बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

वेदस्तुति

 

सत इदं उत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं

     व्यभिचरति क्व च क्व च मृषा न तथोभययुक् ।

 व्यवहृतये विकल्प इषितोऽन्धपरम्परया

     भ्रमयति भारती त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान् ॥ ३६ ॥

 न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधनाद्

     अनु मितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे ।

 अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथैः

     वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः ॥ ३७ ॥

 स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्

     भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः ।

 त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो

     महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः ॥ ३८ ॥

 

भगवन् ! जैसे मिट्टीसे बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत्से बना हुआ जगत् भी सत् ही हैयह बात युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्यका निर्देश ही उनके भेदका द्योतक है। यदि केवल भेद का निषेध करनेके लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होनेपर भी एक वे दूसरेसे भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य- कारणकी एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती। यदि कारण-शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जायजैसे कुण्डल का सोनातो भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती है; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ उपादान-कारण के सत्य होनेपर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होनेवाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या काभ्रम का मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तुके संयोगसे ही इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होनेवाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तुमें अविद्या के संयोग से प्रतीत होनेवाला नाम-रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहारकी सिद्धिके लिये ही जगत्की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत् में माने हुए कालकी दृष्टिसे अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्वके भ्रमसे प्रेरित होकर अन्धपरम्परासे इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थितिमें कर्मफलको सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगोंको भ्रममें डालती हैं, जो कर्ममें जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफलकी नित्यता बतलानेमें नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मोंमें लगानेमें है[23] ॥ ३६ ॥ भगवन् ! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्तिके पहले नहीं था और प्रलयके बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीचमें भी एकरस परमात्मामें मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसीसे हम श्रुतियाँ इस जगत्का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र और सोनेमें कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तवमें मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं। वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत् नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं[24] ॥ ३७ ॥

भगवन् ! जब जीव मायासे मोहित होकर अविद्याको अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहोंमें फँस जाता है तथा उन्हींको अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्युमें अपनी जन्म- मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परन्तु प्रभो ! जैसे साँप अपने केंचुलसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता हैवैसे ही आप मायाअविद्यासे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसीसे आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियोंसे युक्त परमैश्वर्यमें आपकी स्थिति है। इसीसे आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओंकी सीमासे आबद्ध नहीं है [25] ॥ ३८ ॥

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[23] उद्भूतं भवत: सतोऽपि भुवनं सन्नैव सर्प: स्रज:॥१९॥

कुर्वत् कार्यमपीह कूटकनकं वेदोऽपि नैवंपर:॥१९॥

अद्वैतं तव सत्परं तु परमानन्दं पदं तन्मुदा॥१९॥

वन्दे सुन्दरमिन्दिरानुत हरे मा मुञ्च मामानतम्॥२३॥

 

मालामें प्रतीयमान सर्पके समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होनेपर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है। झूठा सोना बाजारमें चल जानेपर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदोंका तात्पर्य भी जगत्की सत्यतामें नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे ! मैं उसीकी वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागतको मत छोडिय़े।

 

[24] मुकुटकुण्डलकङ्कणकिङ्किणीपरिणतं कनकं परमार्थत:॥१९॥

महदहङ्कृतिखप्रमुखं तथा नरहरे न परं परमार्थत:॥२४॥

 

सोना मुकुट, कुण्डल, कङ्कण और किङ्किणीके रूपमें परिणत होनेपर भी वस्तुत: सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह ! महत्तत्त्व, अहङ्कार और आकाश, वायु आदिके रूपमें उपलब्ध होनेवाला यह सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: आपसे भिन्न नहीं है।

 

[25] नृत्यन्ती तव वीक्षणाङ्गणगता कालस्वभावादिभि-॥१९॥

र्भावान् सत्त्वरजस्तमोगुणमयानुन्मीलयन्ती बहून्॥२५॥

मामाक्रम्य पदा शिरस्यतिभरं सम्मर्दयन्त्यातुरं॥१९॥

माया ते शरणं गतोऽस्मि नृहरे त्वामेव तां वारय॥२५॥

 

प्रभो ! आपकी यह माया आपकी दृष्टिके आँगनमें आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदिके द्वारा सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावोंका प्रदर्शन कर रही है। साथ ही यह मेरे सिरपर सवार होकर मुझ आतुरको बलपूर्वक रौंद रही है। नृसिंह ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

वेदस्तुति

अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगताः

     तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रव नेतरथा ।

 अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्

     सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया ॥ ३० ॥

 न घटत उद्‌भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयोः

     उभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्‌बुदवत् ।

 त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे

     सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः ॥ ३१ ॥

 नृषु तव मयया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं

     त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम् ।

 कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद्‌भ्रुकुटिः

     सृजति मुहुस्त्रिणमिरभवच्छरणेषु भयम् ॥ ३२ ॥

 विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं

     य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः ।

 व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं

     वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ॥ ३३ ॥

 स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथैः

     त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे ।

 इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां

     सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे ॥ ३४ ॥

 भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदाः

     त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्‌घ्रिजलाः ।

 दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे

     न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान् ॥ ३५ ॥

 

भगवन् ! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासकयह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूपसे रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तवमें आप उनमें समरूपसे स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तवमें आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धिके विषयको जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मतिके द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिये उनकी दुष्टता, एक मतके साथ दूसरे मतका विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतोंके परे है[17] ॥ ३० ॥ स्वामिन् ! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहनेका ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणामके द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूपजो आप हैंकभी वृत्तियोंके अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियोंका जन्म कैसे होता है ? अज्ञानके कारण प्रकृतिको पुरुष और पुरुषको प्रकृति समझ लेनेसे, एकका दूसरेके साथ संयोग हो जानेसे जैसे बुलबुलानामकी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायुके संयोगसे उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृतिका अध्यास (एकमें दूसरेकी कल्पना) हो जानेके कारण ही जीवोंके विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्तमें जैसे समुद्रमें नदियाँ और मधुमें समस्त पुष्पोंके रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवोंकी भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्वव्यापकता आदि वास्तविक सत्यको न जाननेके कारण ही मानी जाती है) [18] ॥ ३१ ॥

भगवन् ! सभी जीव आपकी मायासे भ्रममें भटक रहे हैं, अपनेको आपसे पृथक् मानकर जन्म- मृत्युका चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रमको समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभावसे आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्युके चक्करसे छुड़ानेवाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षाइन तीन भागोंवाला कालचक्र आपका भ्रूविलासमात्र है, वह सभीको भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हींको बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्युरूप संसारका भय कैसे हो सकता है ?[19] ॥ ३२ ॥ अजन्मा प्रभो! जिन योगियोंने अपनी इन्द्रियों और प्राणोंको वशमें कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेवके चरणोंकी शरण न लेकर उच्छृङ्खल एवं अत्यन्त चञ्चल मन-तुरंगको अपने वशमें करनेका प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनोंमें सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दु:ख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्रमें बिना कर्णधारकी नावपर यात्रा करनेवाले व्यापारियोंकी होती है। (तात्पर्य यह कि जो मनको वशमें करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधारगुरुकी अनिवार्य आवश्यकता है)[20] ॥ ३३ ॥

भगवन् ! आप अखण्ड आनन्दस्वरूप और शरणागतोंके आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदिसे क्या प्रयोजन है ? जो लोग इस सत्य सिद्धान्तको न जानकर स्त्री-पुरुषके सम्बन्धसे होनेवाले सुखोंमें ही रम रहे हैं, उन्हें संसारमें भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसारकी सभी वस्तुएँ स्वभावसे ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जानेवाली हैं। और तो क्या, वे स्वरूपसे ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं [21] ॥ ३४ ॥ भगवन् ! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदिके घमंडसे रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतलपर परम पवित्र और सबको पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदयमें आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषोंका चरणामृत समस्त पापों और तापोंको सदाके लिये नष्ट कर देनेवाला है। भगवन् ! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैंआपमें मन लगा देते हैंवे उन देह-गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीवके विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणोंका नाश करनेवाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं [22] ॥ ३५ ॥

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[17] अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य गीत: श्रुत्या युक्त्या चैवमेवावसेय:॥१७॥

य: सर्वज्ञ: सर्वशक्तिर्नृसिंह: श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे॥१७॥

 

श्रुतिने समस्त दृश्यप्रपञ्चके अन्तर्यामीके रूपमें जिनका गान किया है, और युक्तिसे भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंहपुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्रभुका मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।

 

[18] यस्मिन्नुद्यद् विलयमपि यद् भाति विश्वं लयादौ॥१८॥

जीवोपेतं गुरुकरुणया केवलात्मावबोधे॥१८॥

अत्यन्तान्तं व्रजति सहसा सिन्धुवत्सिन्धुमध्ये॥१८॥

मध्येचित्तं त्रिभुवनगुरुं भावये तं नृसिंहम्॥१८॥

 

जीवोंके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें विलयको प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेवकी करुणा प्राप्त होनेपर जब शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है, तब समुद्रमें नदीके समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलयको प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवनगुरु नृसिंह भगवान्‌की मैं अपने हृदयमें भावना करता हूँ।

 

[19] संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्णमुदीर्णनानाभवतापतप्तम्॥१९॥

कथञ्चिदापन्नमिह प्रपन्नं त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम्॥१९॥

 

नृसिंह ! यह जीव संसार-चक्रके आरेसे टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकारके सांसारिक पापोंकी धधकती हुई लपटोंसे झुलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपासे आपकी शरणमें आया है। आप इसका उद्धार कीजिये।

 

[20]यदा परानन्दगुरो भवत्पदे पदं मनो मे भगवँल्लभेत॥१९॥

तदा निरस्ताखिलसाधनश्रम: श्रयेय सौख्यं भवत: कृपात:॥२०॥

 

परमानन्दमय गुरुदेव ! भगवन् ! जब मेरा मन आपके चरणोंमें स्थान प्राप्त कर लेगा, तब मैं आपकी कृपासे समस्त साधनोंके परिश्रमसे छुटकारा पाकर परमानन्द प्राप्त करूँगा।

 

[21] भजतां हि भवान् साक्षात्परमानन्दचिद्घन:॥२१॥

आत्मैव किमत: कृत्यं तुच्छदारसुतादिभि:॥२१॥

 

जो आपका भजन करते हैं, उनके लिये आप स्वयं साक्षात् परमानन्दचिद्घन आत्मा ही हैं। इसलिये उन्हें तुच्छ स्त्री, पुत्र, धन आदिसे क्या प्रयोजन है ?

 

[22] मुञ्चन्नङ्गतदङ्गसङ्गमनिशं त्वामेव सञ्चिन्तयन्॥१९॥

सन्त: सन्ति यतो यतो गतमदास्तानाश्रमानावसन्॥१९॥

नित्यं तन्मुखपङ्कजाद्विगलितत्वत्पुण्यगाथामृत-॥१९॥

स्रोत:सम्प£वसंप्लुतो नरहरे न स्यामहं देहभृत्॥२२॥

 

मैं शरीर और उसके सम्बन्धियोंकी आसक्ति छोडक़र रात-दिन आपका ही चिन्तन करूँगा और जहाँ-जहाँ निरभिमान सन्त निवास करते हैं, उन्हीं-उन्हीं आश्रमोंमें रहूँगा। उन सत्पुरुषोंके मुख-कमलसे नि:सृत आपकी पुण्यमयी कथा-सुधाकी नदियोंकी धारामें प्रतिदिन स्नान करूँगा और नृसिंह ! फिर मैं कभी देहके बन्धनमें नहीं पडूँगा।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वेदस्तुति

 

सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्

     सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयाऽत्मविदः ।

 न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया

     स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम् ॥ २६ ॥

 तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया

     त उत पदाक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निर्‌ऋतेः ।

 परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तान्

     त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः ॥ २७ ॥

 त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरः

     तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः ।

 वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो

     विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः ॥ २८ ॥

 स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो

     विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः ।

 न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्

     वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधतः ॥ २९ ॥

 

यह त्रिगुणात्मक जगत् मनकी कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत्से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तवमें असत् होनेपर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ताके कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनोंके सम्बन्धको सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूपसे सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उनको इस रूपमें जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मामें ही कल्पित, आत्मासे ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं [13] ॥ २६ ॥ भगवन् ! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभावसे आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्युको तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात् उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मोंका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियोंसे पशुओंके समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़ रक्खा है, वे न केवल अपनेको बल्कि दूसरोंको भी पवित्र कर देते हैंजगत्के बन्धनसे छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगोंको कैसे प्राप्त हो सकता है[14] ॥ २७ ॥

प्रभो ! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणोंसेचिन्तन, कर्म आदिके साधनोंसे सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्त:करण और बाह्य करणोंकी शक्तियोंसे सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वत:सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अत: कोई काम करनेके लिये आपको इन्द्रियोंकी आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजासे कर लेकर स्वयं अपने सम्राट्को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्योंके पूज्य देवता और देवताओंके पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियोंसे पूजा स्वीकार करते हैं और मायाके अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करनेके लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं[15] ॥ २८ ॥ नित्यमुक्त ! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षणमात्रसेसङ्कल्पमात्रसे मायाके साथ क्रीडा करते हैं, तब आपका सङ्केत पाते ही जीवोंके सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। प्रभो ! आप परम दयालु हैं। आकाशके समान सबमें सम होनेके कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तवमें तो आपके स्वरूपमें मन और वाणीकी गति ही नहीं है। आपमें कार्य-कारणरूप प्रपञ्चका अभाव होनेसे बाह्य दृष्टिसे आप शून्यके समान ही जान पड़ते हैं; परन्तु उस दृष्टिके भी अधिष्ठान होनेके कारण आप परम सत्य हैं [16] ॥ २९ ॥

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[13] यत्सत्त्वत: सदाभाति जगदेतदसत् स्वत:॥१३॥

सदाभासमसत्यस्मिन् भगवन्तं भजाम तम्॥१३॥

 

यह जगत् अपने स्वरूप, नाम और आकृतिके रूपमें असत् है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ताकी सत्यतासे यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपञ्चमें सत्यके रूपसे सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान्‌का हम भजन करते हैं।

 

[14] तपन्तु तापै: प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्॥१४॥

यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादैहर्ङ्क्षर विना नैव मृङ्क्षत तरन्ति॥१४॥

 

लोग पञ्चाग्नि आदि तापोंसे तप्त हों, पर्वतसे गिरकर आत्मघात कर लें, तीर्थोंका पर्यटन करें, वेदोंका पाठ करें, यज्ञोंके द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न मतवादोंके द्वारा आपसमें विवाद करें, परन्तु भगवान्‌के बिना इस मृत्युमय संसार-सागरसे पार नहीं जाते।

 

[15] अनिन्द्रियोऽपि यो देव: सर्वकारकशक्तिधृक्॥१५॥

सर्वज्ञ: सर्वकर्ता च सर्वसेव्यं नमामि तम्॥१५॥

 

जो प्रभु इन्द्रियरहित होनेपर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रियकी शक्तिको धारण करता है और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सबके सेवनीय प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ।

 

[16] त्वदीक्षणवशक्षोभमायाबोधितकर्मभि:॥१६॥

जातान् संसरत: खिन्नान्नृहरे पाहि न: पित:॥१६॥

 

नृसिंह ! आपके सृष्टि-सङ्कल्पसे क्षुब्ध होकर मायाने कर्मोंको जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण हम लोगोंका जन्म हुआ और अब आवागमनके चक्करमें भटककर हम दु:खी हो रहे हैं। पिताजी ! आप हमारी रक्षा कीजिये।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वेदस्तुति

 

दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोः

     चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः ।

 न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते

     चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः ॥ २१ ॥

 त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियवत्

     चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च ।

 न बत रमन्त्यहो असदुपासनयात्महनो

     यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः ॥ २२ ॥

 निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि यत्

     मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात् ।

 स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो

     वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्‌घ्रिसरोजसुधाः ॥ २३ ॥

 क इह नु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं

     यत उदगादृषिर्यमनु देवगणा उभये ।

 तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः

     किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा ॥ २४ ॥

 जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदां

     विपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितैः ।

 त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता

     त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे ॥ २५ ॥

 

भगवन् ! परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसीका ज्ञान करानेके लिये आप विविध प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृतके महासागरसे भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्दमें मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओंको छोडक़र मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करतेस्वर्ग आदिकी तो बात ही क्या है। वे आपके चरण-कमलोंके प्रेमी परमहंसोंके सत्संगमें, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवनमें प्राप्त अपनी घर-गृहस्थीका भी परित्याग कर देते हैं[8] ॥ २१ ॥

प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्तिके समान आचरण करता है। आप जीवके सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीवको अपनानेके लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होनेपर तथा अनुकूल मानव शरीरको पाकर भी लोग सख्यभाव आदिके द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियोंमें ही रम जाते हैं, उन्हींकी उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्माका हनन करते हैं, उसे अधोगतिमें पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्टकी बात है ! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदिमें ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदिके न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है[9] ॥ २२ ॥ प्रभो ! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंको वशमें करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा हृदयमें आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्यकी बात तो यह है कि उन्हें जिस पदकी प्राप्ति होती है, उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओंको भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँतक कहें, भगवन् ! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनागके समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओंके प्रति कामभावसे आसक्त रहती हैं, जिस परम पदको प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियोंको भी प्राप्त होता हैयद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्दका मकरन्दरस पान करती रहती हैं। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टिमें उपासकके परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भावमें कोई अन्तर नहीं है[10] ॥ २३ ॥

भगवन् ! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु कालसे सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनोंसे बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि कालके अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँतक कि शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्थामें आपको जाननेकी चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।)[11] ॥ २४ ॥ प्रभो ! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दु:खोंका नाश होनेपर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्माको अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले लोक और परलोकरूप व्यवहारको सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय हैइस प्रकारका भेदभाव केवल अज्ञानसे ही होता है और आप अज्ञानसे सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकारका भेदभाव नहीं है[12] ॥ २५ ॥

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[8] त्वत्कथामृतपाथोधौ विहरन्तो महामुद:॥८॥

कुर्वन्ति कृतिन: केचिच्चतुर्वर्गं तृणोपमम्॥८॥

कोई-कोई विरले शुद्धान्त:करण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्रमें विहार करते हुए परमानन्दमें मग्र रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्षइन चारों पुरुषार्थोंको तृणके समान तुच्छ बना देते हैं।

[9] त्वय्यात्मनि जगन्नाथे मन्मनो रमतामिह॥९॥

कदा ममेदृशं जन्म मानुषं सम्भविष्यति॥९॥

आप जगत् के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवनमें ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे स्वामी ! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकारका मनुष्यजन्म प्राप्त होगा ?

[10] चरणस्मरणं प्रेम्णा तव देव सुदुर्लभम्॥१०॥

यथाकथञ्चिन्नृहरे मम भूयादहॢनशम्॥१०॥

 

देव ! आपके चरणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह ! मुझे तो आपके चरणोंका स्मरण दिन-रात बना रहे।

 

[11] क्वाहं बुद्ध्यादिसंरुद्ध: क्व च भूमन्महस्तव॥११॥

दीनबन्धो दयासिन्धो भङ्क्षक्त मे नृहरे दिश॥११॥

 

अनन्त ! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियोंसे घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदिके अगोचर स्वरूप ! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु ! नरहरि देव ! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।

 

[12] मिथ्यातर्कसुकर्कशेरितमहावादान्धकारान्तरभ्राम्यन्मन्दमतेरमन्दमहिमंस्त्वज्ज्ञानवत्र्मास्फुटम् ।

श्रीमन्माधव वामन त्रिनयन श्रीशङ्कर श्रीपते गोविन्देति मुदा वदन् मधुपते मुक्त: कदा स्यामहम्॥१२॥

 

अनन्त महिमाशाली प्रभो ! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कोंके द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवादके घोर अन्धकारमें भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञानका मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवनमें ऐसी सौभाग्यकी घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशङ्कर, श्रीपते, गोविन्द, मधुपतेइस प्रकार आपको आनन्दमें भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...