॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
वसुदेव जी का
यज्ञोत्सव
ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः
।
प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैः
द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम् ॥ ५१ ॥
अथर्त्विग्भ्योऽददात्काले
यथाम्नातं स दक्षिणाः ।
स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य
गोभूकन्या महाधनाः ॥ ५२ ॥
पत्नीसंयाजावभृथ्यैः
चरित्वा ते महर्षयः ।
सस्नू रामह्रदे विप्रा
यजमानपुरःसराः ॥ ५३ ॥
स्नातोऽलङ्कारवासांसि
वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः ।
ततः स्वलङ्कृतो वर्णान्
आश्वभ्योऽन्नेन पूजयत् ॥ ५४ ॥
बन्धून् सदारान् ससुतान्
पारिबर्हेण भूयसा ।
विदर्भकोशलकुरून् काशिकेकय
सृञ्जयान् ॥ ५५ ॥
सदस्यर्त्विक्सुरगणान्
नृभूतपितृचारणान् ।
श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः
प्रययुः क्रतुम् ॥ ५६ ॥
धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था
भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ ।
नारदो भगवान् व्यासः
सुहृत्संबंधिबांधवाः ॥ ५७ ॥
बन्धून्परिष्वज्य यदून्
सौहृदाक्लिन्नचेतसः ।
ययुर्विरहकृच्छ्रेण
स्वदेशांश्चापरे जनाः ॥ ५८ ॥
नन्दस्तु सह गोपालैः बृहत्या
पूजयार्चितः ।
कृष्णरामोग्रसेनाद्यैः
न्यवात्सीद्बन्धुवत्सलः ॥ ५९ ॥
वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य
मनोरथमहार्णवम् ।
सुहृद्वृतः प्रीतमना
नन्दमाह करे स्पृशन् ॥ ६० ॥
श्रीवसुदेव उवाच -
भ्रातरीशकृतः पाशो नृनां यः
स्नेहसंज्ञितः ।
तं दुस्त्यजमहं मन्ये
शूराणामपि योगिनाम् ॥ ६१ ॥
अस्मास्वप्रतिकल्पेयं
यत्कृताज्ञेषु सत्तमैः ।
मैत्र्यर्पिताफला चापि न
निवर्तेत कर्हिचित् ॥ ६२ ॥
प्रागकल्पाच्च कुशलं
भ्रातर्वो नाचराम हि ।
अधुना श्रीमदान्धाक्षा न
पश्यामः पुरः सतः ॥ ६३ ॥
मा राज्यश्रीरभूत्पुंसः
श्रेयस्कामस्य मानद ।
स्वजनानुत बन्धून् वा न
पश्यति ययान्धदृक् ॥ ६४ ॥
श्रीशुक उवाच -
एवं सौहृदशैथिल्य चित्त
आनकदुन्दुभिः ।
रुरोद तत्कृतां मैत्रीं
स्मरन् अश्रुविलोचनः ॥ ६५ ॥
नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत्
प्रेम्णा गोविन्दरामयोः ।
अद्य श्व इति मासांस्त्रीन्
यदुभिर्मानितोऽवसत् ॥ ६६ ॥
ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः
सहबान्धवः ।
परार्ध्याभरणक्षौम
नानानर्घ्यपरिच्छदैः ॥ ६७ ॥
वसुदेवोग्रसेनाभ्यां
कृष्णोद्धवबलादिभिः ।
दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो
यदुभिर्ययौ ॥ ६८ ॥
नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च
गोविन्दचरणाम्बुजे ।
मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुं
अनीशा मथुरां ययुः ॥ ६९ ॥
बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः
कृष्णदेवताः ।
वीक्ष्य प्रावृषमासन्नाद्
ययुर्द्वारवतीं पुनः ॥ ७० ॥
जनेभ्यः कथयां चक्रुः
यदुदेवमहोत्सवम् ।
यदासीत् तीर्थयात्रायां
सुहृत् संदर्शनादिकम् ॥ ७१ ॥
वसुदेवजी ने
प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा
द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानके—मन्त्रों
के स्वामी विष्णु- भगवान् की आराधना की ॥ ५१ ॥ इसके बाद उन्होंने उचित समयपर
ऋत्विजोंको वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा
तथा प्रचुर धन के साथ अलङ्कृत गौएँ, पृथ्वी और सुन्दरी
कन्याएँ दीं ॥ ५२ ॥ इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञाङ्ग और अवभृथस्नान
अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके
बनाये ह्रदमें—रामह्रदमें स्नान किया ॥ ५३ ॥ स्नान करनेके बाद
वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदीजनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं
नये वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तों तक को भोजन
कराया ॥ ५४ ॥ तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री-
पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु,
काशी, केकय और सृञ्जय आदि देशोंके राजाओं,
सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं,
मनुष्यों, भूतों, पितरों
और चारणोंको विदाई के रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति
भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये ॥
५५-५६ ॥ परीक्षित् ! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर,
युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन,
भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोडक़र जानेमें अत्यन्त
विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहाद्र्र चित्तसे यदुवंशियोंका
आलिङ्गन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी
इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये ॥ ५७-५८ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण,
बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत
बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया;
और वे प्रेम- परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी
अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी।
सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकडक़र कहा ॥ ६० ॥
वसुदेवजीने
कहा—भाईजी ! भगवान्ने मनुष्योंके
लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे
तोडऩेमें असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम मित्रताका व्यवहार
किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियोंका तो ऐसा
स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको
इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है।
आप इसको सदा निभाते रहेंगे ॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके कारण हम
आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम
धन-सम्पत्तिके नशेसे—श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते ॥ ६३ ॥ दूसरोंको
सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी
न मिले—इसीमें उसका भला है; क्योंकि
मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोंतकको
नहीं देख पाता ॥ ६४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार
कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और
उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे
रोने लगे ॥ ६५ ॥ नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह
गये। यदुवंशियोंने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६ ॥ इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों
और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और
बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया ॥ ६७ ॥ वसुदेवजी, उग्रसेन,
श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव
आदि यदुवंशियोंने अलग- अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर
उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना
हुए ॥ ६८ ॥ नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान्
श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे
वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की ॥ ६९ ॥
जब सब
बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके,
तब भगवान् श्रीकृष्णको ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने
यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारकाके लिये
प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगोंसे वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव,
स्वजन-सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसङ्गों को कह
सुनाया ॥ ७१ ॥
इति श्रीमद्भागवते
महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं
नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से