शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार

तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह

 

श्रीशुक उवाच

इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः

स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः १

तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः

तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते २

अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थेऽस्त्र कोविदाः

मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा ३

पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा

सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना ४

प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने

विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम् ५

तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः

अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान् ६

पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि

सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः ७

हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः

अश्वाश्वतरनागोष्ट्र खरमर्त्यशिरांसि च ८

हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः

राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः ९

शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्

नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन् १०

भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज

न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते ११

यथा दारुमयी योषित्नृत्यते कुहकेच्छया

एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः १२

शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः

त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम् १३

तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्

कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत् १४

अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः

पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः १५

रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि

तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः १६

 

श्रीशुक उवाच

एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्

हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः १७

रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः

पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली १८

रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्

प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः १९

अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्

कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः २०

इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः

चोदयाश्वान्यतः कृष्णः तस्य मे संयुगं भवेत् २१

अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः

नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता २२

विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्

रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत् २३

धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः

आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन २४

यत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः

हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः २५

यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्

स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम् २६

अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः

स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः २७

तैस्तादितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः

पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः २८

परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ

यद्यदायुधमादत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः २९

ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया

कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम् ३०

तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः

छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ३१

दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला

पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती ३२

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

योगेश्वराप्रमेयात्मन्देवदेव जगत्पते

हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे दौड़े ।। १ ।। राजन् ! जब यदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुष का टङ्कार किया और घूमकर उनके सामने डट गये ।। २ ।। जरासन्ध की सेनाके लोग कोई घोड़े पर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ।। ३ ।।

परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा ।। ४ ।। भगवान्‌ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी ! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है।। ५ ।। इधर गद और सङ्कर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको छिन्न-भिन्न करने लगे ।। ६ ।। उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगडिय़ोंसे सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके सिर भी कट-कटकर रणभूमिमें लोटने लगे ।। ७-८ ।। अन्तमें विजयकी सच्ची आकाङ्क्षावाले यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए ।। ९ ।।

उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नीके छिन जानेके कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदयमें उत्साह रह गया था और न तो शरीरपर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कहने लगा।। १० ।। शिशुपालजी ! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन् ! कोई भी बात सर्वदा अपने मनके अनुकूल ही हो या प्रतिकूल ही हो, इस सम्बन्धमें कुछ स्थिरता किसी भी प्राणीके जीवनमें नहीं देखी जाती ।। ११ ।। जैसे कठपुतली बाजीगरकी इच्छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छाके अधीन रहकर सुख और दु:खके सम्बन्धमें यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है ।। १२ ।। देखिये, श्रीकृष्णने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओंके साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बारअठारहवीं बार उनपर विजय प्राप्त की ।। १३ ।। फिर भी इस बातको लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्धके अनुसार कालभगवान्‌ ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते हैं ।। १४ ।। इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियोंके भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंकी थोड़ी-सी सेनाने हमें हरा दिया है ।। १५ ।। इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे।। १६ ।। परीक्षित्‌ ! जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये ।। १७ ।।

रुक्मिणीजीका बड़ा भाई रुक्मी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिनको श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया ।। १८ ।। महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियोंके सामने यह प्रतिज्ञा की।। १९ ।। मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।। २० ।। परीक्षित्‌ ! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सारथिसे बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा ।। २१ ।। आज मैं अपने तीखे बाणोंसे उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बलवीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिन को बलपूर्वक हर ले गया है।। २२ ।। परीक्षित्‌ ! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान्‌ के तेजष प्रभावको बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह ! खड़ा रह !।। २३ ।। उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर ! यदुवंशियोंके कुलकलङ्क ! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है ? अरे मन्द ! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्धमें कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ ।। २४-२५ ।। देख ! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोडक़र भाग जा।रुक्मीकी बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छ: बाण छोड़े ।। २६ ।। साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष उठाया और भगवान्‌ श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे ।। २७ ।। उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परंतु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला ।। २८ ।। इस प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमरजितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभीको भगवान्‌ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला ।। २९ ।। अब रुक्मी क्रोधवश हाथमें तलवार लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतंगा आगकी ओर लपकता है ।। ३० ।। जब भगवान्‌ ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली ।। ३१ ।। जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण- स्वरमें बोलीं।। ३२ ।। देवताओंके भी आराध्यदेव ! जगत्पते ! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं। परंतु कल्याण-स्वरूप भी तो हैं। प्रभो ! मेरे भैयाको मारना आपके योग्य काम नहीं है।। ३३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



गुरुवार, 3 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

रुक्मिणीहरण

 

तां देवमायामिव धीरमोहिनीं

सुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम्

श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलां

व्यञ्जत्स्तनीं कुन्तलशङ्कितेक्षणाम् ५१

शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति-

शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्

पदा चलन्तीं कलहंसगामिनीं

सिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना

विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता

यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः ५२

यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-

व्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः

पेतुः क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा

यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम् ५३

सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ

प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा

उत्सार्य वामकरजैरलकानपङ्गैः

प्राप्तान्ह्रियैक्षत नृपान्ददृशेऽच्युतं सा ५४

तां राजकन्यां रथमारुरक्षतीं

जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्

रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं

राजन्यचक्रं परिभूय माधवः ५५

ततो ययौ रामपुरोगमः शनैः

शृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः ५६

तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं

परे जरासन्धमुखा न सेहिरे

अहो धिगस्मान्यश आत्तधन्वनां

गोपैर्हृतं केशरिणां मृगैरिव ५७

 

परीक्षित्‌ ! रुक्मिणीजी भगवान्‌ की मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरोंको भी मोहित कर लेनेवाली थीं। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था। मुखमण्डलपर कुण्डलोंकी शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण अवस्थाकी सन्धिमें स्थित थीं। नितम्बपर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्ष:स्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकोंके कारण कुछ चञ्चल हो रही थी ।। ५१ ।। उनके होठोंपर मनोहर मुसकान थी। उनके दाँतोंकी पाँत थी तो कुन्दकलीके समान परम उज्ज्वल, परंतु पके हुए कुँदरूके समान लाल-लाल होठोंकी चमकसे उसपर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवोंके पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलोंसे पैदल ही राजहंसकी गतिसे चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेवने ही भगवान्‌का कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने बाणोंसे उनका हृदय जर्जर कर दिया ।। ५२ ।। रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सव-यात्राके बहाने मन्द-मन्द गतिसे चलकर भगवान्‌ श्रीकृष्णपर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवनपर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ोंसे धरतीपर आ गिरे ।। ५३ ।। इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा करती हुई अपने कमलकी कलीके समान सुकुमार चरणोंको बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं। उन्होंने अपने बायें हाथकी अँगुलियोंसे मुखकी ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियोंकी ओर लजीली चितवनसे देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन हुए ।। ५४ ।। राजकुमारी रुक्मिणीजी रथपर चढऩा ही चाहती थीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने समस्त शत्रुओंके देखते-देखते उनकी भीड़मेंसे रुक्मिणीजीको उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओंके सिरपर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथपर बैठा लिया, जिसकी ध्वजापर गरुडक़ा चिह्न लगा हुआ था ।। ५५ ।। इसके बाद जैसे ङ्क्षसह सियारोंके बीचमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजीको लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियोंके साथ वहाँसे चल पड़े ।। ५६ ।। उस समय जरासन्धके वशवर्ती अभिमानी राजाओंको अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्तिका नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढक़र कहने लगे—‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंह के भाग को हरिन ले जायँ उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये।। ५७ ।।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

रुक्मिणीहरण

 

प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ

अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः ३२

मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः

उपायनान्यभीष्टानि विधिवत्समपूजयत् ३३

तयोर्निवेशनं श्रीमदुपाकल्प्य महामतिः

ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा ३४

एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः

यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत् ३५

कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः

आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम् ३६

अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा

असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः ३७

किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्

अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः ३८

एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः

कन्या चान्तःपुरात्प्रागाद्भटैर्गुप्ताम्बिकालयम् ३९

पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्

सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम् ४०

यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता

गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः

मृडङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ४१

नानोपहार बलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः

स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः ४२

गायन्त्यश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः

परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः ४३

आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा

उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम् ४४

तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः

भवानीं वन्दयांचक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम् ४५

नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्

भूयात्पतिर्मे भगवान्कृष्णस्तदनुमोदताम् ४६

अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्य भूषणैः

नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक् ४७

विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्

लवणापूपताम्बूल कण्ठसूत्रफलेक्षुभिः ४८

तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः

ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः ४९

मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्

प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना ५०

 

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की ।। ३२ ।। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ।। ३३ ।। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान् थे । भगवान्‌के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान्‌ को सेना और साथियोंके सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया ।। ३४ ।। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया ।। ३५ ।। विदर्भ देशके नागरिकों ने जब सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान्‌ के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अज्जलिमें भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे ।। ३६ ।। वे आपसमें इस प्रकार बातचीत करते थेरुक्मिणी इन्हींकी अर्धाङ्गिनी होनेके योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है ।। ३७ ।। यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो, तो त्रिलोक-विधाता भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्याम-सुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें।। ३८ ।।

परीक्षित्‌ ! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्त:पुरसे निकलकर देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुतसे सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे ।। ३९ ।। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके पादपल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं ।। ४० ।। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे ।। ४१ ।। बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने- कपड़ोंसे सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं ।। ४२ ।। गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर जय-जयकार करतेविरद बखानते जा रहे थे ।। ४३ ।। देवीजीके मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन कयिा; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया ।। ४४ ।। बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी- बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान्‌ शङ्करकी अद्र्धाङ्गिनी भवानीको और भगवान्‌ शङ्करजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम करवाया ।। ४५ ।। रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की— ‘अम्बिका माता ! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों।। ४६ ।। इसके बाद रुक्मिणीजीने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेंकों प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे अम्बिकादेवीकी पूजा की ।। ४७ ।। तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की ।। ४८ ।। तब ब्राह्मणियोंने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया ।। ४९ ।। पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक सहेलीका हाथ पकडक़र वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं ।। ५० ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से 



बुधवार, 2 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

रुक्मिणीहरण


श्रुत्वैतद्भगवान्रामो विपक्षीय नृपोद्यमम्

कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः २०

बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः

त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद्गजाश्वरथपत्तिभिः २१

भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः

प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा २२

अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः

नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्

सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः २३

अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्

मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः २४

दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः

देवी वा विमुखी गौरी रुद्राणी गिरिजा सती २५

एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा

न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले २६

एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप

वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन्प्रियभाषिणः २७

अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः

अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह २८

सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती

आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता २९

तस्या आवेदयत्प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्

उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति ३०

तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा

न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा ३१

 

विपक्षी राजाओंकी इस तैयारी का पता भगवान्‌ बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशङ्का हुई ।। २० ।। यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े ।। २१ ।।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे ! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं ।। २२ ।। अहो ! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परंतु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान्‌ अब भी नहीं पधारे ! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे ।। २३ ।। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरा हाथ पकडऩेके लियेमुझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं ? ।। २४ ।। ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं ! विधाता और भगवान्‌ शङ्कर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुनमें पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्‌ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते अभी समय हैऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये ।। २६ ।। परीक्षित्‌ ! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान्‌ श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फडक़ने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे ।। २७ ।। इतनेमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्त:पुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो ।। २८ ।। सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मणदेवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ गये ! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा ।। २९ ।। तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि राजकुमारीजी ! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है।। ३० ।। भगवान्‌ के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया। उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्‌ के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत् की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी ।। ३१ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

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