गुरुवार, 17 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

नृग राजाकी कथा

 

कस्यचिद्द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने

सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये १६

तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्रोवाच ममेति तम्

ममेति परिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति १७

विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ

भवान्दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद्भ्रमः १८

अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै

गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम् १९

भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः

समुद्धरतं मां कृच्छ्रात्पतन्तं निरयेऽशुचौ २०

नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्

नान्यद्गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ २१

एतस्मिन्नन्तरे यामैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्

यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते २२

पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्ष उताहो नृपते शुभम्

नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः २३

पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः

तावदद्रा क्षमात्मानं कृकलासं पतन्प्रभो २४

ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव

स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः २५

स त्वं कथं मम विभोऽपिथः परात्मा

योगेश्वरः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः

साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः

स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः २६

देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम

नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय २७

अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो

यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम् २८

नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये

कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः २९

इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना

अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत्पश्यतां नृणाम् ३०

 

एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मणकी एक गाय बिछुडक़र मेरी गौओंमें आ मिली। मुझे इस बातका बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजानमें उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया ।। १६ ।। जब उस गायको वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गायके असली स्वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।दान ले जानेवाले ब्राह्मणने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृगने मुझे इसका दान किया है।। १७ ।। वे दोनों ब्राह्मण आपसमें झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लिये मेरे पास आये। एकने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी हैऔर दूसरेने कहा कि यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।भगवन् ! उन दोनों ब्राह्मणोंकी बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया ।। १८ ।। मैंने धर्मसंकटमें पडक़र उन दोनोंसे बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि मैं बदलेमें एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये ।। १९ ।। मैं आपलोगोंका सेवक हूँ। मुझसे अनजानमें यह अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्टसे तथा घोर नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये।। २० ।। राजन् ! मैं इसके बदलेमें कुछ नहीं लूँगा।यह कहकर गायका स्वामी चला गया। तुम इसके बदलेमें एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेनेका नहीं।इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया ।। २१ ।। देवाधिदेव जगदीश्वर ! इसके बाद आयु समाप्त होनेपर यमराजके दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराजने मुझसे पूछा।। २२ ।। राजन् ! तुम पहले अपने पापका फल भोगना चाहते हो या पुण्यका ? तुम्हारे दान और धर्मके फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है।। २३ ।। भगवन् ! तब मैंने यमराजसे कहा—‘देव ! पहले मैं अपने पापका फल भोगना चाहता हूँ।और उसी क्षण यमराजने कहा—‘तुम गिर जाओ।उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँसे गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ ।। २४ ।। प्रभो ! मैं ब्राह्मणोंका सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बातकी उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपासे मेरे पूर्वजन्मोंकी स्मृति नष्ट न हुई ।। २५ ।। भगवन् ! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदोंकी दृष्टिसे (अभेददृष्टिसे) अपने हृदयमें आपका ध्यान करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! साक्षात् आप मेरे नेत्रोंके सामने कैसे आ गये ! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकारके व्यसनों, दु:खद कर्मोंमें फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसारके चक्करसे छुटकारा मिलनेका समय आता है ।। २६ ।। देवताओंके भी आराध्यदेव ! पुरुषोत्तम गोविन्द ! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवोंके स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत ! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण ! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियोंके स्वामी हैं ।। २७ ।। प्रभो ! श्रीकृष्ण ! मैं अब देवताओंके लोकमें जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलोंमें ही लगा रहे ।। २८ ।। आप समस्त कार्यों और कारणोंके रूपमें विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण ! आप समस्त योगोंके स्वामी, योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।। २९ ।।

राजा नृगने इस प्रकार कहकर भगवान्‌की परिक्रमा की और अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमानपर सवार हो गये ।। ३० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 16 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौंसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

नृग राजाकी कथा

 

श्रीबादरायणिरुवाच

एकदोपवनं राजन्जग्मुर्यदुकुमारकाः

विहर्तुं साम्बप्रद्युम्न चारुभानुगदादयः १

क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः

जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम् २

कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः

तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृयान्विताः ३

चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः

नाशक्नुरन्समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः ४

तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान्विश्वभावनः

वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया ५

स उत्तमःश्लोककराभिमृष्टो

विहाय सद्यः कृकलासरूपम्

सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः

स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक् ६

पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं

जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः

कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो

देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम् ७

दशामिमां वा कतमेन कर्मणा

सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र

आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो

यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम् ८

 

श्रीशुक उवाच

इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना

माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा ९

 

नृग उवाच

नृगो नाम नरेन्द्रो ऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो

दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम् १०

किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः

कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया ११

यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः

यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददं स्म गाः १२

पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-

गुणोपपन्नाः कपिला हेमसृङ्गीः

न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा

दुकूलमालाभरणा ददावहम् १३

स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः

सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः

तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः

प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः १४

गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः

कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः

वासांसि रत्नानि परिच्छदान्रथा-

निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम् १५

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्र, चारुभानु और गद आदि यदुवंशी राजकुमार घूमनेके लिये उपवनमें गये ।। १ ।। वहाँ बहुत देरतक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलकी खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा ।। २ ।। वह जीव पर्वतके समान आकारका एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका हृदय करुणासे भर आया और वे उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करने लगे ।। ३ ।। परंतु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिटको चमड़े और सूतकी रस्सियोंसे बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया ।। ४ ।। जगत्के जीवनदाता कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस कूएँपर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथसे खेल-खेलमेंअनायास ही उसको बाहर निकाल लिया ।। ५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवताके रूपमें परणित हो गया। अब उसके शरीरका रंग तपाये हुए सोनेके समान चमक रहा था। और उसके शरीरपर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पोंके हार शोभा पा रहे थे ।। ६ ।। यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुषको गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारणको मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुषसे पूछा—‘महाभाग ! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन ? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो ।। ७ ।। कल्याणमूर्ते ! किस कर्मके फलसे तुम्हें इस योनिमें आना पड़ा था ? वास्तवमें तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हमलोगोंको वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।। ८ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब अनन्तमूर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णने राजा नृगसे [क्योंकि वे ही इस रूपमें प्रकट हुए थे] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्यके समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान्‌ को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे ।। ९ ।।

राजा नृगने कहाप्रभो ! मैं महाराज इक्ष्वाकुका पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसीने आपके सामने दानियोंकी गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानोंमें पड़ा होगा ।। १० ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंकी एक-एक वृत्तिके साक्षी हैं। भूत और भविष्यका व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञानमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं डाल सकता। अत: आपसे छिपा ही क्या है ? फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये कहता हूँ ।। ११ ।। भगवन् ! पृथ्वीमें जितने धूलिकण हैं, आकाशमें जितने तारे हैं और वर्षामें जितनी जलकी धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं ।। १२ ।। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्यायके धनसे प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था और खुरोंमें चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनोंसे सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैंने दी थीं ।। १३ ।। भगवन् ! मैं युवावस्थासे सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों कोजो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्टमें पड़े हुए कुटुम्बवाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्योंको विद्यादान करनेवाले तथा सच्चरित्र होतेवस्त्राभूषणसे अलंकृत करता और उन गौओंका दान करता ।। १४ ।। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियोंके सहित कन्याएँ, तिलोंके पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कूएँ, बावली आदि बनवाये ।। १५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध

 

यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु ।

 उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे ॥ ४० ॥

 देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः ।

 यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः ॥ ४१ ॥

 यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम् ।

 विपर्ययेन्द्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन् ॥ ४२ ॥

 अहं ब्रह्माथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः ।

 सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वां आत्मानं प्रेष्ठमीश्वरम् ॥ ४३ ॥

 तं त्वा जगत्स्थित्युदयान्तहेतुं

     समं प्रशान्तं सुहृदात्मदैवम् ।

 अनन्यमेकं जगदात्मकेतं

     भवापवर्गाय भजाम देवम् ॥ ४४ ॥

 अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती

     मयाभयं दत्तममुष्य देव ।

 संपाद्यतां तद्‌भवतः प्रसादो

     यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः ॥ ४५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 यदात्थ भगवन् त्वं नः करवाम प्रियं तव ।

 भवतो यद्व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम् ॥ ४६ ॥

 अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः ।

 प्रह्रादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः ॥ ४७ ॥

 दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया ।

 सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः ॥ ४८ ॥

 चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यत्यजरामरः ।

 पार्षदमुख्यो भवतो न कुतश्चिद्‌भयोऽसुरः ॥ ४९ ॥

 इति लब्ध्वाभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः ।

 प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत् ॥ ५० ॥

 अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासःसमलङ्कृतम् ।

 सपत्‍नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः ॥ ५१ ॥

 स्वराजधानीं समलङ्कृतां ध्वजैः

     सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम् ।

 विवेश शङ्खानकदुन्दुभिस्वनैः

     अभ्युद्यतः पौरसुहृद्‌द्विजातिभिः ॥ ५२ ॥

 य एवं कृष्णविजयं शङ्करेण च संयुगम् ।

 संस्मरेत् प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात् पराजयः ॥ ५३ ॥

 

भगवन् ! आपकी मायासे मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदिमें आसक्त हो जाते हैं और फिर दु:खके अपार सागरमें डूबने-उतराने लगते हैं ।। ४० ।। संसारके मानवोंको यह मनुष्य- शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं करता और आपके चरणकमलोंका आश्रय नहीं लेताउनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है ।। ४१ ।। प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्युका ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दु:खरूप एवं तुच्छ विषयोंमें सुखबुद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख है कि अमृतको छोडक़र विष पी रहा है ।। ४२ ।। मैं, ब्रह्मा, सारे देवता और विशुद्ध हृदयवाले ऋषि-मुनि सब प्रकारसे और सर्वात्मभावसे आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हमलोगोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं ।। ४३ ।। आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं। आप सबमें सम, परम शान्त, सबके सुहृद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत्के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो ! हम सब संसारसे मुक्त होनेके लिये आपका भजन करते हैं ।। ४४ ।। देव ! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो ! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लादपर आपका कृपाप्रसाद है, वैसा ही कृपाप्रसाद आप इसपर भी करें ।। ४५ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाभगवन् ! आपकी बात मानकरजैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्धमें जैसा निश्चय किया थामैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसीका अनुमोदन किया है ।। ४६ ।। मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलिका पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लादको वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वशंमें पैदा होनेवाले किसी भी दैत्यका वध नहीं करूँगा ।। ४७ ।। इसका घमंड चूर करनेके लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वीके लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है ।। ४८ ।। अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदोंमें मुख्य होगा। अब इसको किसीसे किसी प्रकारका भय नहीं है ।। ४९ ।।

श्रीकृष्णसे इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुरने उनके पास आकर धरतीमें माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजीको अपनी पुत्री ऊषाके साथ रथपर बैठाकर भगवान्‌के पास ले आया ।। ५० ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने महादेवजीकी सम्मतिसे वस्त्रालंकारविभूषित ऊषा और अनिरुद्धजीको एक अक्षौहिणी सेनाके साथ आगे करके द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।। ५१ ।। इधर द्वारकामें भगवान्‌ श्रीकृष्ण आदिके शुभागमनका समाचार सुनकर झंडियों और तोरणोंसे नगरका कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सडक़ों और चौराहोंको चन्दन- मिश्रित जलसे सींच दिया गया। नगरके नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राह्मणोंने आगे आकर खूब धूमधामसे भगवान्‌ का स्वागत किया। उस समय शङ्ख, नगारों और ढोलोंकी तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी राजधानीमें प्रवेश किया ।। ५२ ।।

परीक्षित्‌ ! जो पुरुष श्रीशङ्करजी के साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णका युद्ध और उनकी विजयकी कथाका प्रात:काल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती ।। ५३ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धानयनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



मंगलवार, 15 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिरसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध

 

ज्वर उवाच -

नमामि त्वानन्तशक्तिं परेशं

     सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम् ।

 विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं

     यत्तद् ब्रह्म ब्रह्मलिङ्गं प्रशान्तम् ॥ २५ ॥

 कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो

     द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः ।

 तत्सङ्घातो बीजरोहप्रवाहः

     त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्ये ॥ २६ ॥

 नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नैः

     देवान् साधून् लोकसेतून्बिभर्षि ।

 हंस्युन्मार्गान् हिंसया वर्तमानान्

     जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः ॥ २७ ॥

 तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन

     शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण ।

 तावत्तापो देहिनां तेऽङ्‌घ्रिमूलं

     नो सेवेरन् यावदाशानुबद्धाः ॥ २८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद्‌भयम् ।

 यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद्‌भयम् ॥ २९ ॥

 इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः ।

 बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम् ॥ ३० ॥

 ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः ।

 मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप ॥ ३१ ॥

 तस्यास्यतोऽस्त्राण्यसकृत् चक्रेण क्षुरनेमिना ।

 चिच्छेद भगवान्बाहून् शाखा इव वनस्पतेः ॥ ३२ ॥

 बाहुषु छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान् भवः ।

 भक्तानकम्प्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत ॥ ३३ ॥

 

 श्रीरुद्र उवाच -

 त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिः गूढं ब्रह्मणि वाङ्‌मये ।

 यं पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम् ॥ ३४ ॥

 नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु रेतो

     द्यौः शीर्षमाशाः श्रुतिरङ्‌घ्रिरुर्वी ।

 चन्द्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा

     अहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्रः ॥ ३५ ॥

 रोमाणि यस्यौषधयोऽम्बुवाहाः

     केशा विरिञ्चो धिषणा विसर्गः ।

 प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः

     स वै भवान् पुरुषो लोककल्पः ॥ ३६ ॥

 तवावतारोऽयमकुण्ठधामन्

     धर्मस्य गुप्त्यै जगतो हिताय ।

 वयं च सर्वे भवतानुभाविता

     विभावयामो भुवनानि सप्त ॥ ३७ ॥

 त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीयः

     तुर्यः स्वदृग् हेतुरहेतुरीशः ।

 प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं

     स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै ॥ ३८ ॥

 यथैव सूर्यः पिहितश्छायया स्वया

     छायां च रूपाणि च सञ्चकास्ति ।

 एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्वम्

     आत्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन् ॥ ३९ ॥

 

ज्वर ने कहाप्रभो ! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण आप ही हैं। श्रुतियोंके द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारोंसे रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।। २५ ।। काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पञ्चभूतइन सबका संघात लिङ्गशरीर और बीजाङ्कुर-न्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्मसे फिर लिङ्गशरीरकी उत्पत्तियह सब आपकी माया है। आप मायाके निषेधकी परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।। २६ ।। प्रभो ! आप अपनी लीलासे ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओंका पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरोंका संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही हुआ है ।। २७ ।। प्रभो ! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वरसे मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन् ! देहधारी जीवोंको तभीतक ताप-सन्ताप रहता है, जबतक वे आशाके फंदोंमें फँसे रहनेके कारण आपके चरणकमलोंकी शरण नहीं ग्रहण करते ।। २८ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘त्रिशिरा ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वरसे निर्भय हो जाओ। संसारमें जो कोई हम दोनोंके संवादका स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा।। २९ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तबतक बाणासुर रथपर सवार होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये फिर आ पहुँचा ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! बाणासुरने अपने हजार हाथोंमें तरह-तरहके हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोधमें भरकर चक्रपाणि भगवान्‌पर बाणोंकी वर्षा करने लगा ।। ३१ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि बाणासुरने तो बाणोंकी झड़ी लगा दी है, तब वे छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्षकी छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो ।। ३२ ।। जब भक्तवत्सल भगवान्‌ शङ्करने देखा कि बाणासुरकी भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास आये और स्तुति करने लगे ।। ३३ ।।

भगवान्‌ शङ्करने कहाप्रभो ! आप वेदमन्त्रोंमें तात्पर्यरूपसे छिपे हुए परमज्योति:स्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्धहृदय महात्मागण आपके आकाशके समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं ।। ३४ ।। आकाश आपकी नाभि है, अग्रि मुख है और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण है। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा ।। ३५ ।। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिङ्ग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरोंके साथ जिसके शरीरकी तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं ।। ३६ ।। अखण्ड ज्योति:स्वरूप परमात्मन् ! आपका यह अवतार धर्मकी रक्षा और संसारके अभ्युदयअभिवृद्धिके लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभावसे ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनोंका पालन करते हैं ।। ३७ ।। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित हैंएक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिइन तीन अवस्थाओंमें अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तुके द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयंप्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परंतु आपका न तो कोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है। भगवन् ! ऐसा होनेपर भी आप तीनों गुणोंकी विभिन्न विषमताओंको प्रकाशित करनेके लिये अपनी मायासे देवता, पशु- पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रतीत होते हैं ।। ३८ ।। प्रभो ! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयंप्रकाश हैं, परंतु गुणों के द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तवमें  आप अनन्त हैं ।। ३९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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