बुधवार, 2 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

रुक्मिणीहरण

 

श्रीशुक उवाच

वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः

प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् १

 

श्रीभगवानुवाच

तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि

वेदाहम्रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः २

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे

मत्परामनवद्याङ्गी मेधसोऽग्निशिखामिव ३

 

श्रीशुक उवाच

उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः

रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम् ४

स चाश्वैः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकैः

युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः ५

आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः

आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः ६

राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशानुगः

शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत् ७

पुरं सम्मृष्टसंसिक्त मार्गरथ्याचतुष्पथम्

चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम् ८

स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः

जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद् गृहैरगुरुधूपितैः ९

पितॄन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप

भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम् १०

सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्

आहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः ११

चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः

पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये १२

हिरण्यरूप्य वासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्

प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः १३

एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै

कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम् १४

मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः

पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ १५

तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च

निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने १६

तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः

आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः १७

कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्

यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः १८

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः

आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड लिया और हँसते हुए यों बोले ।। १ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाब्राह्मणदेवता ! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समय नींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।। २ ।। परंतु ब्राह्मणदेवता ! आप देखियेगा, जैसे लकडिय़ोंको मथकरएक-दूसरेसे रगडक़र मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्धमें उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलङ्कोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा ।। ३ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ।। ४ ।। दारुक भगवान्‌ के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोडक़र भगवान्‌के सामने खड़ा हो गया ।। ५ ।। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्तदेशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे ।। ६ ।। कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लडक़े रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे ।। ७ ।। नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिडक़ाव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरन बाँध दिये गये थे ।। ८ ।। वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प, माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी ।। ९ ।। परीक्षित्‌ ! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।। १० ।। सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मङ्गलसूत्र कङ्कण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं ।। ११ ।। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रहशान्तिके लिये हवन किया ।। १२ ।। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्रह्मणोंको दीं ।। १३ ।।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मङ्गलकृत्य कराये ।। १४ ।। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे ।। १५ ।। विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।। १६ ।। उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ंड्रक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।। १७ ।। वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपनेअपने मनमें यह पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।। १८-१९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




मंगलवार, 1 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

श्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर शृण्वतां ते

निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम्

रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं

त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ३७

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप

विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्

धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या

काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ३८

तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायाम्

आत्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि

मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्

गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ३९

पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र

गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान्परेशः

आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं

गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये ४०

श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्

गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः

निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्र बलं प्रसह्य

मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ४१

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धून्

त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्

पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवयात्रा

यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात् ४२

यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजःस्नपनं महान्तो

वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै

यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं

जह्यामसून्व्रतकृशान्शतजन्मभिः स्यात् ४३

 

ब्राह्मण उवाच

इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मया हृताः

विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ४४

 

रुक्मिणीजीने कहा हैत्रिभुवनसुन्दर ! आपके गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश करके एक-एक अङ्गके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्षचारों पुरुषार्थोंके फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोडक़र आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।। ३७ ।। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धामसभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य-लोकमें जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइयेऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी ? ।। ३८ ।। इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये। कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप-सरीखे वीरको समॢपत हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब, जैसे ङ्क्षसहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।। ३९ ।। मैंने यदि जन्म-जन्ममें पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना) दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान्‌ परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर मेरा पणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।। ४० ।। प्रभो ! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओंको मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।। ४१ ।। यदि आप यह सोचते हों कि तुम तो अन्त:पुरमेंभीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता हैजिसमें विवाही जानेवाली कन्याको, दुलहिन को नग रके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना पड़ता है ।। ४२ ।। कमलनयन ! उमापति भगवान्‌ शङ्करके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाह ते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।। ४३ ।।

ब्राह्मणदेवताने कहायदुवंशशिरोमणे ! यही रुक्मिणीके अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्धमें जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।। ४४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

रुक्मिण्युद्वाहप्रस्तावे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्

तस्य पञ्चाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना २१

रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः

रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती २२

सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः

गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् २३

तां बुद्धिलक्षणौदार्य रूपशीलगुणाश्रयाम्

कृष्णश्च सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे २४

बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप

ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत २५

तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम्

विचिन्त्याप्तं द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् २६

द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः

अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने २७

दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्

उपवेश्यार्हयां चक्रे यथात्मानं दिवौकसः २८

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः

पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत २९

कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः

वर्तते नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ३०

सन्तुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्

अहीयमानः स्वद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ३१

असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः

अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ३२

विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्

निरहङ्कारिणः शान्तान्नमस्ये शिरसा सकृत् ३३

कच्चिद्वः कुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः

सुखं वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ३४

यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया

सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ३५

एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना

लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत् ३६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! महाराज भीष्मक विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।। २१ ।। सबसे बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थेजिनके नाम थे क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।। २२ ।। जब उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णके सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी प्रशंसा सुनीजो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्राय: गाया ही करते थेतब उसने यही निश्चय किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।। २३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी समझते थे कि रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अत: भगवान्‌ ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ।। २४ ।। रुक्मिणीजीके भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकृष्णसे ही हो। परंतु रुक्मी श्रीकृष्णसे बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे रोक दयिा और शिशुपालको ही अपनी बहिनके योग्य वर समझा ।। २५ ।।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास भेजा ।। २६ ।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवताने देखा कि आदिपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ।। २७ ।। ब्राह्मणोंके परमभक्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग उनकी (भगवान्‌की) किया करते हैं ।। २८ ।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्रके अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतोंके परम आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे।। २९ ।। ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करनेमें कोई कठिनाई तो नहीं होती ।। ३० ।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।। ३१ ।। यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह- परिग्रह नहीं है, और जो उसी अवस्थामें सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर सुखकी नींद सोता है ।। ३२ ।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैंउन ब्राह्मणोंको मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। ३३ ।। ब्राह्मणदेवता ! राजाकी ओरसे तो आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न ? जिसके राज्यमें प्रजाका अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।। ३४ ।। ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँसे, किस हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’ ।। ३५ ।। परीक्षित्‌ ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्‌ से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे ।। ३६ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 31 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना


 श्रीशुक उवाच

इत्थं सोऽनुग्रहीतोऽङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकु नन्दनः

तं परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात् १

संवीक्ष्य क्षुल्लकान्मर्त्यान्पशून्वीरुद्वनस्पतीन्

मत्वा कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् २

तपःश्रद्धायुतो धीरो निःसङ्गो मुक्तसंशयः

समाधाय मनः कृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम् ३

बदर्याश्रममासाद्य नरनारायणालयम्

सर्वद्वन्द्वसहः शान्तस्तपसाराधयद्धरिम् ४

भगवान्पुनराव्रज्य पुरीं यवनवेष्टिताम्

हत्वा म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम् ५

नीयमाने धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः

आजगाम जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकपः ६

विलोक्य वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ

मनुष्यचेष्टामापन्नौ राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम् ७

विहाय वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्

पद्भ्यां पलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम् ८

पलायमानौ तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली

अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित् ९

प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम्

प्रवर्षणाख्यं भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति १०

गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप

ददाह गिरिमेधोभिः समन्तादग्निमुत्सृजन् ११

तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ

दशैकयोजनात्तुङ्गान्निपेततुरधो भुवि १२

अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ

स्वपुरं पुनरायातौ समुद्र परिखां नृप १३

सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ

बलमाकृष्य सुमहन्मगधान्मागधो ययौ १४

आनर्ताधिपतिः श्रीमान्रैवतो रैवतीं सुताम्

ब्रह्मणा चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम् १५

भगवानपि गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह

वैदर्भीं भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे १६

प्रमथ्य तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्

पश्यतां सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव १७


श्रीराजोवाच

भगवान्भीष्मकसुतां रुक्मिणीं रुचिराननाम्

राक्षसेन विधानेन उपयेम इति श्रुतम् १८

भगवन्श्रोतुमिच्छामि कृष्णस्यामिततेजसः

यथा मागधशाल्वादीन्जित्वा कन्यामुपाहरत् १९

ब्रह्मन्कृष्णकथाः पुण्या माध्वीर्लोकमलापहाः

को नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः २०


श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्यारे परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्दपर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान्‌ की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफासे बाहर निकले ।। १ ।। उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष- वनस्पति पहलेकी अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकारके हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।। २ ।। महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्तिसे युक्त एवं संशय-सन्देहसे मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगाकर गन्धमादन पर्वतपर जा पहुँचे ।। ३ ।। भगवान्‌ नर-नारायणके नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रममें जाकर बड़े शान्तभावसे गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्याके द्वारा भगवान्‌की आराधना करने लगे ।। ४ ।।

 इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरापुरीमें लौट आये। अबतक कालयवनकी सेनाने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छोंकी सेनाका संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारकाको ले चले ।। ५ ।। जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णके आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलोंपर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका ।। ६ ।। परीक्षित्‌ ! शत्रु-सेनाका प्रबल वेग देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए उसके सामनेसे बड़ी फुर्तीके साथ भाग निकले ।। ७ ।। उनके मनमें तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये होंइस प्रकारका नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोडक़र अनेक योजनोंतक वे अपने कमलदलके समान सुकोमल चरणोंसे हीपैदल भागते चले गये ।। ८ ।। जब महाबली मगधराज जरासन्धने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेनाके साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके ऐश्वर्य, प्रभाव आदिका ज्ञान न था ।। ९ ।। बहुत दूरतक दौडऩेके कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वतपर चढ़ गये। उस पर्वतका प्रवर्षणनाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा हीमेघ वर्षा किया करते थे ।। १० ।। परीक्षित्‌ ! जब जरासन्धने देखा कि वे दोनों पहाड़में छिप गये और बहुत ढूँढनेपर भी पता न चला, तब उसने र्ईंधनसे भरे हुए प्रवर्षण पर्वतके चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ।। ११ ।। जब भगवान्‌ ने देखा कि पर्वतके छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्धकी सेनाके घेरेको लाँघते हुए बड़े वेगसे उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वतसे एकदम नीचे धरतीपर कूद आये ।। १२ ।। राजन् ! उन्हें जरासन्धने अथवा उसके किसी सैनिकने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँसे चलकर फिर अपनी समुद्रसे घिरी हुई द्वारकापुरीमें चले आये ।। १३ ।। जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये, और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेशको चला गया ।। १४ ।।

 यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्धमें) कह चुका हूँ कि आनर्तदेशके राजा श्रीमान् रैवतजीने अपनी रेवती नामकी कन्या ब्रह्माजीकी प्रेरणासे बलरामजीके साथ ब्याह दी ।। १५ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी स्वयंवरमें आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियोंको बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुडऩे सुधाका हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेशकी राजकुमारी रुक्मिणीको हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणीजी राजा भीष्मककी कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजीका अवतार थीं ।। १६-१७ ।।

 राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! हमने सुना है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने भीष्मकनन्दिनी परम- सुन्दरी रुक्मिणीदेवीको बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधिसे उनके साथ विवाह किया था ।। १८ ।। महाराज ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियोंको जीतकर किस प्रकार रुक्मिणीका हरण किया ? ।। १९ ।। ब्रह्मर्षे ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत्का मल धो- बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहनेपर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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