बुधवार, 9 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ

भगवान्‌ का विवाह

 

श्रीराजोवाच -

यथा हतो भगवता भौमो येने च ताः स्त्रियः ।

 निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इन्द्रेण हृतछत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना ।

 हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम् ।

 सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ ॥ २ ॥

 गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैः जलाग्न्यनिलदुर्गमम् ।

 मुरपाशायुतैर्घोरैः दृढैः सर्वत आवृतम् ॥ ३ ॥

 गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः ।

 चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना ॥ ४ ॥

 शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम् ।

 प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः ॥ ५ ॥

 पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्तशनिभीषणम् ।

 मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात् ॥ ६ ॥

त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो

     युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः ।

 ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखैः

     अभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः ॥ ७ ॥

 आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते

     निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत् स पञ्चभिः ।

 स रोदसी सर्वदिशोऽन्तरं महान्

     आपूरयन् अण्डकटाहमावृणोत् ॥ ८ ॥

 तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते

     हरिः शराभ्यां अभिनत्त्रिधौजसा ।

 मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्

     तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत ॥ ९ ॥

 तामापतन्तीं गदया गदां मृधे

     गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा ।

 उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः

     शिरांसि चक्रेण जहार लीलया ॥ १० ॥

 व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो

     निकृत्तशृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा ।

 तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः

     प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः ॥ ११ ॥

 ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसुः

     वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः ।

 पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे

     भौमप्रयुक्ता निरग धृतायुधाः ॥ १२ ॥

 प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः

     शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः ।

 तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणैः

     अमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह ॥ १३ ॥

 तान्पीठमुख्याननयद् यमक्षयं

     निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः ।

 स्वानीकपानच्युतचक्रसायकैः

     तथा निरस्तान् नरको धरासुतः ॥ १४ ॥

निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदैः

     गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमात् ।

 दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं

     सूर्योपरिष्टात् सतडिद्‌घनं यथा ।

 कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं

     योधाश्च सर्वे युगपत् च विव्यधुः ॥ १५ ॥

 तद्‌भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो

     विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः ।

 निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं

     चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम् ॥ १६ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने भौमासुरको, जिसने उन स्त्रियोंको बंदीगृहमें डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके शार्ङ्ग-धनुषधारी भगवान्‌ श्रीकृष्णका वह विचित्र चरित्र सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! भौमासुरने वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको सुनायी। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये ।। २ ।। प्राग्ज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था। फिर जलसे भरी खार्ईं थी, उसके बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे ।। ३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रोंकी मोरचेबंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्रके द्वारा अग्रि, जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया ।। ४ ।। जो बड़े-बड़े यन्त्रमशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीर-पुरुषोंके हृदयको शङ्खनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधरभगवान्‌ने अपनी भारी गदासे ध्वंस कर डाला ।। ५ ।।

भगवान्‌ के पाञ्चजन्य शङ्खकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कडक़ के समान महाभयङ्कर थी। उसे सुनकर मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अबतक वह जलके भीतर सो रहा था ।। ६ ।। वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्रिके समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयङ्कर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान्‌की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुडज़ीपर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखोंसे त्रिलोकीको निगल जायगा ।। ७ ।। उसने अपने त्रिशूलको बड़े वेगसे घुमाकर गरुडज़ीपर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखोंसे घोर सिंहनाद करने लगा। उसके सिंहनाद का महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओंमें फैलकर सारे ब्रह्माण्डमें भर गया ।। ८ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुडक़ी ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान्‌ ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान्‌ पर अपनी गदा चलायी ।। ९ ।। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे उसके पाँचों सिर उतार लिये ।। १० ।। सिर कटते ही मुर दैत्यके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जलमें गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके वज्रसे शिखर कट जानेपर कोई पर्वत समुद्रमें गिर पड़ा हो। मुर दैत्यके सात पुत्र थेताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण। ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेनेके लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्णपर चढ़ आये ।। ११-१२ ।। वे वहाँ आकर बड़े क्रोधसे भगवान्‌ श्रीकृष्णपर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌की शक्ति अमोघ और अनन्त है। उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये ।। १३ ।। भगवान्‌ के शस्त्रप्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्योंके सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान्‌ ने यमराज के घर पहुँचा दिया। जब पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ। वह समुद्रतटपर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियोंकी सेना लेकर नगरसे बाहर निकला। उसने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो। भौमासुर ने स्वयं भगवान्‌ के ऊपर शतघ्नी नाम की शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े ।। १४-१५ ।। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे। इससे उसी समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे ।। १६ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

 

श्रीशुक उवाच

तमाह भगवान्हृष्टः कृतासनपरिग्रहः

मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन ३९

 

श्रीभगवानुवाच

नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता

राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः

तथापि याचे तव सौहृदेच्छया

कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम् ४०

 

श्रीराजोवाच

कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः

गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी ४१

किन्त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ

पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया ४२

सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः

एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः ४३

यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन

वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियःपते ४४

एवं समयमाकर्ण्य बद्ध्वा परिकरं प्रभुः

आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान् ४५

बद्ध्वा तान्दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान्हतौजसः

व्यकर्षल्लीलया बद्धान्बालो दारुमयान्यथा ४६

ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः

तां प्रत्यगृह्णाद्भगवान्विधिवत्सदृशीं प्रभुः ४७

राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्

लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः ४८

शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः

नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासःस्रगलङ्कृताः ४९

दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद्विभुः

युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवाससम् ५०

नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान्रथान्

रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान्नरान् ५१

दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ

स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोशलः ५२

श्रुत्वैतद्रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्

भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा ५३

तानस्यतः शरव्रातान्बन्धुप्रियकृदर्जुनः

गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव ५४

पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया

रेमे यदूनामृषभो भगवान्देवकीसुतः ५५

श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रां उपयेमे पितृष्वसुः

कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः ५६

सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्

स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव ५७

अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन्सहस्रशः

भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः ५८

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा नग्नजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा ।। ३९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाराजन् ! जो क्षत्रिय अपने धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्दकाप्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है ।। ४० ।।

राजा नग्नजित् ने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त गुणोंके धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्ष:स्थलपर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आप से बढक़र कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है ? ।। ४१ ।। परंतु यदुवंशशिरोमणे ! हमने पहले ही इस विषयमें एक प्रण कर लिया है। कन्याके लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा हैइत्यादि बातें जाननेके लिये ही ऐसा किया गया है ।। ४२ ।। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! हमारे ये सातों बैल किसीके वशमें न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारों के अङ्गों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है ।। ४३ ।। श्रीकृष्ण ! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते ! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे ।। ४४ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा नग्नजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें ही उन बैलों को नाथ लिया ।। ४५ ।। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा- सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है ।। ४६ ।। राजा नग्नजित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया ।। ४७ ।। रानियोंने देखा कि हमारी कन्याको उसके अत्यन्त प्यारे भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही पतिके रूपमें प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा ।। ४८ ।। शङ्ख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पोंके हार और गहनोंसे सज-धजकर नगरके नर-नारी आनन्द मनाने लगे ।। ४९ ।। राजा नग्रजित्ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेजमें दीं। इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजमें दिये ।। ५०-५१ ।। कोसलनरेश राजा नग्नजित् ने कन्या और दामाद को रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहके उद्रेकसे द्रवित हो रहा था ।। ५२ ।।

परीक्षित्‌ ! यदुवंशियोंने और राजा नग्नजित् के  बैलोंने पहले बहुत-से राजाओंका बल-पौरुष धूलमें मिला दिया था। जब उन राजाओंने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह विजय सहन न हुई। उन लोगोंने नाग्नजिती सत्याको लेकर जाते समय मार्गमें भगवान्‌ श्रीकृष्णको घेर लिया ।। ५३ ।। और वे बड़े वेगसे उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुनने अपने मित्र भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये गाण्डीव धनुष धारण करकेजैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओंको खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियोंको मारपीटकर भगा दिया ।। ५४ ।। तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्याके साथ द्वारकामें आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे ।। ५५ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं। उनकी कन्याका नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान्‌ श्रीकृष्णको दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया ।। ५६ ।। मद्रप्रदेश के राजाकी एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुडऩे स्वर्ग से अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में अकेले ही उसे हर लिया ।। ५७ ।।

परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे ।। ५८ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धेऽष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 8 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

 

श्रीकालिन्द्युवाच

अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती

विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थितः २०

नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्

तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः २१

कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले

निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम् २२

तथावदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्

रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्मराजमुपागमत् २३

यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम्

कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा २४

भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया

अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्याथ सारथिः २५

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्ध्यान्श्वेतान्रथं नृप

अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः २६

मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्

यस्मिन्दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः २७

स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमोदितः

आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः २८

अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते

वितन्वन्परमानन्दं स्वानां परममङ्गलः २९

विन्द्यानुविन्द्यावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ

स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम् ३०

राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः

प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्राज्ञां प्रपश्यताम् ३१

नग्नजिन्नाम कौशल्य आसीद्राजातिधार्मिकः

तस्य सत्याभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप ३२

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्तगोवृषान्

तीक्ष्णशृङ्गान्सुदुर्धर्षान्वीर्यगन्धासहान्खलान् ३३

तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान्सात्वतां पतिः

जगाम कौशल्यपुरं सैन्येन महता वृतः ३४

स कोशलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः

अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन्प्रतिनन्दितः ३५

वरं विलोक्याभिमतं समागतं

नरेन्द्र कन्या चकमे रमापतिम्

भूयादयं मे पतिराशिषोऽमला:

करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः ३६

यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति

श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः

लीलातनुः स्वकृतसेतुपरीप्सयेश:

कालेऽदधत्स भगवान्मम केन तुष्येत् ३७

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते

आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः ३८

 

कालिन्दीने कहा—‘मैं भगवान्‌ सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान्‌ विष्णु को पति के रूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ ।। २० ।। वीर अर्जुन ! मैं लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान्‌ को छोडक़र और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथोंके एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ।। २१ ।। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजल में मेरे पिता सूर्यने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसीमें मैं रहती हूँ। जबतक भगवान्‌ का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी।। २२ ।। अर्जुनने जाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं। वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये ।। २३ ।।

इसके बाद पाण्डवोंकी प्रार्थनासे भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंके रहनेके लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्माके द्वारा बनवा दिया ।। २४ ।। भगवान्‌ इस बार पाण्डवोंको आनन्द देने और उनका हित करनेके लिये वहाँ बहुत दिनोंतक रहे। इसी बीच अग्रिदेवको खाण्डव- वन दिलानेके लिये वे अर्जुनके सारथि भी बने ।। २५ ।। खाण्डव-वनका भोजन मिल जानेसे अग्रिदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुनको गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके ।। २६ ।। खाण्डव-दाहके समय अर्जुनने मय दानवको जलनेसे बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुनसे मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभामें दुर्योधनको जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम हो गया था ।। २७ ।।

कुछ दिनोंके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनकी अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियोंका अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदिके साथ द्वारका लौट आये ।। २८ ।। वहाँ आकर उन्होंने विवाहके योग्य ऋतु और ज्यौतिषशास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्रमें कालिन्दीजीका पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियोंको परम मङ्गल और परमानन्दकी प्राप्ति हुई ।। २९ ।।

अवन्ती (उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा। परंतु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिनको रोक दिया ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजाओंकी भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।। ३१ ।।

परीक्षित्‌ ! कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम था सत्या; नग्नजित्  पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित्‌ ! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे ।। ३२-३३ ।। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे ।। ३४ ।। कोसलनरेश महाराज नग्रजित्ने बड़ी प्रसन्नतासे उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया। भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया ।। ३५ ।। राजा नग्नजित् की कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि यदि मैंने व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें।। ३६ ।। नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शङ्कर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपङ्कज का पराग अपने सिरपर धारण करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय- समयपर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं।। ३७ ।। परीक्षित्‌ ! राजा नग्नजित ने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत् के एकमात्र स्वामी नारायण ! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ ।। ३८ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहों की कथा

 

श्रीशुक उवाच

एकदा पाण्डवान्द्रष्टुं प्रतीतान्पुरुषोत्तमः

इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान्युयुधानादिभिर्वृतः १

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम्

उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम् २

परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः

सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः ३

युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्

फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः ४

परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता

नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत ५

तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः

निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत ६

पृथाम्समागत्य कृताभिवादन-

स्तयातिहार्दार्द्र दृशाभिरम्भितः

आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां

पितृष्वसारम्परिपृष्टबान्धवः ७

तमाह प्रेमवैक्लव्य रुद्धकण्ठाश्रुलोचना

स्मरन्ती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम् ८

तदैव कुशलं नोऽभूत्सनाथास्ते कृता वयम्

ज्ञातीन्नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया ९

न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः

तथापि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थितः १०

 

युधिष्ठिर उवाच

किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर

योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम् ११

इति वै वार्षिकान्मासान्राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्

जनयन्नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः १२

एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्

गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ १३

साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं महत्

बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा १४

तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान्शूकरान्महिषान्रुरून्

शरभान्गवयान्खड्गान्हरिणान्शशशल्लकान् १५

तान्निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते

तृट्परीतः परिश्रान्तो बिभत्सुर्यमुनामगात् १६

तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ

कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम् १७

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्

पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम् १८

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतो वा किं चिकीर्षसि

मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब पाण्डवोंका पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे ।। १ ।। जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राणका सञ्चार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए ।। २ ।। वीर पाण्डवोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया, उनके अङ्ग-सङ्ग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान्‌की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्र हो गये ।। ३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और अर्जुनको हृदयसे लगाया। नकुल और सहदेवने भगवान्‌ के चरणोंकी वन्दना की ।। ४ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान्‌ श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया ।। ५ ।। पाण्डवोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का भी स्वागत- सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसनपर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्णके चारों ओर आसनोंपर बैठ गये ।। ६ ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी कुशल-क्षेम पूछी और भगवान्‌ ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मङ्गल पूछा ।। ७ ।। उस समय प्रेमकी विह्वलतासे कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे। भगवान्‌ के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके कलेश-पर-कलेश याद आने लगे और वे अपनेको बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त कलेशोंका अन्त करनेके लिये ही हुआ करता है, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहने लगीं।। ८ ।। श्रीकृष्ण ! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मङ्गल जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया ।। ९ ।। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत्के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होनेपर भी, श्रीकृष्ण ! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी कलेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो।। १० ।।

युधिष्ठिरजीने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ! हमें इस बातका पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मोंमें या इस जन्ममें कौन-सा कल्याण-साधन किया है ? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं।। ११ ।। राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान्‌ का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे ।। १२ ।। परीक्षित्‌ ! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन वनमें शिकार खेलने गये, जो बहुतसे ङ्क्षसह, बाघ आदि भयङ्कर जानवरोंसे भरा हुआ था ।। १३-१४ ।। वहाँ उन्होंने बहुतसे बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंगका एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आद पशुओंपर अपने बाणोंका निशाना लगाया ।। १५ ।। उनमेंसे जो यज्ञके योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्वका समय जानकर राजा युधिष्ठिरके पास ले गये। अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगनेपर यमुनाजीके किनारे गये ।। १६ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियोंने यमुनाजीमें हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है ।। १७ ।। उस श्रेष्ठ सुन्दरीकी जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्णके भेजनेपर अर्जुनने उसके पास जाकर पूछा।। १८ ।। सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? कहाँसे आयी हो ? और क्या करना चाहती हो ? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि ! तुम अपनी सारी बात बतलाओ।। १९ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...