रविवार, 13 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की सन्तति का वर्णन तथा

अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना

 

श्रीशुक उवाच

वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया

राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि २२

यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः

व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम् २३

रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली

उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल २४

दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्याददाद्धरेः

रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया

जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः २५

तस्मिन्नभ्युदये राजन्रुक्मिणी रामकेशवौ

पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः २६

तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः

दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय २७

अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्

इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षैर्रुक्म्यदीव्यत २८

शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्

तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद्बलम्

दन्तान्सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः २९

ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद्ग्लहं तत्राजयद्बलः

जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः ३०

मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि

जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे ३१

तं चापि जितवान्रामो धर्मेण छलमाश्रितः

रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति ३२

तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः

धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा ३३

तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः

सङ्कर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः ३४

नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः

अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः ३५

रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः

क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि ३६

कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे

दन्तानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः ३७

अन्ये निर्भिन्नबाहूरु शिरसो रुधिरोक्षिताः

राजानो दुद्रवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः ३८

निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा

रक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभङ्गभयाद्धरिः ३९

ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं

रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्

रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः

सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ४०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रद्युम्न जी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्रजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।। २२ ।। यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्णसे अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्न को अपनी बेटी ब्याह दी ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! दस पुत्रोंके अतिरिक्त रुक्मिणीजीके एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने उसके साथ विवाह किया ।। २४ ।।

परीक्षित्‌ ! रुक्मीका भगवान्‌ श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाह-सम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे ।। २६ ।। जब विवाहोत्सव निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब कलिङ्गनरेश आदि घमंडी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो ।। २७ ।। राजन् ! बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा ।। २८ ।। बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत होनेपर कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये ।। २९ ।। इसके बाद रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया। परंतु रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि मैंने जीता है।। ३० ।। इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदयमें इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधके मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा ।। ३१ ।। इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई। परंतु रुक्मीने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिङ्गनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।। ३२ ।। उस समय आकाशवाणीने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।। ३३ ।। एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा।। ३४ ।। बलरामजी ! आखिर आपलोग वन- वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे ! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणोंसे तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं।। ३५ ।। रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस माङ्गलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला ।। ३६ ।। पहले कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परंतु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोधसे उसके दाँत तोड़ डाले ।। ३७ ।। बलरामजी ने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने ।। ३८ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करनेसे रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मीकी मृत्युपर भला-बुरा कुछ भी न कहा ।। ३९ ।। इसके बाद अनिरुद्धजीका विवाह और शत्रुका वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर भगवान्‌के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचनाके साथ अनिरुद्धजीको श्रेष्ठ रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे द्वारकापुरीको चले आये ।। ४० ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की सन्तति का वर्णन तथा

अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना

 

श्रीशुक उवाच

एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान्दश दशाबलाः

अजीजनन्ननवमान्पितुः सर्वात्मसम्पदा १

गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्

प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः २

चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र

सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः

सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं

स्वैर्विभ्रमैः समशकन्वनिता विभूम्नः ३

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि

भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः

पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैर्

यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः ४

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता

ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्

भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग

हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम् ५

प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच

ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः

केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः

दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ६

तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः

अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्गृणामि ते ७

चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्

सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः ८

चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः

प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः ९

भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा

चन्द्र भानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः १०

श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश

साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित् ११

विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविडः क्रतुः

जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसम्मताः १२

वीरश्चन्द्रो ऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान्वृषः

आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान्कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः १३

श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः

शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः १४

प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः

माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः १५

वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च

महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः १६

सङ्ग्रामजिद्बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्

जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः १७

दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः

प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः

पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे १८

एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप

मातरः कृष्णजातीनां सहस्राणि च षोडश १९

 

श्रीराजोवाच

कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद्दुहितरं युधि

कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते

एतदाख्याहि मे विद्वन्द्विषोर्वैवाहिकं मिथः २०

अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्

विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक्पश्यन्ति योगिनः २१

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणोंमें अपने पिता भगवान्‌ श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।। १ ।। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमारे महलसे कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्णको मैं ही सबसे प्यारी हूँ। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान्‌ श्रीकृष्णका तत्त्वउनकी महिमा नहीं समझती थीं ।। २ ।। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस स्थित भगवान्‌ श्रीकृष्ण के कमल-कलीके समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणीसे स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने शृङ्गारसम्बन्धी हावभावोंसे उनके मनको अपनी ओर खींचनेमें समर्थ न हो सकीं ।। ३ ।। वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त मनोहर भौंहोंके इशारेसे ऐसे प्रेमके बाण चलाती थीं, जो काम-कलाके भावोंसे परिपूर्ण होते थे, परंतु किसी भी प्रकारसे, किन्हीं साधनोंके द्वारा वे भगवान्‌ के मन एवं इन्द्रियोंमें चञ्चलता नहीं उत्पन्न कर सकीं ।। ४ ।। परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्‌ के वास्तविक स्वरूपको या उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागमकी लालसा आदिसे भगवान्‌ की सेवा करती रहती थीं ।। ५ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महलमें भगवान्‌ पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने हाथों भगवान्‌की सेवा करतीं ।। ६ ।।

परीक्षित्‌ ! मैं कह चुका हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके दस-दस पुत्र थे। उन रानियोंमें आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाहका वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्र आदि पुत्रोंका वर्णन करता हूँ ।। ७ ।। रुक्मिणीके गर्भसे दस पुत्र हुएप्रद्युम्र, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान्‌ श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।। ८-९ ।। सत्यभामाके भी दस पुत्र थेभानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवतीके भी साम्ब आदि दस पुत्र थेसाम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्णको बहुत प्यारे थे ।। १०१२ ।। नाग्रजिती सत्याके भी दस पुत्र हुएवीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शङ्कु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति ।। १३ ।। कालिन्दीके दस पुत्र ये थेश्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोटा सोमक ।। १४ ।। मद्रदेशकी राजकुमारी लक्ष्मणाके गर्भसे प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजितका जन्म हुआ ।। १५ ।। मित्रविन्दा के पुत्र थेवृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और क्षुधि ।। १६ ।। भद्राके पुत्र थेसंग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक ।। १७ ।। इन पटरानियोंके अतिरिक्त भगवान्‌की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नका मायावती रतिके अतिरिक्त भोजकट-नगरनिवासी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे भी विवाह हुआ था। उसीके गर्भसे परम बलशाली अनिरुद्धका जन्म हुआ। परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णके पुत्रोंकी माताएँ ही सोलह हजारसे अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी ।। १८-१९ ।।

राजा परीक्षित्‌ ने पूछापरम ज्ञानी मुनीश्वर ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने रणभूमिमें रुक्मीका बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बातकी घातमें रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थितिमें उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रुके पुत्र प्रद्युम्नजीको कैसे ब्याह दी ? कृपा करके बतलाइये ! दो शत्रुओंमेंश्रीकृष्ण और रुक्मीमें फिरसे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? ।। २० ।। आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहतीं; जो इन्द्रियोंसे परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीचमें किसी वस्तुकी आड़ होनेके कारण नहीं दीखतीं ।। २१ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



शनिवार, 12 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीभगवानुवाच

साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्री प्रलम्भिता

मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत्सत्यमेव हि ४९

यान्यान्कामयसे कामान्मय्यकामाय भामिनि

सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यद ५०

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे

यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता ५१

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया

कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया ५२

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं

वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्

ते मन्दभागा निरयेऽपि ये नृणां

मात्रात्मकत्वात्निरयः सुसङ्गमः ५३

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया

कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः

सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो

ह्यसुंभराया निकृतिं जुषः स्त्रियाः ५४

न त्वादृशीम्प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु

पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले

प्राप्तान्नृपान्न विगणय्य रहोहरो मे

प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य ५५

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य

प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्

दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या

नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते ५६

दूतस्त्वयात्मलभने सुविविक्तमन्त्रः

प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्

मत्वा जिहास इदं अङ्गमनन्ययोग्यं

तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः ५७

 

श्रीशुक उवाच

एवं सौरतसंलापैर्भगवान्जगदीश्वरः

स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन् ५८

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव

आस्थितो गृहमेधीयान्धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः ५९

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहासाध्वी! राजकुमारी ! यही बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी- हँसीमें तुम्हारी वञ्चना की थी, तुम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरश: सत्य है ।। ४९ ।। सुन्दरी ! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं ।। ५० ।। पुण्यमयी प्रिये ! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परंतु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई ।। ५१ ।। प्रिये ! मैं मोक्षका स्वामी हूँ। लोगोंको संसार-सागरसे पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी मायासे मोहित हैं।। ५२ ।। मानिनी प्रिये ! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरकमें और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं। परंतु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है,इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है ।। ५३ ।। गृहेश्वरी प्राणप्रिये ! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियोंका चित्त दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहनेके कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है ।।५४।। मानिनि ! मुझे अपने घरभर में तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाह में आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था ।। ५५ ।। तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलरामजी ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशङ्का से तुमने चुपचाप वह सारा दु:ख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ ।। ५६ ।। तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परंतु जब तुमने मेरे पहुँचने में कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वाङ्गसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोडऩेका संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं ।। ५७ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेमको बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीके साथ विहार करते हैं ।। ५८ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त जगत् को  शिक्षा देनेवाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियोंके महलोंमें भी गृहस्थोंके समान रहते और गृहस्थोचित धर्मका पालन करते थे ।। ५९ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तार्धे कृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— साठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

 

श्रीरुक्मिण्युवाच

नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह

यद्वै भवान्भगवतोऽसदृशी विभूम्नः

क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः

क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा ३४

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः

शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा

नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं

त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम् ३५

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां

वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्

यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य

भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम् ३६

निष्किञ्चनो ननु भवान्न यतोऽस्ति किञ्चिद्

यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः

न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः

प्रेष्ठो भवान्बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम् ३७

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा

यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्

तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः

पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न ३८

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव

आत्मात्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि

हित्वा भवद्भ्रुव उदीरितकालवेग

ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन्कुतोऽन्ये ३९

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्

विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्

सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून्स्वभागं

तेभ्यो भयाद्यदुदधिं शरणं प्रपन्नः ४०

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य

जायन्तनाहुषगयादय ऐक्यपत्यम्

राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष

सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम् ४१

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्धम्

आघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्

लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य

मर्त्या सदोरुभयमर्थविवीतदृष्टिः ४२

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीशम्

आत्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्

स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या

यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः ४३

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः

स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वविडालभृत्याः

यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्

युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता ४४

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्तर्

मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्

जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा

या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री ४५

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग

आत्मन्रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः

यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो

मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा ४६

नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन

अम्बाया एव हि प्रायः कन्यायाः स्याद्रतिः क्वचित् ४७

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्

बुधोऽसतीं न बिभृयात्तां बिभ्रदुभयच्युतः ४८

 

रुक्मिणीजीने कहाकमलनयन ! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान्‌ के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित आप भगवान्‌; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं ।। ३४ ।। भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन् ! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं। परंतु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भयसे अन्त:करणरूप समुद्रमें चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओंसे वैर रखते हैं, परंतु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो ! आप राजसिंहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है। क्योंकि आपके चरणों की सेवा करनेवालों ने भी राजाके पद को घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ।। ३५ ।। आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त ! आपके मार्गपर चलनेवाले आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्राय: अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है ?।। ३६ ।। आपने अपने को अकिञ्चन बतलाया है। परंतु आपकी अकिञ्चनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है। परंतु जिन ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं, और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमानसे अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर सवार हैं ।। ३७ ।। जगत् में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैंधर्म, अर्थ, काम, मोक्षउन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियोंप्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन् ! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या दु:खके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं ।। ३८ ।। यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है। परंतु किन भिक्षुकोंने ? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शिता से नहीं, इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत्के आत्मा हैं और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं। मैंने जानबूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकीशिशुपाल, दन्तवक्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है ?।। ३९ ।।  

 

सर्वेश्वर आर्यपुत्र ! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुष के टङ्कार से मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समॢपत मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे ।। ४० ।। कमलनयन ! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्राय: कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन कालके अङ्ग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राज- राजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोडक़र आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं ।। ४१ ।। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो। भगवन् ! आप समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थको भली-भाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयोंसे युक्त हैं ! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती ।। ४२ ।। प्रभो ! आप सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ ।। ४३ ।। अच्युत ! शत्रुसूदन ! गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया हैउसी अभागिनी स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान्‌ शङ्कर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश नहीं किया है ।। ४४ ।। यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है। ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशोंसे ढका हुआ है; परंतु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है ।। ४५ ।। कमलनयन ! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अत: आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है ।। ४६ ।। मधुसूदन ! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो। मैं आपकी इस बातको भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी काशी-नरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है ।। ४७ ।। कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है ।। ४८ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

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