शनिवार, 5 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचपनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

प्रद्युम्न  का जन्म और शम्बरासुरका वध

 

श्रीशुक उवाच -

कामस्तु वासुदेवांशो दग्धः प्राग् रुद्रमन्युना ।

 देहोपपत्तये भूयः तमेव प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥

 स एव जातो वैदर्भ्यां कृष्णवीर्यसमुद्‌भवः ।

 प्रद्युम्न इति विख्यातः सर्वतोऽनवमः पितुः ॥ २ ॥

 तं शम्बरः कामरूपी हृत्वा तोकमनिर्दशम् ।

 स विदित्वात्मनः शत्रुं प्रास्योदन्वत्यगाद् गृहम् ॥ ३ ॥

 तं निर्जगार बलवान् मीनः सोऽप्यपरैः सह ।

 वृतो जालेन महता गृहीतो मत्स्यजीविभिः ॥ ४ ॥

 तं शम्बराय कैवर्ता उपाजह्रुरुपायनम् ।

 सूदा महानसं नीत्वा वद्यन् स्वधितिनाद्‌भुतम् ॥ ५ ॥

 दृष्ट्वा तद् उदरे बालं मायावत्यै न्यवेदयन् ।

 नारदोऽकथयत्सर्वं तस्याः शङ्‌कितचेतसः ।

 बालस्य तत्त्वमुत्पत्तिं मत्स्योदरनिवेशनम् ॥ ६ ॥

 सा च कामस्य वै पत्‍नी रतिर्नाम यशस्विनी ।

 पत्युर्निर्दग्धदेहस्य देहोत्पत्तिं प्रतीक्षती ॥ ७ ॥

 निरूपिता शम्बरेण सा सूदौदनसाधने ।

 कामदेवं शिशुं बुद्ध्वा चक्रे स्नेहं तदार्भके ॥ ८ ॥

 नातिदीर्घेण कालेन स कार्ष्णि रूढयौवनः ।

 जनयामास नारीणां वीक्षन्तीनां च विभ्रमम् ॥ ९ ॥

सा तं पतिं पद्मदलायतेक्षणं

     प्रलम्बबाहुं नरलोकसुन्दरम् ।

 सव्रीडहासोत्तभितभ्रुवेक्षती

     प्रीत्योपतस्थे रतिरङ्ग सौरतैः ॥ १० ॥

तामह भगवान् कार्ष्णिः मातस्ते मतिरन्यथा ।

 मातृभावं अतिक्रम्य वर्तसे कामिनी यथा ॥ ११ ॥

 

 रतिरुवाच -

भवान् नारायणसुतः शम्बरेणाहृतो गृहात् ।

 अहं तेऽधिकृता पत्‍नी रतिः कामो भवान् प्रभो ॥ १२ ॥

 एष त्वानिर्दशं सिन्धौ अक्षिपत् शंबरोऽसुरः ।

 मत्स्योऽग्रसीत् तत् उदराद् इतः प्राप्तो भवान् प्रभो ॥ १३ ॥

 तमिमं जहि दुर्धर्षं दुर्जयं शत्रुमात्मनः ।

 मायाशतविदं तं च मायाभिर्मोहनादिभिः ॥ १४ ॥

 परीशोचति ते माता कुररीव गतप्रजा ।

 पुत्रस्नेहाकुला दीना विवत्सा गौरिवातुरा ॥ १५ ॥

 प्रभाष्यैवं ददौ विद्यां प्रद्युम्नाय महात्मने ।

 मायावती महामायां सर्वमायाविनाशिनीम् ॥ १६ ॥

 स च शम्बरमभ्येत्य संयुगाय समाह्वयत् ।

 अविषह्यैस्तमाक्षेपैः क्षिपन् सञ्जनयन् कलिम् ॥ १७ ॥

 सोऽधिक्षिप्तो दुर्वाचोभिः पदाहत इवोरगः ।

 निश्चक्राम गदापाणिः अमर्षात् ताम्रलोचनः ॥ १८ ॥

 गदामाविध्य तरसा प्रद्युम्नाय महात्मने ।

 प्रक्षिप्य व्यनदद् नादं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ॥ १९ ॥

 तामापतन्तीं भगवानन् प्रद्युम्नो गदया गदाम् ।

 अपास्य शत्रवे क्रुद्धः प्राहिणोर् स्वगदां नृप ॥ २० ॥

 स च मायां समाश्रित्य दैतेयीं मयदर्शितम् ।

 मुमुचेऽस्त्रमयं वर्षं कार्ष्णौ वैहायसोऽसुरः ॥ २१ ॥

 बाध्यमानोऽस्त्रवर्षेण रौक्मिणेयो महारथः ।

 सत्त्वात्मिकां महाविद्यां सर्वमायोपमर्दिनीम् ॥ २२ ॥

 ततो गौह्यकगान्धर्व पैशाचोरगराक्षसीः ।

 प्रायुङ्क्त शतशो दैत्यः कार्ष्णिर्व्यधमयत्स ताः ॥ २३ ॥

 निशातमसिमुद्यम्य सकिरीटं सकुण्डलम् ।

 शम्बरस्य शिरः कायात् ताम्रश्मश्र्वोजसाहरत् ॥ २४ ॥

 आकीर्यमाणो दिविजैः स्तुवद्‌भिः कुसुमोत्करैः ।

 भार्ययाम्बरचारिण्या पुरं नीतो विहायसा ॥ २५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कामदेव भगवान्‌ वासुदेवके ही अंश हैं। वे पहले रुद्र- भगवान्‌ की क्रोधाग्नि से भस्म हो गये थे। अब फिर शरीर-प्राप्तिके लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान्‌ वासुदेवका ही आश्रय लिया ।। १ ।। वे ही काम अबकी बार भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा रुक्मिणीजी- के गर्भसे उत्पन्न हुए और प्रद्युम्न नामसे जगत् में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य आदि सद्गुणोंमें भगवान्‌ श्रीकृष्णसे वे किसी प्रकार कम न थे ।। २ ।। बालक प्रद्युम्न अभी दस दिनके भी न हुए थे कि कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृहसे उन्हें हर ले गया और समुद्रमें फेंककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है ।। ३ ।। समुद्रमें बालक प्रद्युम्न को एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओंने अपने बहुत बड़े जालमें फँसाकर दूसरी मछलियोंके साथ उस मच्छको भी पकड़ लिया ।। ४ ।। और उन्होंने उसे ले जाकर शम्बरासुरको भेंटके रूपमें दे दिया। शम्बरासुरके रसोइये उस अद्भुत मच्छको उठाकर रसोईघरमें ले आये और कुल्हाडिय़ोंसे उसे काटने लगे ।। ५ ।। रसोइयोंने मत्स्यके पेटमें बालक देखकर उसे शम्बरासुरकी दासी मायावतीको समॢपत किया। उसके मनमें बड़ी शंका हुई। तब नारदजीने आकर बालकका कामदेव होना, श्रीकृष्णकी पत्नी रुक्मिणीके गर्भसे जन्म लेना, मच्छके पेटमें जाना सब कुछ कह सुनाया ।। ६ ।। परीक्षित्‌ ! वह मायावती कामदेवकी यशस्विनी पत्नी रति ही थी। जिस दिन शङ्करजीके क्रोधसे कामदेवका शरीर भस्म हो गया था, उसी दिनसे वह उसकी देहके पुन: उत्पन्न होनेकी प्रतीक्षा कर रही थी ।। ७ ।। उसी रतिको शम्बरासुरने अपने यहाँ दाल-भात बनानेके काममें नियुक्त कर रखा था। जब उसे मालूम हुआ कि इस शिशुके रूपमें मेरे पति कामदेव ही हैं, तब वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी ।। ८ ।। श्रीकृष्णकुमार भगवान्‌ प्रद्युम्न बहुत थोड़े दिनोंमें जवान हो गये। उनका रूप-लावण्य इतना अद्भुत था कि जो स्त्रियाँ उनकी ओर देखतीं, उनके मनमें शृङ्गार-रसका उद्दीपन हो जाता ।। ९ ।। कमलदल के समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनोंतक लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्यलोकमें सबसे सुन्दर शरीर ! रति सलज्ज हास्यके साथ भौंह मटकाकर उनकी ओर देखती और प्रेमसे भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई उनकी सेवा-शुश्रूषामें लगी रहती ।। १० ।। श्रीकृष्णनन्दन भगवान्‌ प्रद्युम्रने उसके भावोंमें परिवर्तन देखकर कहा—‘देवि ! तुम तो मेरी माँके समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? मैं देखता हूँ कि तुम माताका भाव छोडक़र कामिनीके समान हाव-भाव दिखा रही हो।। ११ ।।

रतिने कहा—‘प्रभो ! आप स्वयं भगवान्‌ नारायणके पुत्र हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और मैं आपकी सदाकी धर्मपत्नी रति हूँ ।। १२ ।। मेरे स्वामी ! जब आप दस दिनके भी न थे, तब इस शम्बरासुरने आपको हरकर समुद्रमें डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ आपको निगल गया और उसीके पेटसे आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं ।। १३ ।। यह शम्बरासुर सैकड़ों प्रकारकी माया जानता है। इसको अपने वशमें कर लेना या जीत लेना बहुत ही कठिन है। आप अपने इस शत्रुको मोहन आदि मायाओंके द्वारा नष्ट कर डालिये ।। १४ ।। स्वामिन् ! अपनी सन्तान आपके खो जानेसे आपकी माता पुत्रस्नेहसे व्याकुल हो रही हैं, वे आतुर होकर अत्यन्त दीनतासे रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जानेपर कुररी पक्षीकी अथवा बछड़ा खो जानेपर बेचारी गायकी होती है ।। १५ ।। मायावती रतिने इस प्रकार कहकर परमशक्तिशाली प्रद्युम्रको महामाया नामकी विद्या सिखायी । यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकारकी मायाओंका नाश कर देती है ।। १६ ।। अब प्रद्युम्रजी शम्बरासुरके पास जाकर उसपर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे । वे चाहते थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे । इतना ही नहीं, उन्होंने युद्धके लिये उसे स्पष्टरूपसे ललकारा ।। १७ ।।

प्रद्युम्न जी के कटुवचनोंकी चोटसे शम्बरासुर तिलमिला उठा । मानो किसीने विषैले साँपको पैर से ठोकर मार दी हो । उसकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं । वह हाथमें गदा लेकर बाहर निकल आया ।। १८ ।। उसने अपनी गदा बड़े जोरसे आकाश में घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्नजी पर चला दी । गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश सिंहनाद किया, मानो बिजली कडक़ रही हो ।। १९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ प्रद्युम्रने देखा कि उसकी गदा बड़े वेगसे मेरी ओर आ रही है । तब उन्होंने अपनी गदाके प्रहारसे उसकी गदा गिरा दी और क्रोधमें भरकर अपनी गदा उसपर चलायी ।। २० ।। तब वह दैत्य मयासुरकी बतलायी हुई आसुरी मायाका आश्रय लेकर आकाशमें चला गया और वहींसे प्रद्युम्न जी पर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा ।। २१ ।। महारथी प्रद्युम्नजी पर बहुत-सी अस्त्र- वर्षा करके जब वह उन्हें पीडि़त करने लगा, तब उन्होंने समस्त मायाओं को शान्त करनेवाली सत्त्वमयी महाविद्याका प्रयोग किया ।। २२ ।। तदनन्तर शम्बरासुर ने यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षसोंकी सैकड़ों मायाओंका प्रयोग किया; परंतु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्रजीने अपनी महाविद्यासे उन सबका नाश कर दिया ।। २३ ।। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार उठायी और शम्बरासुरका किरीट एवं कुण्डलसे सुशोभित सिर, जो लाल-लाल दाढ़ी, मूछोंसे बड़ा भयङ्कर लग रहा था, काटकर धड़से अलग कर दिया ।। २४ ।। देवतालोग पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना जानती थी, अपने पति प्रद्युम्न जी को आकाशमार्ग से द्वारकापुरीमें ले गयी ।। २५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार

तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह

 

श्रीशुक उवाच

तया परित्रासविकम्पिताङ्गया

शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया

कातर्यविस्रंसितहेममालया

गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत ३४

चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं

सश्मश्रुकेशं प्रवपन्व्यरूपयत्

तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं

यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः ३५

कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्

तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः

विमुच्य बद्धं करुणो भगवान्कृष्णमब्रवीत् ३६

असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्

वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः ३७

मैवास्मान्साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया

सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक्पुमान् ३८

बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति

त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः ३९

क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः

भ्रातापि भ्रातरं हन्याद्येन घोरतमस्ततः ४०

राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः

मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि ४१

तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्

यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत् ४२

आत्ममोहो नृणामेव कल्पते देवमायया

सुहृद्दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम् ४३

एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्

नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः ४४

देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः

आत्मन्यविद्यया कॢप्तः संसारयति देहिनम् ४५

नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्च सतः सति

तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः ४६

जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्

कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव ४७

यथा शयान आत्मानं विषयान्फलमेव च

अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाप्नोत्यबुधो भवम् ४८

तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्

तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते ४९

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता

वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे ५०

प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः

स्मरन्विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः ५१

चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत्पुरम्

अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्

कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद्रुषा ५२

भगवान्भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्

पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह ५३

तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे

अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप ५४

नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः

पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः ५५

सा वृष्णिपुर्युत्तम्भितेन्द्र केतुभिर्

विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः

बभौ प्रतिद्वार्युपकॢप्तमङ्गलैर्

आपूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः ५६

सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्

गजैर्द्वाःसु परामृष्ट रम्भापूगोपशोभिता ५७

कुरुसृञ्जयकैकेय विदर्भयदुकुन्तयः

मिथो मुमुदिरे तस्मिन्सम्भ्रमात्परिधावताम् ५८

रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः

राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः ५९

द्वारकायामभूद्राजन्महामोदः पुरौकसाम्

रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम् ६०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंरुक्मिणीजीका एक-एक अङ्ग भयके मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला रुँध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्‌के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान्‌ उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया ।। ३४ ।। फिर भी रुक्मी उनके अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगहसे मूँडक़र उसे कुरूप बना दिया। तबतक यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अद्भुत सेनाको तहस-नहस कर डालाठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है ।। ३५ ।। फिर वे लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये, तो देखा कि रुक्मी दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्णसे कहा।। ३६ ।। कृष्ण ! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूँछ मूँडक़र उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकारका वध ही है।। ३७ ।। इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको सम्बोधन करके कहा— ‘साध्वी ! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दु:ख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्मका फल भोगना पड़ता है।। ३८ ।। अब श्रीकृष्णसे बोले—‘कृष्ण ! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे, तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे हुएको फिर क्या मारना ?’ ।। ३९ ।। फिर रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी ! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है।। ४० ।। इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले—‘भाई कृष्ण ! यह ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं।। ४१ ।। अब वे रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी ! तुम्हारे भाई- बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मङ्गलके लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमङ्गल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है ।। ४२ ।। देवि ! जो लोग भगवान्‌की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है ।। ४३ ।। समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परंतु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं ।। ४४ ।। यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे मैं समझता है, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है ।। ४५ ।। साध्वी ! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थोंका संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है ? ।। ४६ ।। जन्म लेना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और मरनाये सारे विकार शरीरके ही होते हैं, आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परंतु अमावस्याके दिन व्यवहारमें लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परंतु लोग उसे भ्रमवश अपनाअपने आत्माका मान लेते हैं ।। ४७ ।। जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसारचक्रका अनुभव करते हैं ।। ४८ ।। इसलिये साध्वी ! अज्ञानके कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्त:करणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोडक़र तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ ।। ४९ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब बलरामजीने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया ।। ५० ।। रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा- अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी ।। ५१ ।। अत: उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि दुर्बुद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा ।। ५२ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ५३ ।। हे राजन् ! उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम जो था ।। ५४ ।। वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं ।। ५५ ।। उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी- बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मङ्गलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी ।। ५६ ।। मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सडक़ और गलियोंका छिडक़ाव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे ।। ५७ ।। उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धुवर्गोंमें कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे ।। ५८ ।। जहाँ-तहाँ रुक्मिणी-हरणकी ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं ।। ५९ ।। महाराज ! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ ।। ६० ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौवनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मी की हार

तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह

 

श्रीशुक उवाच

इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः

स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः १

तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः

तस्थुस्तत्सम्मुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते २

अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थेऽस्त्र कोविदाः

मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा ३

पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा

सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना ४

प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने

विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत्तावकैः शात्रवं बलम् ५

तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः

अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान्रथान् ६

पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि

सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः ७

हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः

अश्वाश्वतरनागोष्ट्र खरमर्त्यशिरांसि च ८

हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः

राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः ९

शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्

नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन् १०

भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज

न प्रियाप्रिययो राजन्निष्ठा देहिषु दृश्यते ११

यथा दारुमयी योषित्नृत्यते कुहकेच्छया

एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः १२

शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः

त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्ये एकमहं परम् १३

तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्

कालेन दैवयुक्तेन जानन्विद्रावितं जगत् १४

अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः

पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः १५

रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि

तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः १६

 

श्रीशुक उवाच

एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात्सानुगः पुरम्

हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः १७

रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन्स्वसुः

पृष्ठतोऽन्वगमत्कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली १८

रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्

प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः १९

अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्

कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि वः २०

इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः

चोदयाश्वान्यतः कृष्णः तस्य मे संयुगं भवेत् २१

अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः

नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता २२

विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्

रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत् २३

धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः

आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन २४

यत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः

हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः २५

यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्

स्मयन्कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम् २६

अष्टभिश्चतुरो वाहान्द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः

स चान्यद्धनुराधाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः २७

तैस्तादितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः

पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः २८

परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ

यद्यदायुधमादत्त तत्सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः २९

ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया

कृष्णमभ्यद्रवत्क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम् ३०

तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः

छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः ३१

दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला

पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती ३२

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

योगेश्वराप्रमेयात्मन्देवदेव जगत्पते

हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे दौड़े ।। १ ।। राजन् ! जब यदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुष का टङ्कार किया और घूमकर उनके सामने डट गये ।। २ ।। जरासन्ध की सेनाके लोग कोई घोड़े पर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों ।। ३ ।।

परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा ।। ४ ।। भगवान्‌ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी ! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है।। ५ ।। इधर गद और सङ्कर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको छिन्न-भिन्न करने लगे ।। ६ ।। उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगडिय़ोंसे सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके सिर भी कट-कटकर रणभूमिमें लोटने लगे ।। ७-८ ।। अन्तमें विजयकी सच्ची आकाङ्क्षावाले यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए ।। ९ ।।

उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नीके छिन जानेके कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदयमें उत्साह रह गया था और न तो शरीरपर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कहने लगा।। १० ।। शिशुपालजी ! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं। यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन् ! कोई भी बात सर्वदा अपने मनके अनुकूल ही हो या प्रतिकूल ही हो, इस सम्बन्धमें कुछ स्थिरता किसी भी प्राणीके जीवनमें नहीं देखी जाती ।। ११ ।। जैसे कठपुतली बाजीगरकी इच्छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छाके अधीन रहकर सुख और दु:खके सम्बन्धमें यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है ।। १२ ।। देखिये, श्रीकृष्णने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओंके साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बारअठारहवीं बार उनपर विजय प्राप्त की ।। १३ ।। फिर भी इस बातको लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्धके अनुसार कालभगवान्‌ ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते हैं ।। १४ ।। इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियोंके भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंकी थोड़ी-सी सेनाने हमें हरा दिया है ।। १५ ।। इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे।। १६ ।। परीक्षित्‌ ! जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये ।। १७ ।।

रुक्मिणीजीका बड़ा भाई रुक्मी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिनको श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया ।। १८ ।। महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियोंके सामने यह प्रतिज्ञा की।। १९ ।। मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।। २० ।। परीक्षित्‌ ! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सारथिसे बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा ।। २१ ।। आज मैं अपने तीखे बाणोंसे उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बलवीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिन को बलपूर्वक हर ले गया है।। २२ ।। परीक्षित्‌ ! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान्‌ के तेजष प्रभावको बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह ! खड़ा रह !।। २३ ।। उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर ! यदुवंशियोंके कुलकलङ्क ! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है ? अरे मन्द ! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्धमें कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ ।। २४-२५ ।। देख ! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोडक़र भाग जा।रुक्मीकी बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छ: बाण छोड़े ।। २६ ।। साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष उठाया और भगवान्‌ श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे ।। २७ ।। उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परंतु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला ।। २८ ।। इस प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमरजितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभीको भगवान्‌ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला ।। २९ ।। अब रुक्मी क्रोधवश हाथमें तलवार लेकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतंगा आगकी ओर लपकता है ।। ३० ।। जब भगवान्‌ ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली ।। ३१ ।। जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण- स्वरमें बोलीं।। ३२ ।। देवताओंके भी आराध्यदेव ! जगत्पते ! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं। परंतु कल्याण-स्वरूप भी तो हैं। प्रभो ! मेरे भैयाको मारना आपके योग्य काम नहीं है।। ३३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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