मंगलवार, 29 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

 

बहुरूपैकरूपं तद् दृश्यते न च दृश्यते ।

मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत् ॥ २१ ॥

क्वचिद्‌भूमौ क्वचिद्‌ व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित् ।

अलातचक्रवद्‌ भ्राम्यत् सौभं तद् दुरवस्थितम् ॥ २२ ॥

यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः ।

शाल्वः ततस्ततोऽमुञ्चन् शरान् सात्वतयूथपाः ॥ २३ ॥

शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैः आशीविषदुरासदैः ।

पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत् परेरितैः ॥ २४ ॥

शाल्वानीकपशस्त्रौघैः वृष्णिवीरा भृशार्दिताः ।

न तत्यजू रणं स्वं स्वं लोकद्वयजिगीषवः ॥ २५ ॥

शाल्वामात्यो द्युमान् नाम प्रद्युम्नं प्राक् प्रपीडितः ।

आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद् बली ॥ २६ ॥

प्रद्युम्नं गदया शीर्ण वक्षःस्थलमरिंदमम् ।

अपोवाह रणात् सूतो धर्मविद् दारुकात्मजः ॥ २७ ॥

लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत् ।

अहो असाध्विदं सूत यद् रणान्मेऽपसर्पणम् ॥ २८ ॥

न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः ।

विना मत्क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषात् ॥ २९ ॥

किं नु वक्ष्येऽभिसङ्‌गम्य पितरौ रामकेशवौ ।

युद्धात् सम्यगपक्रान्तः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम् ॥ ३० ॥

व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः ।

क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे ॥ ३१ ॥

 

सारथिरुवाच -

धर्मं विजानताऽऽयुष्मन् कृतमेतन्मया विभो ।

सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद् रथिनं सारथिं रथी ॥ ३२ ॥

एतद्‌ विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात् ।

उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः ॥ ३३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! मय- दानव का बनाया हुआ शाल्वका वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपोंमें दीखता तो कभी एकरूपमें, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियोंको इस बातका पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है ॥ २१ ॥ वह कभी पृथ्वीपर आ जाता तो कभी आकाशमें उडऩे लगता। कभी पहाडक़ी चोटीपर चढ़ जाता, तो कभी जलमें तैरने लगता। वह अलात-चक्रके समानमानो कोई दुमुँही लुकारियोंकी बनेठी भाँज रहा होघूमता रहता था, एक क्षणके लिये भी कहीं ठहरता न था ॥ २२ ॥ शाल्व अपने विमान और सैनिकोंके साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणोंकी झड़ी लगा देते थे ॥ २३ ॥ उनके बाण सूर्य और अग्रिके समान जलते हुए तथा विषैले साँपकी तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्वका नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीडि़त हो गयी, यहाँतक कि यदुवंशियोंके बाणोंसे शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! शाल्वके सेनापतियोंने भी यदुवंशियोंपर खूब शस्त्रोंकी वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीडि़त थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजयकी प्राप्ति होगी ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! शाल्व के मन्त्रीका नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्नजी पर अपनी फौलादी गदासे बड़े जोरसे प्रहार किया और मार लिया, मार लियाकहकर गरजने लगा ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! गदाकी चोटसे शत्रुदमन प्रद्युम्रजीका वक्ष:स्थल फट-सा गया। दारुकका पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथिधर्म के अनुसार उन्हें रणभूमिसे हटा ले गया ॥ २७ ॥ दो घड़ीमें प्रद्युम्नजी की मूर्छा टूटी। तब उन्होंने सारथिसे कहा—‘सारथे ! तूने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय ! तू मुझे रणभूमिसे हटा लाया ? ॥ २८ ॥ सूत ! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंशका कोई भी वीर कभी रणभूमि छोडक़र अलग हट गया हो ! यह कलङ्क का टीका तो केवल मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत ! तू कायर है, नपुंसक है ॥ २९ ॥ बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्णके सामने जाकर क्या कहूँगा ? अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्धसे भग गया ? उनके पूछनेपर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा ॥ ३० ॥ मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो वीर ! तुम नपुंसक कैसे हो गये ? दूसरोंने युद्धमें तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया ? सूत ! अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमिसे भगाकर अक्षम्य अपराध किया है !॥ ३१ ॥

सारथिने कहाआयुष्मन् ! मैंने जो कुछ किया है, सारथिका धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी ! युद्धका ऐसा धर्म है कि सङ्कट पडऩेपर सारथि रथीकी रक्षा कर ले और रथी सारथिकी ॥ ३२ ॥ इस धर्मको समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमिसे हटाया है। शत्रुने आपपर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े सङ्कटमें थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा ॥ ३३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शाल्वयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध

 

श्रीशुक उवाच -

अथान्यदपि कृष्णस्य श्रृणु कर्माद्‌भुतं नृप ।

 क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः ॥ १ ॥

 शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्‌वाह आगतः ।

 यदुभिर्निर्जितः सङ्ख्ये जरासन्धादयस्तथा ॥ २ ॥

 शाल्वः प्रतिज्ञामकरोत् श्रृण्वतां सर्वभूभुजाम् ।

 अयादवां क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत ॥ ३ ॥

 इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम् ।

 आराधयामास नृपः पांसुमुष्टिं सकृद् ग्रसन् ॥ ४ ॥

 संवत्सरान्ते भगवान् आशुतोष उमापतिः ।

 वरेण च्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम् ॥ ५ ॥

 देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।

 अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम् ॥ ६ ॥

 तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरंजयः ।

 पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात् सौभमयस्मयम् ॥ ७ ॥

 स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम् ।

 ययस्द्‌वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन् ॥ ८ ॥

 निरुध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ ।

 पुरीं बभञ्जोपवनान् उद्यानानि च सर्वशः ॥ ९ ॥

 सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः ।

 विहारान् स विमानाग्र्यान् निपेतुः शस्त्रवृष्टयः ॥ १० ॥

 शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः ।

 प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूत् रजसाच्छादिता दिशः ॥ ११ ॥

 इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम् ।

 नाभ्यपद्यत शं राजन् त्रिपुरेण यथा मही ॥ १२ ॥

 प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः ।

 म भैष्टेत्यभ्यधाद्‌ वीरो रथारूढो महायशाः ॥ १३ ॥

 सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः ।

 हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ ॥ १४ ॥

 अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः ।

 निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः ॥ १५ ॥

 ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह ।

 यथासुराणां विबुधैः तुमुलं लोमहर्षणम् ॥ १६ ॥

 ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः ।

 क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः ॥ १७ ॥

 विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः ।

 शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः ॥ १८ ॥

 शतेनाताडयच्छाल्वं एकैकेनास्य सैनिकान् ।

 दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः ॥ १९ ॥

 तदद्‌भुतं महत् कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः ।

 दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णका एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमानका अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान्‌ के हाथसे मारा गया ॥ १ ॥ शाल्व शिशुपालका सखा था और रुक्मिणीके विवाहके अवसरपर बारातमें शिशुपालकी ओरसे आया हुआ था। उस समय यदुवंशियोंने युद्धमें जरासन्ध आदिके साथ-साथ शाल्वको भी जीत लिया था ॥ २ ॥ उस दिन सब राजाओंके सामने शाल्वने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वीसे यदुवंशियोंको मिटाकर छोडूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना॥ ३ ॥ परीक्षित्‌ ! मूढ़ शाल्वने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान्‌ पशुपतिकी आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिनमें केवल एक बार मुट्ठीभर राख फाँक लिया करता था ॥ ४ ॥ यों तो पार्वतीपति भगवान्‌ शङ्कर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्वका घोर सङ्कल्प जानकर एक वर्षके बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्वसे वर माँगनेके लिये कहा ॥ ५ ॥ उस समय शाल्वने यह वर माँगा, कि मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये, जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंसे तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियोंके लिये अत्यन्त भयङ्कर हो॥ ६ ॥ भगवान्‌ शङ्कर ने कह दिया तथास्तु !इसके बाद उनकी आज्ञासे विपक्षियोंके नगर जीतनेवाले मयदानव ने लोहे का सौभनामक विमान बनाया और शाल्वको दे दिया ॥ ७ ॥ वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकडऩा अत्यन्त कठिन था। चलानेवाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्वने वह विमान प्राप्त करके द्वारकापर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवोंद्वारा किये हुए वैरको सदा स्मरण रखता था ॥ ८ ॥

परीक्षित्‌ ! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेनासे द्वारका को चारों ओरसे घेर लिया और फिर उसके फल-फूलसे लदे हुए उपवन और उद्यानों को उजाडऩे और नगरद्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनो दके स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमानसे शस्त्रोंकी झड़ी लग गयी ॥ ९-१० ॥ बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोरका बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! प्राचीनकालमें जैसे त्रिपुरासुरने सारी पृथ्वीको पीडि़त कर रखा था, वैसे ही शाल्वके विमानने द्वारकापुरीको अत्यन्त पीडि़त कर दिया। वहाँके नर-नारियोंको कहीं एक क्षणके लिये भी शान्ति न मिलती थी ॥ १२ ॥ परमयशस्वी वीर भगवान्‌ प्रद्युम्न ने देखाहमारी प्रजाको बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि डरो मत॥ १३ ॥ उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयोंके साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षाके लिये बहुत-से रथ, हाथी घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी ॥ १४-१५ ॥ इसके बाद प्राचीन कालमें जैसे देवताओं के साथ असुरोंका घमासान युद्ध हुआ था, वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे ॥ १६ ॥ प्रद्युम्नजी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षणभर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से  रात्रि   का अन्धकार मिटा देते हैं ॥ १७ ॥ प्रद्युम्न जी के बाणोंमें सोने के पंख एवं लोहेके फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़ती थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणोंसे शाल्वके सेनापतिको घायल कर दिया ॥ १८ ॥ परममनस्वी प्रद्युम्नजी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथियों को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणोंसे घायल किया ॥ १९ ॥ महामना प्रद्युम्न जी के इस अद्भुत और महान् कर्म को देखकर अपने एवं परायेसभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ २० ॥

 

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सोमवार, 28 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान

 

अथ ऋत्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः ।

 ब्रह्मक्षत्रियविट्शुद्रा राजानो ये समागताः ॥ २५ ॥

 देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः ।

 पूजितास्तं अनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप ॥ २६ ॥

 हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम् ।

 नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा ॥ २७ ॥

 ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत् संबंन्धि बान्धवान् ।

 प्रेम्णा निवारयामास कृष्णं च त्यागकातरः ॥ २८ ॥

 भगवानपि तत्राङ्‌ग न्यवात्सीत् तत्प्रियंकरः ।

 प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम् ॥ २९ ॥

 इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम् ।

 सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद् गतज्वरः ॥ ३० ॥

 एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम् ।

 अतप्यद् राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः ॥ ३१ ॥

यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्र सुरेन्द्रलक्ष्मीः

     नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपकॢप्ताः ।

 ताभिः पतीन्द्रुपदराजसुतोपतस्थे

     यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत् ॥ ३२ ॥

 यस्मिन् तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं

     श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदङ्‌घ्रिशोभम् ।

 मध्ये सुचारु कुचकुङ्कुमशोणहारं

     श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम् ॥ ३३ ॥

सभायां मयकॢप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट् ।

 वृतोऽनुगैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा ॥ ३४ ॥

 आसीनः काञ्चने साक्षात् आसने मघवानिव ।

 पारमेष्ठ्यश्रीया जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ॥ ३५ ॥

 तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप ।

 किरीटमाली न्यविशद् असिहस्तः क्षिपन् रुषा ॥ ३६ ॥

 स्थलेऽभ्यगृह्णाद् वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत् ।

 जले च स्थलवद् भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः ॥ ३७ ॥

 जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे ।

 निवार्यमाणा अप्यङ्‌ग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः ॥ ३८ ॥

स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्

     निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम् ।

 हाहेति शब्दः सुमहानभूत् सतां

     अजातशत्रुर्विमना इवाभवत् ।

 बभूव तूष्णीं भगवान्भुवो भरं

     समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद् दृशा ॥ ३९ ॥

एतत्तेऽभिहितं राजन् यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।

 सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! राजसूय यज्ञमें जितने लोग आये थेपरम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियोंके साथ लोकपालइन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिरने की। इसके बाद वे लोग धर्मराजसे अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ २५-२६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिरके राजसूय महायज्ञकी प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे ॥ २७ ॥ इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान्‌ श्रीकृष्णको भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उनके विछोहकी कल्पनासे ही बड़ा दु:ख होता था ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुवंशी वीर साम्ब आदिको द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द देनेके लिये वहीं रह गये ॥ २९ ॥ इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान् समुद्र को, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ॥ ३० ॥

एक दिनकी बात है, भगवान्‌के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिरके अन्त:पुरकी सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त महत्त्वको देखकर दुर्योधनका मन डाहसे जलने लगा ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! पाण्डवोंके लिये मयदानवने जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति और सुर- पतियोंकी विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थानपर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियोंकी सेवा करती थीं। उस राजभवनमें उन दिनों भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्बके भारी भारके कारण जब वे उस राजभवनमें धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबोंकी झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरकी लालिमासे मोतियोंके सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलोंकी और घुँघराली अलकोंकी चञ्चलतासे उनके मुखकी शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधनके हृदयमें बड़ी जलन होती। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो दुर्योधनका चित्त द्रौपदीमें आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था ॥ ३२-३३ ॥

एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनोंके तारे परम हितैषी भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ मयदानवकी बनायी सभामें स्वर्णसिंहासनपर देवराज इन्द्रके समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजीके ऐश्वर्यके समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दु:शासन आदि भाइयोंके साथ वहाँ आया। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें माला और हाथमें तलवार थी। परीक्षित्‌ ! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकोंको झिडक़ रहा था ॥ ३६ ॥ उस सभामें मयदानवने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधनने उससे मोहित हो स्थलको जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जलको स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा ॥ ३७ ॥ उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करनेसे रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित्‌ ! उन्हें इशारेसे श्रीकृष्णका अनुमोदन प्राप्त हो चुका था ॥ ३८ ॥ इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोधसे जलने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटनाको देखकर सत्पुरुषोंमें हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिरका मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित्‌ ! यह सब होनेपर भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वीका भार उतर जाय; और सच पूछो, तो उन्हीं की दृष्टिसे दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय यज्ञमें दुर्योधन को डाह क्यों हुआ ? जलन क्यों हुई ? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्योधनमानभंगो नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान

 

श्रीराजोवाच -

अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम् ।

 सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः ॥ १ ॥

 दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः ।

 इति श्रुतं नो भगवन् तत्र कारणमुच्यताम् ॥ २ ॥

 

 श्रीबादरायणिरुवाच -

पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः ।

 बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबंधनाः ॥ ३ ॥

 भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः ।

 सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने ॥ ४ ॥

 गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने ।

 परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः ॥ ५ ॥

 युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः ।

 बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः ॥ ६ ॥

 निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा ।

 प्रवर्तन्ते स्म राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः ॥ ७ ॥

ऋत्विक् सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु

     स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः ।

 चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे

     चक्रुस्ततस्त्ववभृथ स्नपनं द्युनद्याम् ॥ ८ ॥

मृदङ्‌गशङ्खपणव धुन्धुर्यानकगोमुखाः ।

 वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे ॥ ९ ॥

 नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः ।

 वीणावेणुतलोन्नादः तेषां स दिवमस्पृशत् ॥ १० ॥

 चित्रध्वजपताकाग्रैः इभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः ।

 स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः ॥ ११ ॥

 यदुसृञ्जयकाम्बोज कुरुकेकयकोशलाः ।

 कम्पयन्तो भुवं सैन्यैः यजनपुरःसराः ॥ १२ ॥

 सदस्यर्त्विग्द्‌विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

 देवर्षिपितृगन्धर्वाः तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः ॥ १३ ॥

 स्वलंकृता नरा नार्यो गन्धस्रग् भूषणाम्बरैः ।

 विलिंपन्त्यो अभिसिंच विजह्रुर्विविधै रसैः ॥ १४ ॥

 तैलगोरसगन्धोद हरिद्रासान्द्रकुंकुमैः ।

 पुम्भिर्लिप्ताः प्रलिंपन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः ॥ १५ ॥

गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्

     देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः ।

 ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः

     सव्रीडहासविकसद् वदना विरेजुः ॥ १६ ॥

 ता देवरानुत सखीन् सिन्सिषिचुर्दृतीभिः

     क्लिन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः ।

 औत्सुक्यमुक्त कवरा च्च्यवमानमाल्याः

     क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः ॥ १७ ॥

स सम्राड् रथमारुढः सदश्वं रुक्ममालिनम् ।

 व्यरोचत स्वपत्‍नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव ॥ १८ ॥

 पत्‍नीसंयाजावभृथ्यैः चरित्वा ते तमृत्विजः ।

 आचान्तं स्नापयां चक्रुः गंगायां सह कृष्णया ॥ १९ ॥

 देवदुन्दुभयो नेदुः नरदुंदुभिभिः समम् ।

 मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः ॥ २० ॥

 सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः ।

 महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ॥ २१ ॥

 अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलङ्कृतः ।

 ऋत्विक् सदस्य विप्रादीन् आनर्चाभरणाम्बरैः ॥ २२ ॥

 बन्धूञ्ज्ञातीन् नृपान् मित्र सुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः ।

 अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः ॥ २३ ॥

सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्रग्

     उष्णीषकञ्चुक दुकूलमहार्घ्यहाराः ।

 नार्यश्च कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट

     वक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः ॥ २४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमहोत्सवको देखकर, जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधनको बड़ा दु:ख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुखसे सुनी है। भगवन् ! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराजने कहापरीक्षित्‌ ! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धनसे बँधकर सभी बन्धु-बान्धवोंने राजसूय यज्ञमें विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था ॥ ३ ॥ भीमसेन भोजनालयकी देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कारमें नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकारकी सामग्री एकत्र करनेका काम देखते थे ॥ ४ ॥ अर्जुन गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियोंके पाँव पखारनेका काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसनेका काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीकके पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञमें विभिन्न कर्मोंमें नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिरका प्रिय और हित हो ॥६-७॥

 

परीक्षित्‌ ! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषोंका तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवोंका सुमधुर वाणी, विविध प्रकारकी पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदिसे भलीभाँति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान्‌के चरणोंमें समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गङ्गाजीमें यज्ञान्त- स्नान करने गये ॥ ८ ॥ उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदङ्ग, शङ्ख, ढोल, नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरहके बाजे बजने लगे ॥ ९ ॥ नर्तकियाँ आनन्दसे झूम-झूमकर नाचने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनकी तुमुल ध्वनि सारे आकाशमें गूँज गयी ॥ १० ॥ सोनेके हार पहने हुए यदु, सृञ्जय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देशके नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त और खूब सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महाराज युधिष्ठिरको आगे करके पृथ्वीको कँपाते हुए चल रहे थे ॥ ११-१२ ॥ यज्ञके सदस्य ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रोंका ऊँचे स्वरसे उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ इन्द्रप्रस्थके नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पोंके हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणोंसे सज-धजकर एक-दूसरेपर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरेके शरीरमें लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे ॥ १४ ॥ वाराङ्गनाएँ पुरुषोंको तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओंसे सराबोर कर देते ॥ १५ ॥

उस समय इस उत्सवको देखनेके लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानोंपर चढक़र आकाशमें बहुत- सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकोंके द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थकी बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर- सुन्दर पालकियोंपर सवार होकर आयी थीं। पाण्डवोंके ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियोंके ऊपर तरह-तरहके रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियोंके मुख लजीली मुसकराहटसे खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी ॥ १६ ॥ उन लोगोंके रंग आदि डालनेसे रानियोंके वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गवक्ष:स्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रोंमें रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओंपर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकताके कारण उनकी चोटियों और जूड़ोंके बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित्‌ ! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्त:करणवाले पुरुषोंका चित्त चञ्चल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ॥ १७ ॥ चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियोंके साथ सुन्दर घोड़ोंसे युक्त एवं सोनेके हारोंसे सुसज्जित रथपर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओंके साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो ॥ १८ ॥ ऋत्विजोंने पत्नी-संयाज (एक प्रकारका यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदीके साथ सम्राट् युधिष्ठिरको आचमन करवाया और इसके बाद गङ्गास्नान ॥ १९ ॥ उस समय मनुष्योंकी दुन्दुभियोंके साथ ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २० ॥ महाराज युधिष्ठिरके स्नान कर लेनेके बाद सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोगोंने गङ्गाजीमें स्नान किया; क्योंकि इस स्नानसे बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ २१ ॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकारके आभूषणोंसे अपनेको सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदिको वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की ॥ २२ ॥ महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सबमें भगवान्‌के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगोंकी बार-बार पूजा करते ॥ २३ ॥ उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पोंके हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियोंके बहुमूल्य हार पहनकर देवताओंके समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियोंके मुखोंकी भी दोनों कानोंके कर्णफूल और घुँघराली अलकोंसे बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभागमें सोनेकी करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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