शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः ।

प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैः द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम् ॥ ५१ ॥

अथर्त्विग्भ्योऽददात्काले यथाम्नातं स दक्षिणाः ।

स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः ॥ ५२ ॥

पत्‍नीसंयाजावभृथ्यैः चरित्वा ते महर्षयः ।

सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः ॥ ५३ ॥

स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः ।

ततः स्वलङ्कृतो वर्णान् आश्वभ्योऽन्नेन पूजयत् ॥ ५४ ॥

बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा ।

विदर्भकोशलकुरून् काशिकेकय सृञ्जयान् ॥ ५५ ॥

सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान् ।

श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम् ॥ ५६ ॥

धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ ।

नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्संबंधिबांधवाः ॥ ५७ ॥

बन्धून्परिष्वज्य यदून् सौहृदाक्लिन्नचेतसः ।

ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः ॥ ५८ ॥

नन्दस्तु सह गोपालैः बृहत्या पूजयार्चितः ।

कृष्णरामोग्रसेनाद्यैः न्यवात्सीद्‌बन्धुवत्सलः ॥ ५९ ॥

वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम् ।

सुहृद्‌वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन् ॥ ६० ॥

 

श्रीवसुदेव उवाच -

भ्रातरीशकृतः पाशो नृनां यः स्नेहसंज्ञितः ।

तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम् ॥ ६१ ॥

अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।

मैत्र्यर्पिताफला चापि न निवर्तेत कर्हिचित् ॥ ६२ ॥

प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि ।

अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः ॥ ६३ ॥

मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद ।

स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक् ॥ ६४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं सौहृदशैथिल्य चित्त आनकदुन्दुभिः ।

रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन् अश्रुविलोचनः ॥ ६५ ॥

नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविन्दरामयोः ।

अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत् ॥ ६६ ॥

ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः ।

परार्ध्याभरणक्षौम नानानर्घ्यपरिच्छदैः ॥ ६७ ॥

वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः ।

दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ ॥ ६८ ॥

नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे ।

मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुं अनीशा मथुरां ययुः ॥ ६९ ॥

बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः ।

वीक्ष्य प्रावृषमासन्नाद् ययुर्द्वारवतीं पुनः ॥ ७० ॥

जनेभ्यः कथयां चक्रुः यदुदेवमहोत्सवम् ।

यदासीत् तीर्थयात्रायां सुहृत् संदर्शनादिकम् ॥ ७१ ॥

 

वसुदेवजी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानकेमन्त्रों के स्वामी विष्णु- भगवान्‌ की आराधना की ॥ ५१ ॥ इसके बाद उन्होंने उचित समयपर ऋत्विजोंको वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलङ्कृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं ॥ ५२ ॥ इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञाङ्ग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये ह्रदमेंरामह्रदमें स्नान किया ॥ ५३ ॥ स्नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदीजनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री- पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृञ्जय आदि देशोंके राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणोंको विदाई के रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥ ५५-५६ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान्‌ व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोडक़र जानेमें अत्यन्त विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहाद्र्र चित्तसे यदुवंशियोंका आलिङ्गन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ॥ ५७-५८ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम- परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकडक़र कहा ॥ ६० ॥

वसुदेवजीने कहाभाईजी ! भगवान्‌ने मनुष्योंके लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोडऩेमें असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम मित्रताका व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियोंका तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे ॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्तिके नशेसेश्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते ॥ ६३ ॥ दूसरोंको सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिलेइसीमें उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोंतकको नहीं देख पाता ॥ ६४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ॥ ६५ ॥ नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये। यदुवंशियोंने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६ ॥ इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया ॥ ६७ ॥ वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियोंने अलग- अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना हुए ॥ ६८ ॥ नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की ॥ ६९ ॥

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगोंसे वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसङ्गों को कह सुनाया ॥ ७१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा ।

दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः ॥ ३६ ॥

अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः ।

यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः ॥ ३७ ॥

वित्तैषणां यज्ञदानैः गृहैर्दारसुतैषणाम् ।

आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद्‌बुधः ।

ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम् ॥ ३८ ॥

ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितॄणां प्रभो ।

यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तानि अनिस्तीर्य त्यजन्पतेत् ॥ ३९ ॥

त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते ।

यज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ॠणोऽशरणो भव ॥ ४० ॥

वसुदेव भवान्नूनं भक्त्या परमया हरिम् ।

जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद्वां पुत्रतां गतः ॥ ४१ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः ।

तान् ऋषीन् ऋत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च ॥ ४२ ॥

त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम् ।

तस्मिन् अयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः ॥ ४३ ॥

तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः ।

स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः ॥ ४४ ॥

तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः ।

दीक्षाशालामुपाजग्मुः आलिप्ता वस्तुपाणयः ॥ ४५ ॥

नेदुर्मृदङ्गपटह शङ्खभेर्यानकादयः ।

ननृतुर्नटनर्तक्यः तुष्टुवुः सूतमागधाः ।

जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः संगीतं सहभर्तृकाः ॥ ४६ ॥

तमभ्यषिञ्चन् विधिवद् अक्तं अभ्यक्तमृत्विजः ।

पत्‍नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः ॥ ४७ ॥

ताभिर्दुकूलवलयैः हारनूपुरकुण्डलैः ।

स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः ॥ ४८ ॥

तस्यर्त्विजो महाराज रत्‍नकौशेयवाससः ।

ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे ॥ ४९ ॥

तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैः बन्धुभिरन्वितौ ।

रेजतुः स्वसुतैर्दारैः जीवेशौ स्वविभूतिभिः ॥ ५० ॥

 

त्रिकालदर्शी ज्ञानियोंने शास्त्रदृष्टिसे यही चित्तकी शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है ॥ ३६ ॥ अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान्‌ की आराधना करना ही द्विजातिब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग है ॥ ३७ ॥ वसुदेवजी ! विचारवान् पुरुषको चाहिये कि यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्रकी इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैंइस विचारसे लोकैषणाको त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों प्रकारकी एषणाओंइच्छाओंका परित्याग करके तपोवनका रास्ता लिया करते थे ॥ ३८ ॥ समर्थ वसुदेवजी ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीनों देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसारका त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है ॥ ३९ ॥ परम बुद्धिमान् वसुदेवजी ! आप अबतक ऋषि और पितरोंके ऋणसे तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञोंके द्वारा देवताओंका ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान्‌ की शरण हो जाइये ॥ ४० ॥ वसुदेवजी ! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वर भगवान्‌ की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं ॥ ४१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! परम मनस्वी वसुदेवजीने ऋषियोंकी यह बात सुनकर, उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञके लिये ऋत्विजोंके रूपमें उनका वरण कर लिया ॥ ४२ ॥ राजन् ! जब इस प्रकार वसुदेवजीने धर्मपूर्वक ऋषियोंको वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें परम धाॢमक वसुदेवजीके द्वारा उत्तमोत्तम सामग्रीसे युक्त यज्ञ करवाये ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब वसुदेवजीने यज्ञकी दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियोंने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलोंकी मालाएँ धारण कर लीं, राजालोग वस्त्राभूषणोंसे खूब सुसज्जित हो गये ॥ ४४ ॥ वसुदेवजीकी पत्नियोंने सुन्दर वस्त्र, अङ्गराग और सोनेके हारोंसे अपनेको सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्दसे अपने-अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर यज्ञशालामें आयीं ॥ ४५ ॥ उस समय मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वोंके साथ सुरीले गलेवाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं ॥ ४६ ॥ वसुदेवजीने पहले नेत्रोंमें अंजन और शरीरमें मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियोंके साथ उन्हें ऋत्विजोंने महाभिषेककी विधिसे वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमाका अभिषेक हुआ था ॥ ४७ ॥ उस समय यज्ञमें दीक्षित होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणोंसे खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियोंके साथ भलीभाँति शोभायमान हुए ॥ ४८ ॥ महाराज ! वसुदेवजीके ऋत्विज और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्रके यज्ञमें हुए थे ॥ ४९ ॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियोंके साथ समस्त जीवोंके ईश्वर स्वयं भगवान्‌ समष्टि जीवोंके अभिमानी श्रीसङ्कर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायण- स्वरूपमें शोभायमान होते हैं ॥ ५० ॥

 

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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

श्रीमुनय ऊचुः -

यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं

     विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः ।

 यदीशितव्यायति गूढ ईहया

     अहो विचित्रं भगवद् विचेष्टितम् ॥ १६ ॥

 अनीह एतद्‌ बहुधैक आत्मना

     सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा ।

 भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी

     अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ १७ ॥

 अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये

     बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च ।

 स्वलीलया वेदपथं सनातनं

 वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान् ॥ १८ ॥

ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः ।

यत्रोपलब्धं सद्व्यक्तं अव्यक्तं च ततः परम् ॥ १९ ॥

तस्माद्‌ ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः ।

सभाजयसि सद्धाम तद्‌ ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान् ॥ २० ॥

अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः ।

त्वया सङ्गम्य सद्‌गत्या यदन्तः श्रेयसां परः ॥ २१ ॥

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

स्वयोगमाययाच्छन्न महिम्ने परमात्मने ॥ २२ ॥

न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः ।

मायाजवनिकाच्छन्नं आत्मानं कालमीश्वरम् ॥ २३ ॥

यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक् ।

नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम् ॥ २४ ॥

एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया ।

मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात् ॥ २५ ॥

तस्याद्य ते ददृशिमाङ्‌घ्रिमघौघमर्ष

     तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः ।

 उत्सिक्तभक्त्युपहताशय जीवकोशा

     आपुर्भवद्‌गतिमथानुगृहान भक्तान् ॥ २६ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम् ।

 राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः ॥ २७ ॥

 तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः ।

 प्रणम्य चोपसङ्गृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः ॥ २८ ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच -

नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ ।

 कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम् ॥ २९ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया ।

 कृष्णं मत्वार्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः ॥ ३० ॥

 सन्निकर्षोऽत्र मर्त्यानां अनादरणकारणम् ।

 गाङ्गं हित्वा यथान्याम्भः तत्रत्यो याति शुद्धये ॥ ३१ ॥

 यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै ।

 स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति ॥ ३२ ॥

तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहैः

     अव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम् ।

 प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो

     मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः ॥ ३३ ॥

अथोचुर्मुनयो राजन् आभाष्यानकदुंदुभिम् ।

 सर्वेषां श्रृणतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः ॥ ३४ ॥

 कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधुनिरूपितः ।

 यच्छ्रद्धया यजेद् विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः ॥ ३५ ॥

 

मुनियोंने कहाभगवन् ! आपकी मायासे प्रजापतियोंके अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओंसे अपनेको छिपाये रखकर जीवकी भाँति आचरण करते हैं। भगवन् ! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है ॥ १६ ॥ जैसे पृथ्वी अपने विकारोंवृक्ष, पत्थर, घट आदिके द्वारा बहुत-से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तवमें वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होनेपर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आपसे ही इस जगत्की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत- भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है ? धन्य है आपकी यह लीला ! ॥ १७ ॥ भगवन् ! यद्यपि आप प्रकृतिसे परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समयपर भक्तजनोंकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीलाके द्वारा सनातन वैदिक मार्गकी रक्षा करते हैं; क्योंक सभी वर्णों और आश्रमोंके रूपमें आप स्वयं ही प्रकट हैं ॥ १८ ॥ भगवन् ! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा उसीमें आपके साकार-निराकार रूप और दोनोंके अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार होता है ॥ १९ ॥ परमात्मन् ! ब्राह्मण ही वेदोंके आधारभूत आपके स्वरूपकी उपलब्धिके स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणोंका सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तोंमें अग्रगण्य भी हैं ॥ २० ॥ आप सर्वविध कल्याण-साधनोंकी चरमसीमा हैं और संत पुरुषोंकी एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तवमें सबके परम फल आप ही हैं ॥ २१ ॥ प्रभो ! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाके द्वारा अपनी महिमा छिपा रक्खी है, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ ये सभामें बैठे हुए राजालोग और दूसरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तवमें नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूपकोजो सबका आत्मा, जगत्का आदिकारण और नियन्ता हैमायाके परदेसे ढक रखा है ॥ २३ ॥ जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्नके मिथ्या पदार्थोंको ही सत्य समझ लेता है और नाममात्रकी इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले अपने स्वप्नशरीरको ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देरके लिये इस बातका बिल्कुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीरके अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्थाका शरीर भी है ॥ २४ ॥ ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्थामें भी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चित्त मोहित होकर नाममात्रके विषयोंमें भटकने लगता है। उस समय भी चित्तके चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसारसे परे हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधनाके द्वारा आपके उन चरणकमलोंको हृदयमें धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशिको नष्ट करनेवाले गङ्गाजलके भी आश्रयस्थान हैं। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो ! हम आपके भक्त हैं, आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पदकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिङ्गशरीररूप जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता है ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजर्षे ! भगवान्‌की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्रसे तथा धर्मराज युधिष्ठिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोंने अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया ॥ २७ ॥ परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकडक़र बड़ी नम्रतासे निवेदन करने लगे ॥ २८ ॥

वसुदेवजीने कहाऋषियो ! आपलोग सर्वदेवस्वरूप हैं। मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे कर्मों और कर्मवासनाओंका आत्यन्तिक नाशमोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ॥२९॥

नारदजीने कहाऋषियो ! यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि वसुदेवजी श्रीकृष्णको अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणका साधन हमलोगोंसे पूछ रहे हैं ॥ ३० ॥ संसारमें बहुत पास रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ करता है। देखते हैं, गङ्गातटपर रहनेवाला पुरुष गङ्गाजल छोडक़र अपनी शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमें जाता है ॥ ३१ ॥ श्रीकृष्णकी अनुभूति समयके फेर से होनेवाली जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलयसे मिटनेवाली नहीं है। वह स्वत: किसी दूसरे निमित्त से, गुणोंसे और किसीसे भी क्षीण नहीं होती ॥ ३२ ॥ उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दु:खादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणोंके प्रवाहसे खण्डित नहीं है । वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपनेको अपनी ही शक्तियोंप्राण आदिसे ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके द्वारा अपने नेत्रोंके ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान लेते हैं ॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! इसके बाद ऋषियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही वसुदेवजीको सम्बोधित करके कहा॥ ३४ ॥ कर्मोंके द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलोंका आत्यन्तिक नाश करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदिके द्वारा समस्त यज्ञोंके अधिपति भगवान्‌ विष्णुकी श्रद्धापूर्वक आराधना करे ॥ ३५ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वसुदेव जी का यज्ञोत्सव

 

श्रीशुक उवाच -

श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी

     माधव्यथ क्षितिपपत्‍न्य उत स्वगोप्यः ।

 कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धं

     सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः ॥ १ ॥

इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु ।

 आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया ॥ २ ॥

 द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः ।

 विश्वामित्रः शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः ॥ ३ ॥

 रामः सशिष्यो भगवान् वसिष्ठो गालवो भृगुः ।

 पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च मार्कण्डेयो बृहस्पतिः ॥ ४ ॥

 द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाङ्‌गिराः ।

 अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे ॥ ५ ॥

 तान्दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः ।

 पाण्डवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववन्दितान् ॥ ६ ॥

 तान् आनर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोऽर्चयत् ।

 स्वागतासनपाद्यार्घ्य माल्यधूपानुलेपनैः ॥ ७ ॥

 उवाच सुखमासीनान् भगवान् धर्मगुप्तनुः ।

 सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुश्रृण्वतः ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम् ।

 देवानामपि दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम् ॥ ९ ॥

 किं स्वल्पतपसां नॄणां अर्चायां देवचक्षुषाम् ।

 दर्शनस्पर्शनप्रश्न प्रह्वपादार्चनादिकम् ॥ १० ॥

 न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।

 ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ११ ॥

नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका

     न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्‌मनः ।

 उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं

     विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥ १२ ॥

 यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके

     स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।

 यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचित्

     जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥ १३ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्थमेधसः ।

 वचो दुरन्वयं विप्राः तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः ॥ १४ ॥

 चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम् ।

 जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्‌गुरुम् ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम हैयह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान्‌ की प्रियतमा गोपियोंने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये ॥ १ ॥ इस प्रकार जिस समय स्त्रियोंसे स्त्रियाँ और पुरुषोंसे पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीका दर्शन करनेके लिये वहाँ आये ॥ २ ॥ उनमें प्रधान ये थेश्रीकृष्ण- द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्योंके सहित भगवान्‌ परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, अङ्गिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि ॥ ३५ ॥ ऋषियोंको देखकर पहलेसे बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो गये और सबने उन विश्ववन्दित ऋषियोंको प्रणाम किया ॥ ६ ॥ इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदिसे सब राजाओंने तथा बलरामजीके साथ स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन सब ऋषियोंकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ ७ ॥ जब सब ऋषि-मुनि आरामसे बैठ गये, तब धर्मरक्षाके लिये अवतीर्ण भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान्‌ का भाषण सुन रही थी ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाधन्य है ! हमलोगोंका जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेनेका हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरोंका दर्शन बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हींका दर्शन हमें प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥ जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेवको समस्त प्राणियोंके हृदयमें न देखकर केवल मूर्तिविशेषमें ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आपलोगोंके दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदिका सुअवसर भला कब मिल सकता है ? ॥ १० ॥ केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थरकी प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तवमें तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समयतक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं; परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्रसे ही कृतार्थ कर देते हैं ॥ ११ ॥ अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मनके अधिष्ठातृ-देवता उपासना करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासनासे भेद-बुद्धिका नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषोंकी सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धिके विनाशक हैं ॥ १२ ॥ महात्माओ और सभासदो ! जो मनुष्य वात, पित्त और कफइन तीन धातुओंसे बने हुए शवतुल्य शरीरको ही आत्माअपना मैं’, स्त्री-पुत्र आदिको ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारोंको ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जलको ही तीर्थ समझता हैज्ञानी महापुरुषोंको नहीं, वह मनुष्य होनेपर भी पशुओंमें भी नीच गधा ही है ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ़ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान्‌ यह क्या कह रहे हैं ॥ १४ ॥ उन्होंने बहुत देरतक विचार करनेके बाद यह निश्चय किया कि भगवान्‌ सर्वेश्वर होनेपर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीवकी भाँति व्यवहार कर रहे हैंयह केवल लोकसंग्रहके लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहने लगे ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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