्याः स्वैरकथान्तरे ४२

ताः किं निशाः स्मरति यासु तदा प्रियाभिर्

वृन्दावने कुमुदकुन्दशशाङ्करम्ये

रेमे क्वणच्चरणनूपुररासगोष्ठ्याम्

अस्माभिरीडितमनोज्ञकथः कदाचित् ४३

अप्येष्यतीह दाशार्हस्तप्ताः स्वकृतया शुचा

सञ्जीवयन्नु नो गात्रैर्यथेन्द्रो वनमम्बुदैः ४४

कस्मात्कृष्ण इहायाति प्राप्तराज्यो हताहितः

नरेन्द्र कन्या उद्वाह्य प्रीतः सर्वसुहृद्वृतः ४५

किमस्माभिर्वनौकोभिरन्याभिर्वा महात्मनः

श्रीपतेराप्तकामस्य क्रियेतार्थः कृतात्मनः ४६

परं सौख्यं हि नैराश्यं स्वैरिण्यप्याह पिङ्गला

तज्जानतीनां नः कृष्णे तथाप्याशा दुरत्यया ४७

क उत्सहेत सन्त्यक्तुमुत्तमःश्लोकसंविदम्

अनिच्छतोऽपि यस्य श्रीरङ्गान्न च्यवते क्वचित् ४८

सरिच्छैलवनोद्देशा गावो वेणुरवा इमे

सङ्कर्षणसहायेन कृष्णेनाचरिताः प्रभो ४९

पुनः पुनः स्मारयन्ति नन्दगोपसुतं बत

श्रीनिकेतैस्तत्पदकैर्विस्मर्तुं नैव शक्नुमः ५०

गत्या ललितयोदार हासलीलावलोकनैः

माध्व्या गिरा हृतधियः कथं तं विस्मराम हे ५१

हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन

मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात् ५२

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने प्रियतम श्रीकृष्णका यह संदेशा सुनकर गोपियोंको बड़ा आनन्द हुआ उनके संदेशसे उन्हें श्रीकृष्णके स्वरूप और एक-एक लीलाकी याद आने लगी। प्रेमसे भरकर उन्होंने उद्धवजीसे कहा ॥ ३८ ॥

 गोपियोंने कहाउद्धवजी ! यह बड़े सौभाग्यकी और आनन्दकी बात है कि यदुवंशियोंको सतानेवाला पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि श्रीकृष्णके बन्धु-बान्धव और गुरुजनोंके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं ॥ ३९ ॥ किन्तु उद्धवजी ! एक बात आप हमें बतलाइये। जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुसकान और उन्मुक्त चितवनसे उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुराकी स्त्रियोंसे भी वे प्रेम करते हैं या नहीं?’ ॥ ४० ॥ तबतक दूसरी गोपी बोल उठी—‘अरी सखी ! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेमकी मोहिनी कलाके विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगरकी स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भावसे उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे ?’ ॥ ४१ ॥ दूसरी गोपियाँ बोलीं—‘साधो ! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियोंकी मण्डलीमें कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वच्छन्दरूपसे, बिना किसी संकोचके जब प्रेमकी बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनोंकी भी याद करते हैं ?’ ॥ ४२ ॥ कुछ गोपियोंने कहा—‘उद्धवजी ! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियोंका स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्दके पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था ! उन रात्रियोंमें ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हमलोगोंके साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रास-लीला ! उस समय हमलोगोंके पैरोंके नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हींकी सुन्दर-सुन्दर लीलाओंका गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकारके विहार कर रहे थे॥ ४३ ॥ कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं—‘उद्धवजी ! हम सब तो उन्हींके विरहकी आगसे जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे-जल बरसाकर वनको हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदिसे हमें जीवनदान देनेके लिये यहाँ आवेंगे ?’ ॥ ४४ ॥ तबतक एक गोपीने कहा—‘अरी सखी ! अब तो उन्होंने शत्रुओंको मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद् बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियोंकी कुमारियोंसे विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे; यहाँ हम गँवारिनोंके पास क्यों आयेंगे ?’ ॥ ४५ ॥ दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी ! महात्मा श्रीकृष्ण तो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियोंसे उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हमलोगोंके बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है ॥ ४६ ॥ देखो वेश्या होनेपर भी पिङ्गलाने क्या ही ठीक कहा हैसंसारमें किसीकी आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान्‌ श्रीकृष्णके लौटनेकी आशा छोडऩेमें असमर्थ हैं। उनके शुभागमनकी आशा ही तो हमारा जीवन है ॥ ४७ ॥ हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने, जिनकी कीर्तिका गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्तमें जो मीठी-मीठी प्रेमकी बातें की हैं उन्हें छोडऩेका, भुलानेका उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं ? देखो तो, उनकी इच्छा न होनेपर भी स्वयं लक्ष्मीजी उनके चरणोंसे लिपटी रहती हैं, एक क्षणके लिये भी उनका अङ्ग- सङ्ग छोडक़र कहीं नहीं जातीं ॥ ४८ ॥ उद्धवजी ! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखरपर चढक़र वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिनमें वे रात्रिके समय रासलीला करते थे और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चरानेके लिये वे सुबह-शाम हमलोगोंको देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशीकी तान हमारे कानोंमें गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरोंके संयोगसे छेड़ा करते थे। बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने इन सभीका सेवन किया है ॥ ४९ ॥ यहाँका एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलोंसे चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैंदिनभर यही तो करती रहती हैंतब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दनको हमारे नेत्रोंके सामने लाकर रख देते हैं। उद्धवजी ! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं ॥ ५० ॥ उनकी वह हंसकी-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी ! आह ! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वशमें नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह ? ॥ ५१ ॥ हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम्हीं हमारे जीवनके स्वामी हो। सर्वस्व हो, प्यारे, तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियोंके एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर ! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द ! तुम गौओंसे बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैंदु:खके अपार सागरमें डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो ॥ ५२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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रविवार, 23 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

अथोद्धवो निशम्यैवं कृष्णदर्शनलालसाः

सान्त्वयन्प्रियसन्देशैर्गोपीरिदमभाषत २२

 

श्रीउद्धव उवाच

अहो यूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः

वासुदेवे भगवति यासामित्यर्पितं मनः २३

दानव्रततपोहोम जपस्वाध्यायसंयमैः

श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्णे भक्तिर्हि साध्यते २४

भगवत्युत्तमःश्लोके भवतीभिरनुत्तमा

भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा २५

दिष्ट्या पुत्रान्पतीन्देहान्स्वजनान्भवनानि च

हित्वावृणीत यूयं यत्कृष्णाख्यं पुरुषं परम् २६

सर्वात्मभावोऽधिकृतो भवतीनामधोक्षजे

विरहेण महाभागा महान्मेऽनुग्रहः कृतः २७

श्रूयतां प्रियसन्देशो भवतीनां सुखावहः

यमादायागतो भद्रा अहं भर्तू रहस्करः २८

 

श्रीभगवानुवाच

भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित्

यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही

तथाहं च मनःप्राण भूतेन्द्रियगुणाश्रयः २९

आत्मन्येवात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये

आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ३०

आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः

सुषुप्तिस्वप्नजाग्रद्भिर्मायावृत्तिभिरीयते ३१

येनेन्द्रियार्थान्ध्यायेत मृषा स्वप्नवदुत्थितः

तन्निरुन्ध्यादिन्द्रियाणि विनिद्रः प्रत्यपद्यत ३२

एतदन्तः समाम्नायो योगः साङ्ख्यं मनीषिणाम्

त्यागस्तपो दमः सत्यं समुद्रान्ता इवापगाः ३३

यत्त्वहं भवतीनां वै दूरे वर्ते प्रियो दृशाम्

मनसः सन्निकर्षार्थं मदनुध्यानकाम्यया ३४

यथा दूरचरे प्रेष्ठे मन आविश्य वर्तते

स्त्रीणां च न तथा चेतः सन्निकृष्टेऽक्षिगोचरे ३५

मय्यावेश्य मनः कृत्स्नं विमुक्ताशेषवृत्ति यत्

अनुस्मरन्त्यो मां नित्यमचिरान्मामुपैष्यथ ३६

या मया क्रीडता रात्र्यां वनेऽस्मिन्व्रज आस्थिताः

अलब्धरासाः कल्याण्यो मापुर्मद्वीर्यचिन्तया ३७

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गोपियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुकलालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥

 

उद्धवजीने कहाअहो गोपियो ! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियो ! तुम सारे संसारके लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगोंने इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ॥ २३ ॥ दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याणके अन्य विविध साधनोंके द्वारा भगवान्‌की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है ॥ २४ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमलोगोंने पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसीका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि- मुनियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २५ ॥ सचमुच यह कितने सौभाग्यकी बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरोंको छोडक़र पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णको, जो सबके परम पति हैं, पतिके रूपमें वरण किया है ॥ २६ ॥ महाभाग्यवती गोपियो ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वियोगसे तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्माके प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओंके रूपमें उनका दर्शन कराता है। तुमलोगोंका वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियोंकी बड़ी ही दया है ॥ २७ ॥ मैं अपने स्वामीका गुप्त काम करनेवाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णने तुमलोगोंको परम सुख देनेके लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियो! वही लेकर मैं तुमलोगोंके पास आया हूँ, अब उसे सुनो ॥ २८ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा हैमैं सबका उपादान कारण होनेसे सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसारके सभी भौतिक पदार्थोंमें आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पाँचों भूत व्याप्त हैं, इन्हींसे सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओंके रूपमें हैं ? वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्चभूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंका आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूपमें प्रकट हो रहा हूँ ॥ २९ ॥ मैं ही अपनी मायाके द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेट लेता हूँ ॥ ३० ॥ आत्मा माया और मायाके कार्योंसे पृथक् है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवान्तर भेदोंसे रहित सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। मायाकी तीन वृत्तियाँ हैंसुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत्। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूपसे प्रतीत होता है ॥ ३१ ॥ मनुष्यको चाहिये कि वह समझे कि स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान ही जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियोंके विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसीलिये उन विषयोंका चिन्तन करनेवाले मन और इन्द्रियोंको रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत्के स्वाप्निक विषयोंको त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्रमें ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषोंका वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्तिमें ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मनको निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं ॥ ३३ ॥

 

गोपियो ! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनोंका ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीरसे दूर रहनेपर भी मनसे तुम मेरी सन्निधिका अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो ॥ ३४ ॥ क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियोंका चित्त अपने परदेशी प्रियतममें जितना निश्चल भावसे लगा रहता है, उतना आँखोंके सामने, पास रहनेवाले प्रियतममें नहीं लगता ॥ ३५ ॥ अशेष वृत्तियोंसे रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुमलोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदाके लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी ॥ ३६ ॥ कल्याणियो ! जिस समय मैंने वृन्दावनमें शारदीय पूर्णिमाकी रात्रिमें रास-क्रीडा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनोंके रोक लेनेसे व्रजमें ही रह गयींमेरे साथ रास-विहारमें सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओंका स्मरण करनेसे ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य,निराश होनेकी कोई बात नहीं है ) ॥ ३७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा

स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्

बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस्

तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः १७

यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्

सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः

सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना

बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति १८

वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः

कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः

ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र

स्मररुज उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता १९

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं

वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग

नयसि कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं

सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते २०

अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते

स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्

क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां गृणीते

भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु २१

 

ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयतासे मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परंतु उन्होंने अपनी स्त्रीके वश होकर उस बेचारीके नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मणके घर वामनके रूपमें जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलिने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाशसे बाँधकर पातालमें डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देनेवालेको अपने अन्य साथियोंके साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्णसे क्या, किसी भी काली वस्तुके साथ मित्रतासे कोई प्रयोजन नहीं है। परंतु यदि तू यह कहे कि जब ऐसा है तब तुमलोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?’ तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चसका लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशामें हम चाहनेपर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णकी लीलारूप कर्णामृतके एक कणका भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दु:ख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं। यहाँतक कि बहुत-से लोग तो अपनी दु:खमयदु:खसे सनी हुई घर-गृहस्थी छोडक़र अकिञ्चन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह- परिग्रह नहीं रखते और पक्षियोंकी तरह चुन-चुनकरभीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन- दुनियासे जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्णकी लीलाकथा छोड़ नहीं पाते। वास्तवमें उसका रस, उसका चसका ऐसा ही है। यही दशा हमारी हो रही है ॥ १८ ॥ जैसे कृष्णसार मृगकी पत्नी भोली- भाली हरिनियाँ व्याधके सुमधुर गानका वश्विास कर लेती हैं और उसके जालमें फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्णकी कपटभरी मीठी-मीठी बातोंमें आकर उन्हें सत्यके समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्शसे होनेवाली कामव्याधिका बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्णके दूत भौंरे ! अब इस विषयमें तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ॥ १९ ॥ हमारे प्रियतमके प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतमने मनानेके लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकारसे हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परंतु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथउनके वक्ष:स्थलपर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मीजी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ॥ २० ॥ अच्छा, हमारे प्रियतमके प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान्‌ श्रीकृष्ण गुरुकुलसे लौटकर मधुपुरीमें अब सुखसे तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँके घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालोंकी भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियोंकी भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगरके समान दिव्य सुगन्धसे युक्त भुजा हमारे सिरोंपर रखेंगे ? क्या हमारे जीवनमें कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ? ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...