गुरुवार, 3 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

रुक्मिणीहरण

 

प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ

अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः ३२

मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः

उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत् ३३

तयोर्निवेशनं श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः

ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ३४

एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः

यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत् ३५

कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः

आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम् ३६

अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा

असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः ३७

किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्

अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः ३८

एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः

कन्या चान्तःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्ताम्बिकालयम् ३९

पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्

सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम् ४०

यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता

गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः

मृडङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ४१

नानोपहार बलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः

स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः ४२

गायन्त्यश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः

परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः ४३

आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा

उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम् ४४

तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः

भवानीं वन्दयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम् ४५

नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्

भूयात्पतिर्मे भगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम् ४६

अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्य भूषणैः

नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक् ४७

विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्

लवणापूपताम्बूल कण्ठसूत्रफलेक्षुभिः ४८

तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः

ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः ४९

मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्

प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना ५०

 

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की ।। ३२ ।। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।। ३३ ।। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान् थे । भगवान्‌के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान्‌ को सेना और साथियोंके सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया ।। ३४ ।। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया ।। ३५ ।। विदर्भ देशके नागरिकों ने जब सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान्‌ के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अज्जलिमें भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।। ३६ ।। वे आपसमें इस प्रकार बातचीत करते थेरुक्मिणी इन्हींकी अर्धाङ्गिनी होनेके योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है ।। ३७ ।। यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो, तो त्रिलोक-विधाता भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्याम-सुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें।। ३८ ।।

परीक्षित्‌ ! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्त:पुरसे निकलकर देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुतसे सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे ।। ३९ ।। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके पादपल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं ।। ४० ।। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।। ४१ ।। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने- कपड़ोंसे सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं ।। ४२ ।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर जय-जयकार करतेविरद बखानते जा रहे थे ।। ४३ ।। देवीजीके मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन कयिा; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया ।। ४४ ।। बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी- बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान्‌ शङ्करकी अद्र्धाङ्गिनी भवानीको और भगवान्‌ शङ्करजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम करवाया ।। ४५ ।। रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की— ‘अम्बिका माता ! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों।। ४६ ।। इसके बाद रुक्मिणीजीने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेंकों प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे अम्बिकादेवीकी पूजा की ।। ४७ ।। तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की ।। ४८ ।। तब ब्राह्मणियोंने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ।। ४९ ।। पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक सहेलीका हाथ पकडक़र वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं ।। ५० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से 



बुधवार, 2 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

रुक्मिणीहरण


श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीय नृपोद्यमम्

कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः २०

बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः

त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः २१

भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः

प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा २२

अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः

नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्

सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः २३

अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्

मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः २४

दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः

देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती २५

एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा

न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले २६

एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप

वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः २७

अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः

अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह २८

सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती

आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता २९

तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्

उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ३०

तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा

न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ३१

 

विपक्षी राजाओंकी इस तैयारी का पता भगवान्‌ बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशङ्का हुई ।। २० ।। यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े ।। २१ ।।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे ! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं ।। २२ ।। अहो ! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परंतु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान्‌ अब भी नहीं पधारे ! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे ।। २३ ।। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरा हाथ पकडऩेके लियेमुझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ? ।। २४ ।। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं ! विधाता और भगवान्‌ शङ्कर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुनमें पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्‌ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते अभी समय हैऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये ।। २६ ।। परीक्षित्‌ ! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फडक़ने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।। २७ ।। इतनेमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्त:पुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो ।। २८ ।। सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मणदेवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ गये ! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा ।। २९ ।। तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि राजकुमारीजी ! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है।। ३० ।। भगवान्‌ के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया। उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्‌ के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत् की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी ।। ३१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

रुक्मिणीहरण

 

श्रीशुक उवाच

वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः

प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत् १

 

श्रीभगवानुवाच

तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि

वेदाहम्रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः २

तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान्मृधे

मत्परामनवद्याङ्गी मेधसोऽग्निशिखामिव ३

 

श्रीशुक उवाच

उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः

रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम् ४

स चाश्वैः शैब्यसुग्रीव मेघपुष्पबलाहकैः

युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः ५

आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः

आनर्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः ६

राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशानुगः

शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन्कर्माण्यकारयत् ७

पुरं सम्मृष्टसंसिक्त मार्गरथ्याचतुष्पथम्

चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम् ८

स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः

जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद् गृहैरगुरुधूपितैः ९

पितॄन्देवान्समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप

भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम् १०

सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्

आहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः ११

चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः

पुरोहितोऽथर्वविद्वै जुहाव ग्रहशान्तये १२

हिरण्यरूप्य वासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्

प्रादाद्धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः १३

एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै

कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम् १४

मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः

पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ १५

तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च

निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने १६

तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः

आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः १७

कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्

यद्यागत्य हरेत्कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः १८

योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः

आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड लिया और हँसते हुए यों बोले ।। १ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाब्राह्मणदेवता ! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समय नींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है ।। २ ।। परंतु ब्राह्मणदेवता ! आप देखियेगा, जैसे लकडिय़ोंको मथकरएक-दूसरेसे रगडक़र मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्धमें उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलङ्कोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा ।। ३ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ।। ४ ।। दारुक भगवान्‌ के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोडक़र भगवान्‌के सामने खड़ा हो गया ।। ५ ।। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्तदेशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे ।। ६ ।। कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लडक़े रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे ।। ७ ।। नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिडक़ाव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरन बाँध दिये गये थे ।। ८ ।। वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प, माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी ।। ९ ।। परीक्षित्‌ ! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी ।। १० ।। सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मङ्गलसूत्र कङ्कण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं ।। ११ ।। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रहशान्तिके लिये हवन किया ।। १२ ।। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्रह्मणोंको दीं ।। १३ ।।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मङ्गलकृत्य कराये ।। १४ ।। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे ।। १५ ।। विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया ।। १६ ।। उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ंड्रक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।। १७ ।। वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपनेअपने मनमें यह पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे ।। १८-१९ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




मंगलवार, 1 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

श्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर शृण्वतां ते

निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम्

रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं

त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे ३७

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप

विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्

धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या

काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ३८

तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायाम्

आत्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि

मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्

गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ३९

पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र

गुर्वर्चनादिभिरलं भगवान्परेशः

आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं

गृह्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये ४०

श्वो भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्

गुप्तः समेत्य पृतनापतिभिः परीतः

निर्मथ्य चैद्यमगधेन्द्र बलं प्रसह्य

मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ४१

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धून्

त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायम्

पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवयात्रा

यस्यां बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात् ४२

यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजःस्नपनं महान्तो

वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै

यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं

जह्यामसून्व्रतकृशान्शतजन्मभिः स्यात् ४३

 

ब्राह्मण उवाच

इत्येते गुह्यसन्देशा यदुदेव मया हृताः

विमृश्य कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ४४

 

रुक्मिणीजीने कहा हैत्रिभुवनसुन्दर ! आपके गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश करके एक-एक अङ्गके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्षचारों पुरुषार्थोंके फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोडक़र आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।। ३७ ।। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धामसभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य-लोकमें जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइयेऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी ? ।। ३८ ।। इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये। कमलनयन ! प्राणवल्लभ ! मैं आप-सरीखे वीरको समॢपत हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब, जैसे ङ्क्षसहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।। ३९ ।। मैंने यदि जन्म-जन्ममें पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना) दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान्‌ परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर मेरा पणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके ।। ४० ।। प्रभो ! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओंको मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।। ४१ ।। यदि आप यह सोचते हों कि तुम तो अन्त:पुरमेंभीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता हैजिसमें विवाही जानेवाली कन्याको, दुलहिन को नग रके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना पड़ता है ।। ४२ ।। कमलनयन ! उमापति भगवान्‌ शङ्करके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाह ते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।। ४३ ।।

ब्राह्मणदेवताने कहायदुवंशशिरोमणे ! यही रुक्मिणीके अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्धमें जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।। ४४ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

रुक्मिण्युद्वाहप्रस्तावे द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास

रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

राजासीद्भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्

तस्य पञ्चाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना २१

रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः

रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती २२

सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः

गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् २३

तां बुद्धिलक्षणौदार्य रूपशीलगुणाश्रयाम्

कृष्णश्च सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे २४

बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप

ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत २५

तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम्

विचिन्त्याप्तं द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् २६

द्वारकां स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः

अपश्यदाद्यं पुरुषमासीनं काञ्चनासने २७

दृष्ट्वा ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्

उपवेश्यार्हयां चक्रे यथात्मानं दिवौकसः २८

तं भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः

पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत २९

कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ धर्मस्ते वृद्धसम्मतः

वर्तते नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ३०

सन्तुष्टो यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्

अहीयमानः स्वद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ३१

असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि सुरेश्वरः

अकिञ्चनोऽपि सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ३२

विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्

निरहङ्कारिणः शान्तान्नमस्ये शिरसा सकृत् ३३

कच्चिद्वः कुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः

सुखं वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ३४

यतस्त्वमागतो दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया

सर्वं नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ३५

एवं सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना

लीलागृहीतदेहेन तस्मै सर्वमवर्णयत् ३६

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! महाराज भीष्मक विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।। २१ ।। सबसे बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थेजिनके नाम थे क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।। २२ ।। जब उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णके सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी प्रशंसा सुनीजो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्राय: गाया ही करते थेतब उसने यही निश्चय किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं ।। २३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी समझते थे कि रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अत: भगवान्‌ ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ।। २४ ।। रुक्मिणीजीके भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकृष्णसे ही हो। परंतु रुक्मी श्रीकृष्णसे बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे रोक दयिा और शिशुपालको ही अपनी बहिनके योग्य वर समझा ।। २५ ।।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास भेजा ।। २६ ।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवताने देखा कि आदिपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ।। २७ ।। ब्राह्मणोंके परमभक्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग उनकी (भगवान्‌की) किया करते हैं ।। २८ ।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्रके अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके तब संतोंके परम आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे।। २९ ।। ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करनेमें कोई कठिनाई तो नहीं होती ।। ३० ।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।। ३१ ।। यदि इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा। परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह- परिग्रह नहीं है, और जो उसी अवस्थामें सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर सुखकी नींद सोता है ।। ३२ ।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैंउन ब्राह्मणोंको मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। ३३ ।। ब्राह्मणदेवता ! राजाकी ओरसे तो आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न ? जिसके राज्यमें प्रजाका अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है ।। ३४ ।। ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँसे, किस हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’ ।। ३५ ।। परीक्षित्‌ ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान्‌ से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने लगे ।। ३६ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

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