गुरुवार, 24 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।

 सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १ ॥  

 

श्रीउद्धव उवाच -

यदुक्तं ऋषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।

 कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २ ॥

 यष्टव्यम्राजसूयेन दिक् चक्रजयिना विभो ।

 अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३ ॥

 अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।

 यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४ ॥

 स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।

 बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५ ॥

 द्‌वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।

 ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैः न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६ ॥

 ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।

 हनिष्यति न सन्देहो द्‌वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७ ॥

 निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।

 हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८ ॥

गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो

     राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।

 गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः

     पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९ ॥

जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।

 प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युद्धव वचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।

 देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११ ॥

 अथादिशत् प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।

 भृत्यान् दारुकजैत्रादीन् अनुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२ ॥

 निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।

 सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।

 सूतोपनीतं स्वरथं आरुहद् गरुडध्वजम् ॥ १३ ॥

ततो रथद्‌विपभटसादिनायकैः

     करालया परिवृत आत्मसेनया ।

 मृदङ्‌ग भेर्यानक शङ्खगोमुखैः

     प्रघोषघोषितककुभो निराक्रमत् ॥ १४ ॥

 नृवाजिकाञ्चन शिबिकाभिरच्युतं

     सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।

 वरांबराभरणविलेपनस्रजः

     सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५ ॥

 नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः

     करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।

 स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बराद्

     उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६ ॥

 बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरैः

     वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।

 दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेः

     यथार्णवः क्षुभिततिमिङ्‌गिलोर्मिभिः ॥ १७ ॥

 अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः

     प्रणम्य तं हृदि विदधद् विहायसा ।

 निशम्य तद्‌व्यवसितमाहृतार्हणो

     मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८ ॥

राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।

 मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९ ॥

 इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावद् अवदन् नृपान् ।

 तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के मतपर विचार किया और फिर वे कहने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहाभगवन् ! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥ इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़से छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके माता-पिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगोंकी ऊँची ध्वनिसे दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढक़र अपने पतिदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥ इसी प्रकार अनुचरोंकी स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भलीभाँति शृङ्गार करके खस आदिकी झोपडिय़ों, भाँति-भाँतिके तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढऩे-बिछाने आदिकी सामग्रियोंको बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरोंपर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियोंपर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरोंकी उछल-कूदसे क्षुब्ध समुद्रकी शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहलसे परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिनके समय उनपर पड़ती हुई सूर्यकी किरणोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्‌के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्र हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत ! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहनाडरो मत ! तुम लोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा॥ १९ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌ के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



बुधवार, 23 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

तत्रैकः पुरुषो राजन् आगतोऽपूर्वदर्शनः ।

 विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः ॥ २२ ॥

 स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः ।

 राज्ञामावेदयद् दुखं जरासन्धनिरोधजम् ॥ २३ ॥

 ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः ।

 प्रसह्य रुद्धास्तेनासन् अयुते द्वे गिरिव्रजे ॥ २४ ॥

 

 राजान ऊचुः -

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन ।

 वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥ २५ ॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः

     कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

 यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां

     सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ २६ ॥

 लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः

     सद् रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः ।

 कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश

     किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः ॥ २७ ॥

 स्वप्नायितं नृपसुखं परतंत्रमीश

     शश्वद्‌भयेन मृतकेन धुरं वहामः ।

 हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं

     क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह ॥ २८ ॥

 तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्‌घ्रियुग्मो

     बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात् ।

 यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको

     बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः ॥ २९ ॥

 यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र

     भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम् ।

 जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो

     युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि ॥ ३० ॥

 

 दूत उवाच -

इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्‌क्षिणः ।

 प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम् ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः ।

 बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः ।

 ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा ॥ ३३ ॥

 सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम् ।

 बभाषे सुनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम् ॥ ३४ ॥

 अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणां अकुतोभयम् ।

 ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः ॥ ३५ ॥

 न हि तेऽविदितं किञ्चित् लोकेषु ईश्वर कर्तृषु ।

 अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम् ॥ ३६ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

दृष्टा माया ते बहुशो दुरत्यया

     माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः ।

 भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिः

     वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्‌भुतम् ॥ ३७ ॥

 तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं

     स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः ।

 यद् विद्यमानात् मतयावभासते

     तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥ ३८ ॥

 जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं

     न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः ।

 लीलावतारैः स्वयशः प्रदीपकं

     प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ३९ ॥

अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम् ।

 राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम् ॥ ४० ॥

 यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः ।

 पारमेष्ठ्यकामो नृपतिः तद्‌भवाननुमोदताम् ॥ ४१ ॥

 तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः ।

 दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः ॥ ४२ ॥

 श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः ।

 तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः ॥ ४३ ॥

यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां

     भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम् ।

 मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो

     गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम् ॥ ४४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

तत्र तेष्वात्मपक्षेष्व गृण्हत्सु विजिगीषया ।

 वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः ॥ ४५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन् मंत्रार्थतत्त्ववित् ।

 अथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत् ॥ ४६ ॥

 इत्युपामंत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ।

 निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत ॥ ४७ ॥

 

एक दिनकी बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वारपर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान्‌ को उसके आने की सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया ॥ २२ ॥ उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको हाथ जोडक़र नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दु:ख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया॥ २३-२४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो ! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥ २५ ॥ भगवन् ! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। ऐसी अवस्थामें प्रभो ! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञाके विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझमें नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमेंउसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दु:ख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्त:करणके निष्कामभाव और निस्सङ्कल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। प्रभो ! यह अकेला ही दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता है और हमलोगोंको उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ोंको घेर रखे ॥ २९ ॥ चक्रपाणे ! आपने अठारह बार जरासन्धसे युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ त्रिभुवनमङ्गल ! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मत्र्यलोकमें गङ्गाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सभामें जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बातके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्धपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अत: उन्हें नारदजीकी बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदिके शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणीमें उद्धवजीसे कहा॥ ४५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव ! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे॥ ४६ ॥ जब उद्धवजीने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ॥ ४७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारे नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

श्रीशुक उवाच -

अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन् ।

 गृहीतकण्ठ्यः पतिभिः भाधव्यो विरहातुराः ॥ १ ॥

 वयांस्यरूरुवन् कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः ।

 गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः ॥ २ ॥

 मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यद् अतिशोभनम् ।

 परिरम्भणविश्लेषात् प्रियबाह्वन्तरं गता ॥ ३ ॥

 ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।

 दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ॥ ४ ॥

एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं

     स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम् ।

 ब्रह्माख्यमस्योद्‌भवनाशहेतुभिः

     स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम् ॥ ५ ॥

 अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि

     क्रियाकलापं परिधाय वाससी ।

 चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो

     हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः ॥ ६ ॥

उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वात्मनः कलाः ।

 देवान् ऋषीन् पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान् ॥ ७ ॥

 धेनूनां रुक्मश्रृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम् ।

 पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम् ॥ ८ ॥

 ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह ।

 अलङ्कृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने ॥ ९ ॥

 गोविप्रदेवतावृद्ध गुरून् भूतानि सर्वशः ।

 नमस्कृत्यात्मसंभूतीः मङ्गलानि समस्पृशत् ॥ १० ॥

 आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम् ।

 वासोभिर्भूषणैः स्वीयैः दिव्यस्रग् अनुलेपनैः ॥ ११ ॥

 अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः ।

 कामांश्च सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम् ।

 प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत ॥ १२ ॥

 संविभज्याग्रतो विप्रान् स्रक्‌ताम्बूलानुलेपनैः ।

 सुहृदः प्रकृतीर्दारान् उपायुङ्क्त ततः स्वयम् ॥ १३ ॥

 तावत् सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्‌भुतम् ।

 सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः ॥ १४ ॥

 गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत् ।

 सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः ॥ १५ ॥

 ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः ।

 कृच्छ्राद् विसृष्टो निरगात् जातहासो हरन् मनः ॥ १६ ॥

 सुधर्माख्यां सभां सर्वैः वृष्णिभिः परिवारितः ।

 प्राविशद् यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः ॥ १७ ॥

तत्रोपविष्टः परमासने विभुः

     बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन् ।

 वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो

     यथोडुराजो दिवि तारकागणैः ॥ १८ ॥

तत्रोपमंत्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम् ।

 उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक् ॥ १९ ॥

 मृदङ्गवीणामुरज वेणुतालदरस्वनैः ।

 ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः ॥ २० ॥

 तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचित् आसीना ब्रह्मवादिनः ।

 पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठमें श्रीकृष्णने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोहकी आशङ्का से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगोंको कोसने लगतीं ॥ १ ॥ उस समय पारिजातकी सुगन्धसे सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरे तालस्वरसे अपनी सङ्गीतकी तान छेड़ देते। पक्षियोंकी नींद उचट जाती और वे वंदीजनोंकी भाँति भगवान्‌ श्रीकृष्णको जगानेके लिये मधुर स्वरसे कलरव करने लगते ॥ २ ॥ रुक्मिणीजी अपने प्रियतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आलिङ्गन छूट जानेकी आशङ्कासे अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्तको भी असह्य समझने लगती थीं ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूपका ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठता था ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकारकी उपाधि या उपाधिके कारण होनेवाला अन्य वस्तुका अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रियके द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित होती है, वैसे वह आत्म- स्वरूप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूपमें ही सदा-सर्वदा और कालकी सीमाके परे भी एकरस स्थित रहनेके कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियोंके द्वारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्द-स्वरूप है। उसीको समझानेके लिये ब्रह्मनामसे कहा जाता है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूपका प्रतिदिन ध्यान करते ॥ ५ ॥ इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जलमें स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढक़र यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्रीका जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषोंके पात्र आदर्श जो हैं ॥ ६ ॥ इसके बाद सूर्योदय होनेके समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करते। फिर कुलके बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाली सीधी-शान्त गौओंका दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियोंकी माला पहना दी जाती । सींगमें सोना और खुरोंमें चाँदी मढ़ दी जाती । वे ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिलके साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते ॥ ७९ ॥ तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुलके बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियोंको प्रणाम करके माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करते ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌के शरीरका सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोकका अलङ्कार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पोंके हार और चन्दनादि दिव्य अङ्गरागसे अपनेको आभूषित करते ॥ ११ ॥ इसके बाद वे घी और दर्पणमें अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओंका दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्त:पुरमें रहनेवाले चारों वर्णोंके लोगोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजाकी कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते ॥ १२ ॥ वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और अङ्गराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजन- सम्बन्धी, मन्त्री और रानियोंको बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काममें लाते ॥ १३ ॥ भगवान्‌ यह सब करते होते, तबतक दारुक नामका सारथि सुग्रीव आदि घोड़ोंसे जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान्‌ के सामने खड़ा हो जाता ॥ १४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजीके साथ अपने हाथसे सारथिका हाथ पकडक़र रथपर सवार होतेठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान्‌ सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं ॥ १५ ॥ उस समय रनिवासकी स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेमसे भरी चितवनसे उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्टसे उन्हें विदा करतीं। भगवान्‌ मुसकराकर उनके चित्तको चुराते हुए महलसे निकलते ॥ १६ ॥

परीक्षित्‌ ! तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियोंके साथ सुधर्मा नामकी सभामें प्रवेश करते। उस सभाकी ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभामें जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक- मोह और जरा मृत्युये छ: ऊर्मियाँ नहीं सतातीं ॥ १७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण सब रानियोंसे अलग-अलग विदा होकर एक ही रूपमें सुधर्मा-सभामें प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासनपर विराज जाते। उनकी अङ्गकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरोंके बीचमें यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा होती, जैसे आकाशमें तारोंसे घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! सभामें विदूषकलोग विभिन्न प्रकारके हास्य- विनोदसे, नटाचार्य अभिनयसे और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्योंसे अलग-अलग अपनी टोलियोंके साथ भगवान्‌की सेवा करतीं ॥ १९ ॥ उस समय मृदङ्ग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शङ्ख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान्‌ की स्तुति करते ॥ २० ॥ कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियोंके चरित्र कह-कहकर सुनाते ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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