सोमवार, 7 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

 

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ

अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम् १९

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्

पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा २०

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना

चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम् २१

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्

वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते २२

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना

कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज २३

अहं वैदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम

इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदुनन्दनः २४

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः

अर्हयां आस विधिवदर्हणीयं समर्हणैः २५

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः

मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना

ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः २६

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः

अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः २७

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै

साकं सुहृद्भिर्भगवान्या याः स्युः साम्परायिकीः २८

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्

व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ २९

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्

शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः ३०

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्

मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम् ३१

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै

स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु ३२

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह

देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः ३३

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्

इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः ३४

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः

विज्ञताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह ३५

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना

स्यमन्तको मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः ३६

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः

दायं निनीयापः पिण्डान्विमुच्यर्णं च शेषितम् ३७

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः

किन्तु मामग्रजः सम्यङ्न प्रत्येति मणिं प्रति ३८

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह

अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ३९

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्

आदाय वाससाच्छन्नः ददौ सूर्यसमप्रभम् ४०

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः

विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः ४१

यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्

वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च

आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा

दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ४२

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वा का पीछा किया ।। १९ ।। मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोडक़र पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ।। २० ।। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान्‌ने भी पैदल ही दौडक़र अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा ।। २१ ।। परंतु जब मणि मिली नहीं तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं।। २२ ।। बलरामजीने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ ।। २३ ।। मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।परीक्षित्‌ ! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये ।। २४ ।। जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की ।। २५ ।। इसके बाद भगवान्‌ बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की ।। २६ ।। अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परंतु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।। २७ ।। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित्की वे सब औध्र्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है ।। २८ ।।

अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित्के वधके लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए ।। २९ ।। परीक्षित्‌ ! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर द्वारका-वासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परंतु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।। ३०-३१ ।। उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।परीक्षित्‌ ! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान्‌ने सोचा कि इस उपद्रवका यही कारण नहीं है, यह जानकर भी भगवान्‌ ने दूत भेजकर अक्रूरजी को ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की ।। ३२३४ ।। भगवान्‌ ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा।। ३५ ।। चाचाजी ! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ।। ३६ ।। आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लडक़ी के लडक़ेउनके नाती ही उन्हें तिलाञ्जलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ।। ३७ ।। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परंतु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते ।। ३८ ।। इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्रबलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका सञ्चार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं।। ३९ ।। परीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान्‌ श्रीकृष्णको दे दी ।। ४० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलङ्क दूर किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुन: अक्रूरजीको लौटा दिया ।। ४१ ।।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलङ्कोंका मार्जन करनेवाला तथा परम मङ्गलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापोंसे छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ।। ४२ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्

कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून् १

भीष्मं कृपं स विदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च

तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः २

लब्ध्वैतदन्तरं राजन्शतधन्वानमूचतुः

अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते ३

योऽस्मभ्यं सम्प्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः

कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात् ४

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः

शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः ५

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्

हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ६

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता

व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती ७

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्

कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम् ८

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्

अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः ९

आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम्

शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः १०

सोऽपि कृतोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया

साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत् ११

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः

को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन् १२

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया

जरासन्धः सप्तदश संयुगाद्विरथो गतः १३

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत

सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम् १४

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च

चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया १५

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना

दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः १६

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे

अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः १७

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्

तस्मिन्न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ १८

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण को इस बातका पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये ।। १ ।। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदनासहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे—‘हाय-हाय ! यह तो बड़े ही दु:खकी बात हुई।। २ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा—‘तुम सत्राजित्से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? ।। ३ ।। सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय ?’ ।। ४ ।। शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित्को मार डाला ।। ५ ।। इस समय स्त्रियाँ अनाथके समान रोने चिल्लाने लगीं; परंतु शतधन्वाने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओंकी हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँसे चम्पत हो गया ।। ६ ।।

सत्यभामाजी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिताजी ! हाय पिताजी ! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच- बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं ।। ७ ।। इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं। उन्होंने बड़े दु:खसे भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनायायद्यपि इन बातोंको भगवान्‌ श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे ।। ८ ।। परीक्षित्‌ ! सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि अहो ! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी !।। ९ ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे ।। १० ।।

जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी। तब कृतवर्माने कहा।। ११ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? ।। १२ ।। तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था।। १३ ।। जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टकत्ता-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान्‌ खेल-खेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैंइस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्व-विधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामेंजब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाडक़र हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।। १४१७ ।। जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा ।। १८ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



रविवार, 6 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामा

के साथ श्रीकृष्णका विवाह

 

ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसावृतम्

एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः १९

तत्र दृष्ट्वा मणिप्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्

हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकान्तिके २०

तमपूर्वं नरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्

तच्छ्रुत्वाभ्यद्रवत्क्रुद्धो जाम्बवान्बलिनां वरः २१

स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः

पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित् २२

द्वन्द्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः

आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव २३

आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः

वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम् २४

कृष्णमुष्टिविनिष्पात निष्पिष्टाङ्गोरु बन्धनः

क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः २५

जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्

विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम् २६

त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृष्टानामपि यच्च सत्

कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम् २७

यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षैर्

वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिङ्गलोऽब्धिः

सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लङ्का

रक्षःशिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि २८

इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः

व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुतः २९

अभिमृश्यारविन्दाक्षः पाणिना शंकरेण तम्

कृपया परया भक्तं मेघगम्भीरया गिरा ३०

मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्

मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना ३१

इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा

अर्हणार्थं स मणिना कृष्णायोपजहार ह ३२

अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः प्रविष्टस्य बिलं जनाः

प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः ३३

निशम्य देवकी देवी रुक्मिण्यानकदुन्दुभिः

सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन्बिलात्कृष्णमनिर्गतम् ३४

सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारकौकसः

उपतस्थुश्चन्द्र भागां दुर्गां कृष्णोपलब्धये ३५

तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च

प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन्हरिः ३६

उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्

सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः ३७

सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ

प्राप्तिं चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्यवेदयत् ३८

स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वावाङ्मुखस्ततः

अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना ३९

सोऽनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्विग्रहाकुलः

कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाच्युतः कथम् ४०

किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा

अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम् ४१

दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च

उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा ४२

एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्

मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह ४३

तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि

बहुभिर्याचितां शील रूपौदार्यगुणान्विताम् ४४

भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप

तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः ४५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराजकी भयङ्कर गुफामें प्रवेश किया ।। १९ ।। भगवान्‌ ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके पास जा खड़े हुए ।। २० ।। उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये ।। २१ ।। परीक्षित्‌ ! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान्‌ की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे युद्ध करने लगे ।। २२ ।। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान्‌ श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्र प्रहार किया, फिर शिलाओंका। तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाडक़र एक-दूसरे पर फेंकने लगे। अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! वज्र-प्रहारके समान कठोर घूसों से आपस में वे अठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ।। २४ ।। अन्तमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके घूसों की चोटसे जाम्बवान्के शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मितचकित होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा।। २५ ।। प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान्‌ विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं ।। २६ ।। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए पदार्थोंमें भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं ।। २७ ।। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घडिय़ाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लङ्का का विध्वंस किया। आपके बाणोंसे कट-कटकर राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही रामजीश्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)।। २८ ।। परीक्षित्‌ ! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान्‌ को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम गम्भीर वाणीसे अपने भक्त जाम्बवान् जी से कहा।। २९-३० ।। ऋक्षराज ! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं। इस मणिके द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलङ्क को मिटाना चाहता हूँ।। ३१ ।। भगवान्‌के ऐसा कहनेपर जाम्बवान्ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।। ३२ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की। परंतु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुखी होकर द्वारका को लौट गये ।। ३३ ।। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफामें से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ।। ३४ ।। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दु:खित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे ।। ३५ ।। उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुर्ईं और उन्होंने आर्शीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीचमें मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ।। ३६ ।। सभी द्वारकावासी भगवान्‌ श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्दमें मग्र हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।। ३७ ।।

तदनन्तर भगवान्‌ने सत्राजित् को  राजसभामें महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित्को सौंप दी ।। ३८ ।। सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परंतु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।। ३९ ।। उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान् के साथ विरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ ? मुझपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ।। ४० ।। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धनके लोभसे मैं बड़ी मूढ़ताका काम कर बैठा ।। ४१ ।। अब मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्णको दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है।। ४२ ।। सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं ।। ४३ ।। सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न थीं। बहुतसे लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगोंने उन्हें माँगा भी था। परंतु अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया ।। ४४ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने सत्राजित्से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान्‌ के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।। ४५ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामा

के साथ श्रीकृष्णका विवाह

 

श्रीशुक उवाच

सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः

स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् १

 

श्रीराजोवाच

सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन्कृष्णस्य किल्बिषः

स्यमन्तकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः २

 

श्रीशुक उवाच

आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा

प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्स च तुष्टः स्यमन्तकम् ३

स तं बिभ्रन्मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रविः

प्रविष्टो द्वारकां राजन्तेजसा नोपलक्षितः ४

तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः

दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशङ्किताः ५

नारायण नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर

दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ६

एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते

मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः ७

नन्वन्विच्छन्ति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः

ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो ८

 

श्रीशुक उवाच

निशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचनः

प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन् ९

सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमङ्गलम्

प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत् १०

दिने दिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो

दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः

न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः ११

स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा

नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभङ्गमतर्कयन् १२

तमेकदा मणिं कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्

प्रसेनो हयमारुह्य मृगायां व्यचरद्वने १३

प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केशरी

गिरिं विशन्जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता १४

सोऽपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले

अपश्यन्भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत १५

प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः

भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णे कर्णेऽजपन्जनाः १६

भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि

मार्ष्टुं प्रसेनपदवीमन्वपद्यत नागरैः १७

हतं प्रसेनं अश्वं च वीक्ष्य केशरिणा वने

तं चाद्रि पृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः १८

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सत्राजित् ने श्रीकृष्णको झूठा कलङ्क लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणिसहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान्‌ श्रीकृष्ण को सौंप दी ।। १ ।।

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! सत्राजित् ने भगवान्‌ श्रीकृष्णका क्या अपराध किया था ? उसे स्यमन्तकमणि कहाँसे मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ? ।। २ ।।

श्रीशुकदेवजी ने कहापरीक्षित्‌ ! सत्राजित् भगवान्‌ सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान्‌ ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे स्यमन्तकमणि दी थी ।। ३ ।। सत्राजित् उस मणिको गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित्‌ ! जब सत्राजित् द्वारका में आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके ।। ४ ।। दूरसे ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं। लोगोंने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान्‌ सूर्य आ रहे हैं। उन लोगोंने भगवान्‌ के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना दी। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ।। ५ ।। लोगोंने कहा— ‘शङ्ख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है ।। ६ ।। जगदीश्वर ! देखिये ! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान्‌ सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ।। ७ ।। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।। ८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है, जो मणिके कारण इतना चमक रहा है।। ९ ।। इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया। घरपर उसके शुभागमन के उपलक्ष्यमें मङ्गल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तकमणि को एक देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया ।। १० ।। परीक्षित्‌ ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[*]  सोना दिया करती थी । और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था ।। ११ ।। एक बार भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने प्रसङ्गवश कहा—‘सत्राजित् ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।परंतु वह इतना अर्थलोलुपलोभी था कि भगवान्‌ की आज्ञाका उल्लङ्घन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।। १२ ।।

एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गलेमें धारण कर लिया और फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया ।। १३ ।। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणिको छीन लिया। वह अभी पर्वतकी गुफामें प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला ।। १४ ।। उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। अपने भाई प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित्- को बड़ा दु:ख हुआ ।। १५ ।। वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको मार डाला हो। क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था। सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपसमें काना-फूँसी करने लगे ।। १६ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने सुना कि यह कलङ्क का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढऩेके लिये वनमें गये ।। १७ ।। वहाँ खोजते-खोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें ङ्क्षसहने प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है। जब वे लोग ङ्क्षसहके पैरोंका चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला है ।। १८ ।।

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[*] भार का परिमाण इस प्रकार है

 चतुर्भीव्रीहिर्भिर्गुञ्जं गुञ्जान्पञ्च पणं पणान् ।।

अष्टौ धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुर: पलम् ।।

तुलां पलशतं प्राहुर्भारं स्याद्विंशतिस्तुला: ।।

 

अर्थात् चार व्रीहि (धान)की एक गुञ्जा, पाँच गुञ्जा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरणका एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पलकी एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...