मंगलवार, 22 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

देवर्षि नारदजी का भगवान्‌ की गृहचर्या देखना

 

ततोऽन्यदाविशद्‌ गेहं कृष्णपत्‍न्याः स नारदः ।

 योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया ॥ १९ ॥

 दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।

 पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः ॥ २० ॥

 पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति ।

 क्रियते किं नु पूर्णानां अपूर्णैरस्मदादिभिः ॥ २१ ॥

 अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु ।

 स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद्‌ गृहम् ॥ २२ ॥

 तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुतान् शिशून् ।

 ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन् मज्जनाय कृतोद्यमम् ॥ २३ ॥

 जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः ।

 भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम् ॥ २४ ॥

 क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम् ।

 एकत्र चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥ २५ ॥

 अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम् ।

 क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः ॥ २६ ॥

 मंत्रयन्तं च कस्मिंश्चित् मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः ।

 जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम् ॥ २७ ॥

 कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः ।

 इतिहासपुराणानि श्रृण्वन्तं मङ्गलानि च ॥ २८ ॥

 हसन्तं हासकथया कदाचित् प्रियया गृहे ।

 क्वापि धर्मं सेवमानं अर्थकामौ च कुत्रचित् ॥ २९ ॥

 ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम् ।

 शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया ॥ ३० ॥

 कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम् ।

 कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम् ॥ ३१ ॥

 पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम् ।

 दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः ॥ ३२ ॥

 प्रस्थापनोपनयनैः अपत्यानां महोत्सवान् ।

 वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे ॥ ३३ ॥

 यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।

 पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥

 चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।

 घ्नन्तं तत्र पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥

 अव्यक्तलिङ्गं प्रकृतिषु अन्तःपुरगृहादिषु ।

 क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद्‌भावबुभुत्सया ॥ ३६ ॥

 अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव ।

 योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीं ईयुषो गतिम् ॥ ३७ ॥

 विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम् ।

 योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥ ३८ ॥

 अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान् ।

 पर्यटामि तवोद्‌गायन् लीला भुवनपावनीम् ॥ ३९ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

ब्रह्मन्धन्नस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।

 तच्छिक्षयन्लोकमिमं आस्थितः पुत्र मा खिदः ॥ ४० ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम् ।

 तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह ॥ ४१ ॥

 कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम् ।

 मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः ॥ ४२ ॥

 इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।

 सम्यक् सभाजितः प्रीतः तमेवानुस्मरन् ययौ ॥ ४३ ॥

एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो

     नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः ।

 रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां

     सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः ॥ ४४ ॥

 यानीह विश्वविलयोद्‌भववृत्तिहेतुः

     कर्माण्यनन्यविषयाणि हरीश्चकार

 यस्त्वङ्ग गायति श्रृणोत्यनुमोदते वा

     भक्तिर्भवेद्‌भगवति ह्यपवर्गमार्गे ॥ ४५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी योगमायाका रहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महलमें गये ॥ १९ ॥ वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान्‌ ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की ॥ २० ॥ इसके बाद भगवान्‌ ने नारदजीसे अनजान की तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे ! आप तो परिपूर्ण आत्मारामआप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ॥ २१ ॥ फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी ! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ॥ २२ ॥ उस महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने नन्हें-नन्हें बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं ॥ २३ ॥ (इस प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न महलोंमें भगवान्‌को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञ-कुण्डोंमें हवन कर रहे हैं तो कहीं पञ्चमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं ॥ २४ ॥ कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके पैंतरे बदल रहे हैं ॥ २५ ॥ कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ २६ ॥ किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वाराङ्गनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ॥ २७ ॥ कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मङ्गलमय इतिहास- पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं ॥ २८ ॥ कहीं किसी पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैंधन-संग्रह और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं ॥ २९ ॥ कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ॥ ३० ॥ देवर्षि नारदने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान्‌ बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषोंके कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके सदृश पत्नी और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ कहीं घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी लोग विस्मित-चकित हो जाते थे ॥ ३३ ॥ कहीं बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा अपनी कलारूप देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं ॥ ३४ ॥ कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढक़र मृगया कर रहे हैं, और उसमें यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका ही वध कर रहे हैं ॥ ३५ ॥ और कहीं प्रजामें तथा अन्त:पुरके महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान्‌ योगेश्वर जो हैं ॥ ३६ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान्‌ श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा॥ ३७ ॥ योगेश्वर ! आत्मदेव ! आपकी योगमाया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ॥ ३८ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन् ! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरण करूँ॥ ३९ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवर्षि नारदजी ! मैं ही धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र ! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग देखा ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥ द्वारकामें भगवान्‌ श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंमें उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान्‌का स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये ॥ ४३ ॥ राजन् ! भगवान्‌ नारायण सारे जगत्के कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित्‌ ! वे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनं नाम एकोनसप्ततिमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

देवर्षि नारदजी का भगवान्‌ की गृहचर्या देखना

 

श्रीशुक उवाच -

नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ।

 कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः ॥ १ ॥

 चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत् पृथक् ।

 गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ २ ॥

 इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत् ।

 पुष्पितोपवनाराम द्विजालिकुलनादिताम् ॥ ३ ॥

 उत्फुल्लेन्दीवराम्भोज कह्लारकुमुदोत्पलैः ।

 छुरितेषु सरःसूच्चैः कूजितां हंससारसैः ॥ ४ ॥

 प्रासादलक्षैर्नवभिः जुष्टां स्फाटिकराजतैः ।

 महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्‍नपरिच्छदैः ॥ ५ ॥

विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः

     शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः ।

 संसिक्तमार्गाङ्गनवीथिदेहलीं

     पतत्पताका ध्वजवारितातपाम् ॥ ६ ॥

तस्यामन्तःपुरं श्रीमद् अर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः ।

 हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्ट्रा कार्त्स्न्येन दर्शितम् ॥ ७ ॥

 तत्र षोडशभिः सद्म सहस्रैः समलङ्कृतम् ।

 विवेशैकतमं शौरेः पत्‍नीनां भवनं महत् ॥ ८ ॥

 विष्टब्धं विद्रुमस्तंभैः वैदूर्यफलकोत्तमैः ।

 इन्द्रनीलमयैः कुड्यैः जगत्या चाहतत्विषा ॥ ९ ॥

 वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः ।

 दान्तैरासनपर्यङ्कैः मण्युत्तमपरिष्कृतैः ॥ १० ॥

 दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम् ।

 पुम्भिः सकञ्चुकोष्णीष सुवस्त्रमणिकुण्डलैः ॥ ११ ॥

रत्‍नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त

     ध्वान्तं विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग ।

 नृत्यन्ति यत्र विहितागुरुधूपमक्षैः

     निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः ॥ १२ ॥

 तस्मिन्समानगुणरूपवयःसुवेष

     दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या ।

 विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्म

     दण्डेन सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या ॥ १३ ॥

 तं सन्निरीक्ष्य भगवान् सहसोत्थितश्री

     पर्यङ्कतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।

 आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीट

     जुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे ॥ १४ ॥

 तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना

     बिभ्रज्जगद्‌गुरुतमोऽपि सतां पतिर्हि ।

 ब्रह्मण्यदेव इति यद्‌गुणनाम युक्तं

     तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम् ॥ १५ ॥

 संपूज्य देवऋषिवर्यमृषिः पुराणो

     नारायणो नरसखो विधिनोदितेन ।

 वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तं

     प्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम् ॥ १६ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

नैवाद्‌भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे

     मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम् ।

 निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां

     स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु ॥ १७ ॥

 दृष्टं तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं

     ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।

 संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं

     ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात् ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवर्षि नारदने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियोंके साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मनमें भगवान्‌की रहन-सहन देखनेकी बड़ी अभिलाषा हुई ॥ १ ॥ वे सोचने लगेअहो, यह कितने आश्चर्यकी बात है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने एक ही शरीरसे एक ही समय सोलह हजार महलोंमें अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियोंका पाणिग्रहण किया ॥ २ ॥ देवर्षि नारद इस उत्सुकतासे प्रेरित होकर भगवान्‌की लीला देखनेके लिये द्वारका आ पहुँचे। वहाँके उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे वृक्षोंसे परिपूर्ण थे, उनपर तरह-तरहके पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुञ्जार कर रहे थे ॥ ३ ॥ निर्मल जलसे भरे सरोवरोंमें नीले, लाल और सफेद रंगके भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोर्ईं) और नवजात कमलोंकी मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उनमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे ॥ ४ ॥ द्वारकापुरीमें स्फटिकमणि और चाँदीके नौ लाख महल थे। वे फर्श आदिमें जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभासे जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरोंकी बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं ॥ ५ ॥ उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सडक़ें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओंके रहनेके स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरोंके कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सडक़ों, चौक, गली और दरवाजोंपर छिडक़ाव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तोंपर धूप नहीं आ पाती थी ॥ ६ ॥

उसी द्वारकानगरीमें भगवान्‌ श्रीकृष्णका बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करनेमें विश्वकर्माने अपना सारा कला- कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी ॥ ७ ॥ उस अन्त:पुर (रनिवास) में भगवान्‌की रानियोंके सोलह हजारसे अधिक महल शोभायमान थे, उनमेंसे एक बड़े भवनमें देवर्षि नारदजीने प्रवेश किया ॥ ८ ॥ उस महलमें मूँगोंके खंभे, वैदूर्यके उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणिकी दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँकी गचें भी ऐसी इन्द्रनीलमणियोंसे बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती ॥ ९ ॥ विश्वकर्माने बहुत-से ऐसे चँदोवे बना रखे थे, जिनमें मोतीकी लडिय़ोंकी झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँतके बने हुए आसन और पलँग थे, जिनमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी ॥ १० ॥ बहुत-सी दासियाँ गलेमें सोनेका हार पहने और सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काममें व्यस्त थे और महलकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ११ ॥ अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहटसे उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगरकी धूप देनेके कारण झरोखोंसे धूआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जोंपर बैठे हुए मोर बादलोंके भ्रमसे कूक-कूककर नाचने लगते ॥ १२ ॥ देवर्षि नारदजीने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस महलकी स्वामिनी रुक्मिणीजीके साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान्‌को सोनेकी डाँड़ीवाले चँवरसे हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महलमें रुक्मिणीजीके समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं ॥ १३ ॥

नारदजीको देखते ही समस्त धार्मिकों  के मुकुटमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलँगसे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारदके युगलचरणोंमें मुकुटयुक्त सिरसे प्रणाम किया और हाथ जोडक़र उन्हें अपने आसनपर बैठाया ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण चराचर जगत् के परम गुरु हैं और उनके चरणोंका धोवन गङ्गाजल सारे जगत्को पवित्र करनेवाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतोंके परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुणके अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान्‌ श्रीकृष्णने स्वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिरपर धारण किया ॥ १५ ॥ नरशिरोमणि नरके सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायणने शास्त्रोक्त विधिसे देवर्षिशिरोमणि भगवान्‌ नारदकी पूजा की। इसके बाद अमृतसे भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दोंमें उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो ! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्यसे पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’ ? ॥ १६ ॥

देवर्षि नारदने कहाभगवन् ! आप समस्त लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनोंसे प्रेम करते हैं और दुष्टोंको दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो ! आपने जगत् की स्थिति और रक्षाके द्वारा समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे अवतार ग्रहण किया है। भगवन् ! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं ॥ १७ ॥ यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलोंके दर्शन हुए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनताको परम साम्य, मोक्ष देनेमें समर्थ हैं। जिनके ज्ञानकी कोई सीमा ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शङ्कर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदयमें उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तवमें वे श्रीचरण ही संसाररूप कूएँमें गिरे हुए लोगोंको बाहर निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ, उनके ध्यानमें तन्मय रहूँ ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



सोमवार, 21 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कौरवोंपर बलरामजी का कोप और साम्ब का विवाह

 

वीर्यशौर्यबलोन्नद्धं आत्मशक्तिसमं वचः ।

 कुरवो बलदेवस्य निशम्योचुः प्रकोपिताः ॥ २३ ॥

 अहो महच्चित्रमिदं कालगत्या दुरत्यया ।

 आरुरुक्षत्युपानद् वै शिरो मुकुटसेवितम् ॥ २४ ॥

 एते यौनेन संबद्धाः सहशय्यासनाशनाः ।

 वृष्णयस्तुल्यतां नीता अस्मद् दत्तनृपासनाः ॥ २५ ॥

 चामरव्यजने शङ्खं आतपत्रं च पाण्डुरम् ।

 किरीटमासनं शय्यां भुञ्जन्त्यस्मदुपेक्षया ॥ २६ ॥

अलं यदूनां नरदेवलाञ्छनैः

     दातुः प्रतीपैः फणिनामिवामृतम् ।

 येऽस्मत्प्रसादोपचिता हि यादवा

     आज्ञापयन्त्यद्य गतत्रपा बत ॥ २७ ॥

कथमिन्द्रोऽपि कुरुभिः भीष्मद्रोणार्जुनादिभिः ।

 अदत्तमवरुन्धीत सिंहग्रस्तमिवोरणः ॥ २८ ॥

 

 श्रीबादरायणिरुवाच -

जन्मबन्धुश्रीयोन्नद्ध मदास्ते भरतर्षभ ।

 आश्राव्य रामं दुर्वाच्यं असभ्याः पुरमाविशन् ॥ २९ ॥

 दृष्ट्वा कुरूनां दौःशील्यं श्रुत्वावाच्यानि चाच्युतः ।

 अवोचत् कोपसंरब्धो दुष्प्रेक्ष्यः प्रहसन् मुहुः ॥ ३० ॥

 नूनं नानामदोन्नद्धाः शान्तिं नेच्छन्त्यसाधवः ।

 तेषां हि प्रशमो दण्डः पशूनां लगुडो यथा ॥ ३१ ॥

 अहो यदून् सुसंरब्धाम् कृष्णं च कुपितं शनैः ।

 सान्त्वयित्वाहमेतेषां शममिच्छन् इहागतः ॥ ३२ ॥

 त इमे मन्दमतयः कलहाभिरताः खलाः ।

 तं मामवज्ञाय मुहुः दुर्भाषान् मानिनोऽब्रुवन् ॥ ३३ ॥

 नोग्रसेनः किल विभुः भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः ।

 शक्रादयो लोकपाला यस्यादेशानुवर्तिनः ॥ ३४ ॥

 सुधर्माऽऽक्रम्यते येन पारिजातोऽमराङ्‌घ्रिपः ।

 आनीय भुज्यते सोऽसौ न किलाध्यासनार्हणः ॥ ३५ ॥

 यस्य पादयुगं साक्षात् श्रीरुपास्तेऽखिलेश्वरी ।

 स नार्हति किल श्रीशो नरदेवपरिच्छदान् ॥ ३६ ॥

यस्याङ्‌घ्रिपङ्कजरजोऽखिललोकपालैः

     मौल्युत्तमैर्धृतमुपासिततीर्थतीर्थम् ।

 ब्रह्मा भवोऽहमपि यस्य कलाः कलायाः

     श्रीश्चोद्वहेम चिरमस्य नृपासनं क्व ॥ ३७ ॥

भुञ्जते कुरुभिर्दत्तं भूखण्डं वृष्णयः किल ।

 उपानहः किल वयं स्वयं तु कुरवः शिरः ॥ ३८ ॥

 अहो ऐश्वर्यमत्तानां मत्तानामिव मानिनाम् ।

 असंबद्धा गिरो रुक्षाः कः सहेतानुशासीता ॥ ३९ ॥

 अद्य निष्कौरवं पृथ्वीं करिष्यामीत्यमर्षितः ।

 गृहीत्वा हलमुत्तस्थौ दहन्निव जगत्त्रयम् ॥ ४० ॥

 लाङ्गलाग्रेण नगरं उद्विदार्य गजाह्वयम् ।

 विचकर्ष स गङ्गायां प्रहरिष्यन्नमर्षितः ॥ ४१ ॥

 जलयानमिवाघूर्णं गङ्गायां नगरं पतत् ।

 आकृष्यमाणमालोक्य कौरवाः जातसंभ्रमाः ॥ ४२ ॥

 तमेव शरणं जग्मुः सकुटुम्बा जिजीविषवः ।

 सलक्ष्मणं पुरस्कृत्य साम्बं प्राञ्जलयः प्रभुम् ॥ ४३ ॥

 राम रामाखिलाधार प्रभावं न विदाम ते ।

 मूढानां नः कुबुद्धीनां क्षन्तुमर्हस्यतिक्रमम् ॥ ४४ ॥

 स्थित्युत्पत्त्यप्ययानां त्वमेको हेतुर्निराश्रयः ।

 लोकान् क्रीडनकानीश क्रीडतस्ते वदन्ति हि ॥ ४५ ॥

त्वमेव मूर्ध्नीदमनन्त लीलया

     भूमण्डलं बिभर्षि सहस्रमूर्धन् ।

 अन्ते च यः स्वात्मनि रुद्धविश्वः

     शेषेऽद्वितीयः परिशिष्यमाणः ॥ ४६ ॥

कोपस्तेऽखिलशिक्षार्थं न द्वेषान्न च मत्सरात् ।

बिभ्रतो भगवन् सत्त्वं स्थितिपालनतत्परः ॥ ४७ ॥

नमस्ते सर्वभूतात्मन् सर्वशक्तिधराव्यय ।

विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु त्वां वयं शरणं गताः ॥ ४८ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

एवं प्रपन्नैः संविग्नैः वेपमानायनैर्बलः ।

 प्रसादितः सुप्रसन्नो मा भैष्टेत्यभयं ददौ ॥ ४९ ॥

 दुर्योधनः पारिबर्हं कुञ्जरान् षष्टिहायनान् ।

 ददौ च द्वादशशतानि अयुतानि तुरङ्गमान् ॥ ५० ॥

 रथानां षट्सहस्राणि रौक्माणां सूर्यवर्चसाम् ।

 दासीनां निष्ककण्ठीनां सहस्रं दुहितृवत्सलः ॥ ५१ ॥

 प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं भगवान् सात्वतर्षभः ।

 ससुतः सस्नुषः प्रायात् सुहृद्‌भिरभिनन्दितः ॥ ५२ ॥

ततः प्रविष्टः स्वपुरं हलायुधः

     समेत्य बन्धूननुरक्तचेतसः ।

 शशंस सर्वं यदुपुङ्गवानां

     मध्ये सभायां कुरुषु स्वचेष्टितम् ॥ ५३ ॥

अद्यापि च पुरं ह्येतत् सूचयद् रामविक्रमम् ।

 समुन्नतं दक्षिणतो गङ्गायां अनुदृश्यते ॥ ५४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! बलरामजीकी वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुषके उत्कर्षसे परिपूर्ण और उनकी शक्तिके अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोधसे तिलमिला उठे। वे कहने लगे॥ २३ ॥ अहो, यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है ! सचमुच कालकी चालको कोई टाल नहीं सकता। तभी तो आज पैरोंकी जूती उस सिरपर चढऩा चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुटसे सुशोभित है ॥ २४ ॥ इन यदुवंशियोंके साथ किसी प्रकार हमलोगोंने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्तिमें खाने लगे। हमलोगोंने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया ॥ २५ ॥ ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शङ्ख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्याका उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जान-बूझकर इस विषयमें उपेक्षा कर रखी है ॥ २६ ॥ बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियोंके पास अब राजचिह्न रहनेकी आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँपको दूध पिलाना पिलानेवालेके लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नोंको लेकर ये यदुवंशी हमसे ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसादसे तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमींपर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है ! शोक है ! ॥ २७ ॥ जैसे सिंह का ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तुका उपभोग कैसे कर सकते हैं ? ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्तिके घमंडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचारकी भी परवा नहीं की और वे भगवान्‌ बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ॥ २९ ॥ बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोध-से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोरसे हँसकर कहने लगे॥ ३० ॥ सच है, जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धनका घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका, रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना हैठीक वैसे ही, जैसे पशुओंको ठीक करनेके लिये डंडेका प्रयोग आवश्यक होता है ॥ ३१ ॥ भला, देखो तो सहीसारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोधसे भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनै:-शनै: समझा-बुझाकर इन लोगोंको शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ॥ ३२ ॥ फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं ! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ॥ ३३ ॥ ठीक है, भाई ! ठीक है। पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञाका पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी हैं ! ॥ ३४ ॥ क्यों ? जो सुधर्मासभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको उखाडक़र ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी राज- सिंहासनके अधिकारी नहीं हैं ! अच्छी बात है ! ॥ ३५ ॥ सारे जगत् की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरणकमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते ॥ ३६ ॥ ठीक है भाई! जिनके चरणकमलोंकी धूल संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गङ्गा आदि तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शङ्कर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला हैं और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है ! ॥ ३७ ॥ बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब ! हमलोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं ॥ ३८ ॥ ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुतासे भरी और बेसिर-पैरकी है। मेरे-जैसा पुरुषजो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता हैभला इनकी बातोंको कैसे सहन कर सकता है? ॥ ३९ ॥ आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ॥ ४० ॥ उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके लिये बड़े क्रोधसे गङ्गाजीकी ओर खींचने लगे ॥ ४१ ॥

हलसे खींचनेपर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने देखा कि हमारा नगर तो गङ्गाजीमें गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ॥ ४२ ॥ फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोडक़र सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान्‌ बलरामजीकी शरणमें गये ॥ ४३ ॥ और कहने लगे— ‘लोकाभिराम बलरामजी ! आप सारे जगत् के आधार शेषजी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो ! हमलोग मूढ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ ४४ ॥ आप जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ॥ ४५ ॥ अनन्त ! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेलमें ही इस भूमण्डलको अपने सिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ॥ ४६ ॥ भगवन् ! आप जगत्की स्थिति और पालनके लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ॥ ४७ ॥ समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन् ! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्वके रचयिता देव ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये॥ ४८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कौरवोंका नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान्‌ बलरामजीकी शरणमें आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और डरो मतऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ वर्षके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्यके समान चमकते हुए सोनेके छ: हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ॥ ५०-५१ ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्ब के साथ कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की ॥ ५२ ॥ अब बलराम जी द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जानने के लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ॥ ५३ ॥ परीक्षित्‌ ! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गङ्गाजी की ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार यह भगवान्‌ बलरामजी के पराक्रमकी सूचना दे रहा है ॥ ५४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे हस्तिनपुरकर्षणरूपसंकर्षणविजयो नाम अष्टषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

 शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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