सोमवार, 21 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कौरवोंपर बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह

 

श्रीशुक उवाच -

दुर्योधनसुतां राजन् लक्ष्मणां समितिंजयः ।

स्वयंवरस्थामहरत् सांबो जाम्बवतीसुतः ॥ १ ॥

कौरवाः कुपिता ऊचुः दुर्विनीतोऽयमर्भकः ।

कदर्थीकृत्य नः कन्यां अकामां अहरद् बलात् ॥ २ ॥

बध्नीतेमं दुर्विनीतं किं करिष्यन्ति वृष्णयः ।

येऽस्मत् प्रसादोपचितां दत्तां नो भुञ्जते महीम् ॥ ३ ॥

निगृहीतं सुतं श्रुत्वा यद्येष्यन्तीह वृष्णयः ।

भग्नदर्पाः शमं यान्ति प्राणा इव सुसंयताः ॥ ४ ॥

इति कर्णः शलो भूरिः यज्ञकेतुः सुयोधनः ।

साम्बमारेभिरे बद्धुं कुरुवृद्धानुमोदिताः ॥ ५ ॥

 दृष्ट्वानुधावतः साम्बो धार्तराष्ट्रान् महारथः ।

 प्रगृह्य रुचिरं चापं तस्थौ सिंह इवैकलः ॥ ६ ॥

 तं ते जिघृक्षवः क्रुद्धाः तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणः ।

 आसाद्य धन्विनो बाणैः कर्णाग्रण्यः समाकिरन् ॥ ७ ॥

 सोऽपविद्धः कुरुश्रेष्ठ कुरुभिर्यदुनन्दनः ।

 नामृष्यत् तदचिन्त्यार्भः सिंह क्षुद्रमृगैरिव ॥ ८ ॥

 विस्फूर्ज्य रुचिरं चापं सर्वान् विव्याध सायकैः ।

 कर्णादीन् षड्रथान् वीरः तावद्‌भिर्युगपत् पृथक् ॥ ९ ॥

 चतुर्भिश्चतुरो वाहान् एकैकेन च सारथीन् ।

 रथिनश्च महेष्वासान् तस्य तत्तेऽभ्यपूजयन् ॥ १० ॥

 तं तु ते विरथं चक्रुः चत्वारश्चतुरो हयान् ।

 एकस्तु सारथिं जघ्ने चिच्छेदान्यः शरासनम् ॥ ११ ॥

 तं बद्ध्वा विरथीकृत्य कृच्छ्रेण कुरवो युधि ।

 कुमारं स्वस्य कन्यां च स्वपुरं जयिनोऽविशन् ॥ १२ ॥

 तच्छ्रुत्वा नारदोक्तेन राजन् सञ्जातमन्यवः ।

 कुरून् प्रत्युद्यमं चक्रुः उग्रसेनप्रचोदिताः ॥ १३ ॥

 सान्त्वयित्वा तु तान् रामः सन्नद्धान् वृष्णिपुङ्गवान् ।

 नैच्छय् कुरूणां वृष्णीनां कलिं कलिमलापहः ॥ १४ ॥

 जगाम हास्तिनपुरं रथेनादित्यवर्चसा ।

 ब्राह्मणैः कुलवृद्धैश्च वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥ १५ ॥

 गत्वा गजाह्वयं रामो बाह्योपवनमास्थितः ।

 उद्धवं प्रेषयामास धृतराष्ट्रं बुभुत्सया ॥ १६ ॥

 सोऽभिवन्द्याम्बिकापुत्रं भीष्मं द्रोणं च बाह्लिकम् ।

 दुर्योधनं च विधिवद् राममागतमब्रवीत् ॥ १७ ॥

 तेऽतिप्रीतास्तमाकर्ण्य प्राप्तं रामं सुहृत्तमम् ।

 तमर्चयित्वाभिययुः सर्वे मङ्गलपाणयः ॥ १८ ॥

 तं सङ्गम्य यथान्यायं गामर्घ्यं च न्यवेदयन् ।

 तेषां ये तत्प्रभावज्ञाः प्रणेमुः शिरसा बलम् ॥ १९ ॥

 बन्धून् कुशलिनः श्रुत्वा पृष्ट्वा शिवमनामयम् ।

 परस्परमथो रामो बभाषेऽविक्लवं वचः ॥ २० ॥

 उग्रसेनः क्षितीशेशो यद् व आज्ञापयत् प्रभुः ।

 तद् अव्यग्रधियः श्रुत्वा कुरुध्वं माविलम्बितम् ॥ २१ ॥

 यद् यूयं बहवस्त्वेकं जित्वाधर्मेण धार्मिकम् ।

 अबध्नीताथ तन्मृष्ये बन्धूनामैक्यकाम्यया ॥ २२ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जाम्बवतीनन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें स्थित दुर्योधनकी कन्या लक्ष्मणा को हर लाये ॥ १ ॥ इससे कौरवोंको बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले—‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हमलोगोंको नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्याका अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी ॥ २ ॥ अत: इस ढीठको पकडक़र बाँध लो। यदि यदुवंशीलोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही कृपासे हमारी ही दी हुई धन-धान्यसे परिपूर्ण पृथ्वीका उपभोग कर रहे हैं ॥ ३ ॥ यदि वे लोग अपने इस लडक़ेके बंदी होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगोंके मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुषके द्वारा प्राणायाम आदि उपायोंसे वशमें की हुई इन्द्रियाँ॥ ४ ॥ ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ॥ ५ ॥

जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान अकेले ही रणभूमिमें डट गये ॥ ६ ॥ इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे खड़ा रह ! खड़ा रह !इस प्रकार ललकारते हुए बाणोंकी वर्षा करने लगे ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान्‌ श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवोंके प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनोंका पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ॥ ८ ॥ साम्बने अपने सुन्दर धनुषका टंकार करके कर्ण आदि छ: वीरोंपर, जो अलग-अलग छ: रथोंपर सवार थे, छ:-छ: बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ॥ ९ ॥ उनमेंसे चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघव को देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १० ॥ इसके बाद उन छ:हों वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला ॥ ११ ॥ इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ॥ १२ ॥

परीक्षित्‌ ! नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियोंको बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ॥ १३ ॥ बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके सारे पाप-तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके लड़ाई-झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीचमें बलरामजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहोंसे घिरे हुए हों ॥ १४-१५ ॥ हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनमें ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बातका पता लगानेके लिये उन्होंने उद्धवजीको धृतराष्ट्रके पास भेजा ॥ १६ ॥

उद्धवजी ने कौरवों की सभामें जाकर धृतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि बलरामजी पधारे हैं॥ १७ ॥ अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। वे उद्धवजीका विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी करने चले ॥ १८ ॥ फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्धके अनुसार सब लोग बलरामजीसे मिले तथा उनके सत्कारके लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान्‌ बलरामजीका प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ १९ ॥ तदनन्तर उन लोगोंने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मङ्गल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही॥ २० ॥ सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ॥ २१ ॥ उग्रसेनजीने कहा हैहम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अत: अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी नववधू के साथ हमारे पास भेज दो) ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 20 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

द्विविद का उद्धार

 

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः ।

तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान् ॥ १६ ॥

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया ।

द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना ॥ १७ ॥

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत् ।

तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा ॥ १८ ॥

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम् ।

मूषलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ॥ १९ ॥

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन् ।

पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ॥ २० ॥

तेनाहनत् सुसङ्क्रुद्धः तं बलः शतधाच्छिनत् ।

ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत् ॥ २१ ॥

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।

आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षं अकरोद् वनम् ॥ २२ ॥

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः ।

तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः ॥ २३ ॥

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः ।

आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत् ॥ २४ ॥

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले ।

जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥ २५ ॥

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः ।

पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥ २६ ॥

जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे ।

सुरसिद्धमुनीन्द्राणां आसीत् कुसुमवर्षिणाम् ॥ २७ ॥

एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ।

संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥ २८ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौडक़र बलरामजीके सिरपर उसे दे मारा। भगवान्‌ बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उसपर प्रहार किया। मूसल लगनेसे द्विविदका मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वतसे गेरूका सोता बह रहा हो। परंतु द्विविदने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूडक़र बिना पत्तेका कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोरका प्रहार किया। बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोधसे दूसरा वृक्ष चलाया, परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्षके टूट जानेपर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करनेकी चेष्टा करता। इस तरह सब ओरसे वृक्ष उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वनको ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न रहे, तब द्विविदका क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढक़र बलरामजीके उपर बड़ी-बड़ी चट्टानोंकी वर्षा करने लगा। परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेलमें ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्तमें कपिराज द्विविद अपनी ताडक़े समान लंबी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाशमें देवतालोग जय-जय’, सिद्ध लोग नमो नम:और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि साधु-साधुके नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान्‌ बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान्‌ बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

द्विविद का उद्धार

 

श्रीराजोवाच -

भुयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्‌भुतकर्मणः ।

 अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानरः ।

 सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान् ॥ २ ॥

 सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम् ।

 पुरग्रामाकरान् घोषान् अदहद् वह्निमुत्सृजन् ॥ ३ ॥

 क्वचित् स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत् ।

 आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः ॥ ४ ॥

 क्वचित् समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यां उत्क्षिप्य तज्जलम् ।

 देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूले न्यमज्जयत् ॥ ५ ॥

 आश्रमान् ऋषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन् ।

 अदूषयत् शकृत् मूत्रैः अग्नीन् वैतानिकान् खलः ॥ ६ ॥

 पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः ।

 निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्क्कास्कारीव कीटकम् ॥ ७ ॥

 एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः ।

 श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ ॥ ८ ॥

 तत्रापश्यद् यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम् ।

 सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम् ॥ ९ ॥

 गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् ।

 विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥ १० ॥

 दुष्टः शाखामृगः शाखां आरूढः कंपयन् द्रुमान् ।

 चक्रे किलकिलाशब्दं आत्मानं संप्रदर्शयन् ॥ ११ ॥

 तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः ।

 हास्यप्रिया विजहसुः बलदेवपरिग्रहाः ॥ १२ ॥

 ता हेलयामास कपिः भूक्षेपैः संमुखादिभिः ।

 दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षितः ॥ १३ ॥

 तं ग्राव्णा प्राहरत् क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः ।

 स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः ॥ १४ ॥

 गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन् ।

 निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद् बलम् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवान्‌ बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणीके विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था ॥ २ ॥ जब उसने सुना कि श्रीकृष्णने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्रकी मित्रताके ऋणसे उऋण होनके लिये राष्ट्र-विप्लव करनेपर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरोंकी बस्तियोंमें आग लगाकर उन्हें जलाने लगा ॥ ३ ॥ कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ोंको उखाडक़र उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देशमें ही करता था। क्योंकि उसके मित्रको मारनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसी देशमें निवास करते थे ॥ ४ ॥ द्विविद वानरमें दस हजार हाथियोंका बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्रमें खड़ा हो जाता और हाथोंसे इतना जल उछालता कि समुद्रतटके देश डूब जाते ॥ ५ ॥ वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंकी सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियोंको तोड़-मरोडक़र चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्रि-कुण्डोंमें मलमूत्र डालकर अग्रियोंको दूषित कर देता ॥ ६ ॥ जैसे भृङ्गी नामका कीड़ा दूसरे कीड़ोंको ले जाकर अपने बिलमें बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषोंको ले जाकर पहाड़ोंकी घाटियों तथा गुफाओंमें डाल देता। फिर बाहरसे बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता ॥ ७ ॥ इस प्रकार वह देशवासियोंका तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियोंको भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वतपर गया ॥ ८ ॥

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियोंके झुंडमें विराजमान हैं। उनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्ष:स्थलपर कमलोंकी माला लटक रही है ॥ ९ ॥ वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्मादसे विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो ॥ १० ॥ वह दुष्ट वानर वृक्षोंकी शाखाओंपर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता । कभी स्त्रियोंके सामने आकर किलकारी भी मारने लगता ॥ ११ ॥ युवती स्त्रियाँ स्वभावसे ही चञ्चल और हास-परिहासमें रुचि रखनेवाली होती हैं। बलरामजीकी स्त्रियाँ उस वानरकी ढिठाई देखकर हँसने लगीं ॥ १२ ॥ अब वह वानर भगवान्‌ बलरामजीके सामने ही उन स्त्रियोंकी अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुँह बनाता, घुडक़ता ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उसपर पत्थरका एक टुकड़ा फेंका। परंतु द्विविद ने उससे अपनेको बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजीकी अवहेलना करने लगा। उस धूर्तने मधुकलशको तो फोड़ ही डाला, स्त्रियोंके वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजीको क्रोधित करने लगा ॥ १४-१५ ॥

 

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शनिवार, 19 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार

 

शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्

किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिशिरे जनाः २५

राज्ञः काशीपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः

पौराश्च हा हता राजन्नाथ नाथेति प्रारुदन् २६

सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पतेः

निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः २७

इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्

सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना २८

प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्विभुः

पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम् २९

दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्

अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः ३०

साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः

इत्यादिष्टस्तथा चक्रेकृष्णायाभिचरन्व्रती ३१

ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः

तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः ३२

दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्ड कठोरास्यः स्वजिह्वया

आलिहन्सृक्वणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलत् ३३

पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्

सोऽयधावद्वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः ३४

तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः

विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा ३५

अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः

त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम् ३६

श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्

शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम् ३७

सर्वस्यान्तर्बहिःसाक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः

विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत् ३८

तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं

जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्

स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी

चक्रं मुकुन्दास्त्रं अथाग्निमार्दयत् ३९

कृत्यानलः प्रतिहतः स रथान्गपाणेर्

अस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः

वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं

सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः ४०

चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं

वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्

सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां

सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालिनीम् ४१

दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्

भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ४२

य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमःश्लोकविक्रमम्

समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते ४३

 

इधर काशीमें राजमहलके दरवाजेपर एक कुण्डलमण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह- तरहका सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि यह क्या है, यह किसका सिर है ?’ ।। २५ ।। जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवारके लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे—‘हा नाथ ! हा राजन् ! हाय-हय ! हमारा तो सर्वनाश हो गया।। २६ ।। काशिनरेशका पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघातीको मारकर ही मैं पिताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्योंके साथ अत्यन्त एकाग्रतासे भगवान्‌ शङ्करकी आराधना करने लगा ।। २७-२८ ।। काशी नगरीमें उसकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ शङ्करने वर देनेको कहा। सुदक्षिणने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघातीके वधका उपाय बतलाइये ।। २९ ।। भगवान्‌ शङ्करने कहा—‘तुम ब्राह्मणोंके साथ मिलकर यज्ञके देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की अभिचारविधिसे आराधना करो। इससे वह अग्रि प्रमथगणोंके साथ प्रकट होकर यदिब्राह्मणोंके अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।भगवान्‌ शङ्करकी ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिणने अनुष्ठानके उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये अभिचार (मारणका पुरश्चरण) करने लगा ।। ३०-३१ ।। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्डसे अति भीषण अग्नि मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थे। आँखोंसे अंगारे बरस रहे थे ।। ३२ ।। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियोंके कारण उसके मुखसे क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथमें त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमेंसे अग्रिकी लपटें निकल रही थीं ।। ३३ ।। ताडक़े पेडक़े समान बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेगसे धरतीको कँपाता हुआ और ज्वालाओंसे दसों दिशाओंको दग्ध करता हुआ द्वारकाकी ओर दौड़ा और बात-की-बातमें द्वारकाके पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे ।। ३४ ।। उस अभिचारकी आगको बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलमें आग लगनेपर हरिन डर जाते हैं ।। ३५ ।। वे लोग भयभीत होकर भगवान्‌के पास दौड़े हुए आये; भगवान्‌ उस समय सभामें चौसर खेल रहे थे, उन लोगोंने भगवान्‌से प्रार्थना की—‘तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी ! द्वारका नगरी इस आगसे भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता।। ३६ ।। शरणागतवत्सल भगवान्‌ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा— ‘डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा।। ३७ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके बाहर-भीतरकी जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशीसे चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकारके लिये अपने पास ही विराजमान चक्रसुदर्शनको आज्ञा दी ।। ३८ ।। भगवान्‌ मुकुन्दका प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र कोटि-कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेजसे आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्रिको कुचल डाला ।। ३९ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णके अस्त्र सुदर्शनचक्रकी शक्तिसे कृत्यारूप आगका मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँसे लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्योंके साथ सुदक्षिणको जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसीके विनाशका कारण हुआ ।। ४० ।। कृत्याके पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभाभवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारोंके शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नोंके गोदामसे सुसज्जित थी। भगवान्‌ श्रीकृष्णके सुदर्शनचक्रने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास लौट आया ।। ४१-४२ ।।

जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है ।। ४३ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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