॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
रुक्मिणीहरण
तां
देवमायामिव धीरमोहिनीं
सुमध्यमां
कुण्डलमण्डिताननाम्
श्यामां
नितम्बार्पितरत्नमेखलां
व्यञ्जत्स्तनीं
कुन्तलशङ्कितेक्षणाम् ५१
शुचिस्मितां
बिम्बफलाधरद्युति-
शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्
पदा
चलन्तीं कलहंसगामिनीं
सिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना
विलोक्य
वीरा मुमुहुः समागता
यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः
५२
यां
वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-
व्रीडावलोकहृतचेतस
उज्झितास्त्राः
पेतुः
क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा
यात्राच्छलेन
हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम् ५३
सैवं
शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ
प्राप्तिं
तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा
उत्सार्य
वामकरजैरलकानपङ्गैः
प्राप्तान्ह्रियैक्षत
नृपान्ददृशेऽच्युतं सा ५४
तां
राजकन्यां रथमारुरक्षतीं
जहार
कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्
रथं
समारोप्य सुपर्णलक्षणं
राजन्यचक्रं
परिभूय माधवः ५५
ततो
ययौ रामपुरोगमः शनैः
शृगालमध्यादिव
भागहृद्धरिः ५६
तं
मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं
परे
जरासन्धमुखा न सेहिरे
अहो
धिगस्मान्यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं
केशरिणां मृगैरिव ५७
परीक्षित्
! रुक्मिणीजी भगवान् की मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरोंको भी मोहित कर
लेनेवाली थीं। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था। मुखमण्डलपर कुण्डलोंकी शोभा
जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण अवस्थाकी सन्धिमें स्थित थीं। नितम्बपर जड़ाऊ
करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्ष:स्थल कुछ उभरे हुए थे
और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकोंके कारण कुछ चञ्चल हो रही थी ।। ५१ ।। उनके होठोंपर
मनोहर मुसकान थी। उनके दाँतोंकी पाँत थी तो कुन्दकलीके समान परम उज्ज्वल, परंतु पके हुए कुँदरूके समान लाल-लाल होठोंकी चमकसे उसपर भी लालिमा आ गयी
थी। उनके पाँवोंके पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू
रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलोंसे पैदल ही राजहंसकी गतिसे चल
रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो
गये। कामदेवने ही भगवान्का कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने बाणोंसे उनका हृदय जर्जर
कर दिया ।। ५२ ।। रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सव-यात्राके बहाने मन्द-मन्द गतिसे
चलकर भगवान् श्रीकृष्णपर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें
देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवनपर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े
नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र छूटकर
गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ोंसे धरतीपर आ
गिरे ।। ५३ ।। इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा करती
हुई अपने कमलकी कलीके समान सुकुमार चरणोंको बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं।
उन्होंने अपने बायें हाथकी अँगुलियोंसे मुखकी ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ
आये हुए नरपतियोंकी ओर लजीली चितवनसे देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान्
श्रीकृष्णके दर्शन हुए ।। ५४ ।। राजकुमारी रुक्मिणीजी रथपर चढऩा ही चाहती थीं कि
भगवान् श्रीकृष्णने समस्त शत्रुओंके देखते-देखते उनकी भीड़मेंसे रुक्मिणीजीको उठा
लिया और उन सैकड़ों राजाओंके सिरपर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथपर बैठा लिया,
जिसकी ध्वजापर गरुडक़ा चिह्न लगा हुआ था ।। ५५ ।। इसके बाद जैसे
ङ्क्षसह सियारोंके बीचमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही
रुक्मिणीजीको लेकर भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियोंके साथ वहाँसे चल पड़े
।। ५६ ।। उस समय जरासन्धके वशवर्ती अभिमानी राजाओंको अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार
और यश-कीर्तिका नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढक़र कहने लगे—‘अहो,
हमें धिक्कार है। आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले,
जैसे सिंह के भाग को हरिन ले जायँ उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले
गये’ ।। ५७ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
रुक्मिणीहरणं
नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से