सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वेदस्तुति

 

बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया

     यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात् ।

 अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं

     कथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम् ॥ १५ ॥

 इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल

     क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः ।

 किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः

     परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम् ॥ १६ ॥

 दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा

     महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः

 पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः

     सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम् ॥ १७ ॥

 उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः

     परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम् ।

 तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमं

     पुनरिह यत्समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे ॥ १८ ॥

 स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया

     तरतमतश्चकास्स्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः ।

 अथ वितथास्वमूष्ववितथां तव धाम समं

     विरजधियोऽनुयन्त्यभिविपण्यव एकरसम् ॥ १९ ॥

 स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं

     तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम् ।

 इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं

     भवत उपासतेऽङ्‌घ्रिमभवम्भुवि विश्वसिताः ॥ २० ॥

 

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियोंके) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टीका प्यालाकसोरा) आदि सभी विकार मिट्टीसे ही उत्पन्न और उसीमें लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आपमें ही होती है। तब क्या आप पृथ्वीके समान विकारी हैं ? नहीं-नहीं, आप तो एकरसनिर्विकार हैं। इसीसे तो यह जगत् आपमें उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिये जैसे घट, शराव आदिका वर्णन भी मिट्टीका ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मनसे जो कुछ सोचा जाता है और वाणीसे जो कुछ कहा जाता है, उसे आपमें ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखेर्ईंट, पत्थर या काठपरहोगा वह पृथ्वीपर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिये हम चाहे जिस नाम या जिस रूपका वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है [2] ॥ १५ ॥

भगवन् ! लोग सत्त्व, रज, तमइन तीन गुणोंकी मायासे बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी- बुरी क्रियाओंमें उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटीके स्वामी, उसको नचानेवाले हैं। इसीलिये विचारशील पुरुष आपकी लीलाकथाके अमृतसागरमें गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-तापको धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवोंके मायामलको नष्ट करनेवाली जो है। पुरुषोत्तम ! जिन महापुरुषोंने आत्मज्ञानके द्वारा अन्त:करणके राग-द्वेष आदि और शरीरके कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूपकी अनुभूतिमें मग्र रहते हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापोंको सदाके लिये शान्त, भस्म कर दिया हैइसके विषयमें तो कहना ही क्या है [3] ॥ १६ ॥ भगवन् ! प्राणधारियोंके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञाका पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीरमें श्वासका चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहारकी धौंकनीमें हवाका आना-जाना। महत्तत्त्व, अहङ्कार आदिने आपके अनुग्रहसेआपके उनमें प्रवेश करनेपर ही इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमयइन पाँचों कोशोंमें पुरुषरूपसे रहनेवाले, उनमें मैं-मैंकी स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं ! आपके ही अस्तित्वसे उन कोशोंके अस्तित्वका अनुभव होता है और उनके न रहनेपर भी अन्तिम अवधिरूपसे आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होनेपर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तवमें जो कुछ वृत्तियोंके द्वारा अस्ति अथवा नास्तिके रूपमें अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणोंसे आप परे हैं। नेति-नेतिके द्वारा इन सबका निषेध हो जानेपर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेधके भी साक्षी हैं और वास्तवमें आप ही एकमात्र सत्य हैं। (इसलिये आपके भजनके बिना जीवका जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्यसे वञ्चित है)[4] ॥ १७ ॥

ऋषियोंने आपकी प्राप्तिके लिये अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक चक्रमें अग्निरूपसे आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंशके ऋषि समस्त नाडिय़ोंके निकलनेके स्थान हृदयमें आपके परम सूक्ष्मस्वरूप दहर ब्रह्मकी उपासना करते हैं। प्रभो ! हृदयसे ही आपको प्राप्त करनेका श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्रा नाड़ी ब्रह्मरन्ध्रतक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्गको प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपरकी ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता [5] ॥ १८ ॥ भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपोंमें आप हैं ही, इसलिये कारणरूपसे प्रवेश न करनेपर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियोंका अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूपसे प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकडिय़ों और कर्मोंके अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाणमें या उत्तम-अधमरूपमें प्रतीत होती है। इसलिये संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मोंकी दूकानदारीसे, उनके फलोंसे विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धिसे सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्माको पहचानकर जगत्के झूठे रूपोंमें नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभावसे स्थित सत्यस्वरूपका साक्षात्कार करते हैं [6] ॥ १९ ॥

प्रभो ! जीव जिन शरीरोंमें रहता है, वे उसके कर्मके द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तवमें उन शरीरोंके कार्य-कारणरूप आवरणोंसे वह रहित है, क्योंकि वस्तुत: उन आवरणोंकी सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होनेके कारण अंश न होनेपर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होनेपर भी निर्मित कहते हैं। इसीसे बुद्धिमान् पुरुष जीवके वास्तविक स्वरूपपर विचार करके परम विश्वासके साथ आपके चरणकमलोंकी उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मोंके समर्पणस्थान और मोक्षस्वरूप हैं[7] ॥ २० ॥

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[2] द्रुहिणवह्निरवीन्द्रमुखामरा जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्॥

बहुमुखैरपि मन्त्रगणैरजस्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥२॥

ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् प्रतीत होनेपर भी आपसे पृथक् नहीं है। इसलिये अनेक देवताओंका प्रतिपादन करनेवाले वेद- मन्त्र उन देवताओंके नामसे पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियोंका वर्णन करते हैं। वस्तुत: आप अजन्मा हैं; उन मूर्तियोंके रूपमें भी आपका जन्म नहीं होता।

[3] सकलवेदगणेरितसद्गुणस्त्वमिति सर्वमनीषिजना रता:॥३॥

त्वयि सुभद्रगुणश्रवणादिभिस्तव पदस्मरणेन गतक्लमा:॥३॥

सारे वेद आपके सद्गुणोंका वर्णन करते हैं। इसलिये संसारके सभी विद्वान् आपके मङ्गलमय कल्याणकारी गुणोंके श्रवण, स्मरण आदिके द्वारा आपसे ही प्रेम करते हैं, और आपके चरणोंका स्मरण करके सम्पूर्ण क्लेशोंसे मुक्त हो जाते हैं।

[4]नरवपु: प्रतिपद्य यदि त्वयि श्रवणवर्णनसंस्मरणादिभि:॥४॥

नरहरे ! न भजन्ति नृणामिदं दृतिवदुच्छ्वसितं विफलं तत:॥४॥

नरहरे ! मनुष्य शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण, वर्णन और संस्मरण आदि के द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवों का श्वास लेना धौंकनीं के समान ही सर्वथा व्यर्थ है।

[5] उदरादिषु य: पुंसां चिन्तितो मुनिवत्र्मभि:॥५॥

हन्ति मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे॥५॥

मनुष्य ऋषि-मुनियोंके द्वारा बतलायी हुई पद्धतियोंसे उदर आदि स्थानोंमें जिनका चिन्तन करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करनेपर मृत्यु-भयका नाश कर देते हैं, उन हृदयदेशमें विराजमान प्रभुकी हम उपासना करते हैं।

[6] स्वनिर्मितेषु कार्येषु तारतम्यविवॢजतम्॥६॥

सर्वानुस्यूतसन्मात्रं भगवन्तं भजामहे॥६॥

अपने द्वारा निर्मित सम्पूर्ण कार्योंमें जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठके भावसे रहित एवं सबमें भरपूर हैं, इस रूपमें अनुभवमें आनेवाली निर्विशेष सत्ताके रूपमें स्थित हैं, उन भगवान्‌का हम भजन करते हैं।

[7] त्वदंशस्य ममेशान त्वन्मायाकृतबन्धनम्॥

त्वदङ्घ्रिसेवामादिश्य परानन्द निवर्तय॥७॥

मेरे परमानन्दस्वरूप स्वामी ! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणोंकी सेवाका आदेश देकर अपनी मायाके द्वारा निर्मित मेरे बन्धनको निवृत्त कर दो।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वेदस्तुति

 

वेदस्तुति -

 

श्रीपरीक्षिदुवाच -

ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः ।

 कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानां असृजत् प्रभुः ।

 मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च ॥ २ ॥

 सैषा ह्युपनिषद्‌ ब्राह्मी पूर्वेशां पूर्वजैर्धृता ।

 श्र्रद्धया धारयेद् यस्तां क्षेमं गच्छेदकिञ्चनः ॥ ३ ॥

 अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम् ।

 नारदस्य च संवादं ऋषेर्नारायणस्य च ॥ ४ ॥

 एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः ।

 सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम् ॥ ५ ॥

 यो वै भारतवर्षेऽस्मिन् क्शेमाय स्वस्तये नृणाम् ।

 धर्मज्ञानशमोपेतं आकल्पादास्थितस्तपः ॥ ६ ॥

 तत्रोपविष्टं ऋषिभिः कलापग्रामवासिभिः ।

 परीतं प्रणतोऽपृच्छद् इदमेव कुरूद्वह ॥ ७ ॥

 तस्मै ह्यवोचद्‌भगवान् ऋषीणां श्रृणतामिदम् ।

 यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम् ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

स्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत् पुरा ।

 तत्रस्थानां मानसानां मुनीनां ऊर्ध्वरेतसाम् ॥ ९ ॥

 श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम् ।

 ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते ।

 तत्र हायमभूत्प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि ॥ १० ॥

 तुल्यश्रुततपःशीलाः तुल्यस्वीयारिमध्यमाः ।

 अपि चक्रुः प्रवचनं एकं शुश्रूषवोऽपरे ॥ ११ ॥

 

 श्रीसनन्दन उवाच -

स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः ।

 तदन्ते बोधयां चक्रुः तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम् ॥ १२ ॥

 यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः ।

 प्रत्यूषेऽभेत्य सुश्लोकैः बोधयन्त्यनुजीविनः ॥ १३ ॥

 

 श्रीश्रुतय ऊचुः -

जय जय जह्यजामजित दोषगृभीतगुणां

     त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः ।

 अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते

     क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः ॥ १४ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! ब्रह्म कार्य और कारणसे सर्वथा परे है। सत्त्व, रज और तमये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणीसे सङ्केतरूपमें भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियोंका विषय गुण ही है। (वे जिस विषयका वर्णन करती हैं उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढिका ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थितिमें श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्मका प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं ! क्योंकि निर्गुण वस्तुका स्वरूप तो उनकी पहुँचके परे है ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! (भगवान्‌ सर्वशक्तिमान् और गुणोंके निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टत: सगुणका ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करनेपर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। विचार करनेके लिये ही) भगवान्‌ने जीवोंके लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंकी सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छासे अर्थ, काम धर्म अथवा मोक्षका अर्जन कर सकते हैं। (प्राणोंके द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियोंके द्वारा महावाक्य आदिका श्रवण, मनके द्वारा मनन और बुद्धिके द्वारा निश्चय करनेपर श्रुतियोंके तात्पर्य निर्गुण स्वरूपका साक्षात्कार हो सकता है। इसलिये श्रुतियाँ सगुणका प्रतिपादन करनेपर भी वस्तुत: निर्गुणपरक हैं) ॥ २ ॥ ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद्का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजोंके भी पूर्वज सनकादि ऋषियोंने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धनके कारण समस्त उपाधियोंअनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम- कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ इस विषय में मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ। उस गाथा के साथ स्वयं भगवान्‌ नारायण का सम्बन्ध है । वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है ॥ ४ ॥

एक समयकी बात है, भगवान्‌ के प्यारे भक्त देवर्षि नारदजी विभिन्न लोकोंमें विचरण करते हुए सनातनऋषि भगवान्‌ नारायणका दर्शन करनेके लिये बदरिकाश्रम गये ॥ ५ ॥ भगवान्‌ नारायण मनुष्योंके अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम नि:श्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्षकी प्राप्ति) के लिये इस भारतवर्षमें कल्पके प्रारम्भसे ही धर्म, ज्ञान और संयमके साथ महान् तपस्या कर रहे हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियोंके बीचमें बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यही प्रश्र पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ ७ ॥ भगवान्‌ नारायणने ऋषियोंकी उस भरी सभामें नारदजीको उनके प्रश्रका उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियोंमें परस्पर वेदोंके तात्पर्य और ब्रह्मके स्वरूपके सम्बन्धमें विचार करते समय कही गयी थी ॥ ८ ॥

भगवान्‌ नारायणने कहानारदजी ! प्राचीन कालकी बात है। एक बार जनलोकमें वहाँ रहनेवाले ब्रह्माके मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियोंका ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था ॥ ९ ॥ उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध- मूर्तिका दर्शन करनेके लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्मके सम्बन्धमें बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषयमें श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूपसे लक्षित कराती हुई उसीमें सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्रमें यही प्रश्र उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो ॥ १० ॥ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमारये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभावमें समान हैं। उन लोगोंकी दृष्टिमें शत्रु, मित्र और उदासीन एक-से हैं। फिर भी उन्होंने अपनेमेंसे सनन्दनको तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के इच्छुक बनकर बैठ गये ॥ ११ ॥

सनन्दनजी ने कहाजिस प्रकार प्रात:काल होनेपर सोते हुए सम्राट्को जगानेके लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट्के पराक्रम तथा सुयशका गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत्को अपनेमें लीन करके अपनी शक्तियोंके सहित सोये रहते हैं; तब प्रलयके अन्तमें श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनोंसे उन्हें इस प्रकार जगाती हैं ॥ १२-१३ ॥

श्रुतियाँ कहती हैंअजित ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो ! आप स्वभावसे ही समस्त ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियोंको फँसानेवाली मायाका नाश कर दीजिये। प्रभो ! इस गुणमयी मायाने दोषके लियेजीवोंके आनन्दादिमय सहज स्वरूपका आच्छादन करके उन्हें बन्धनमें डालनेके लिये ही सत्त्वादि गुणोंको ग्रहण किया है। जगत् में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषयमें यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ हीहम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपत: वर्णन करनेमें असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किञ्चित् आपका वर्णन करनेमें समर्थ होती हैं[1] ॥ १४ ॥

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[1] इन श्लोकों पर श्री श्रीधरस्वामी ने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थसहित यहाँ दिये जाते है

जय जयाजित जह्यगजङ्गमावृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्॥

न हि भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी निगमगीतगुणार्णवता तव॥१॥

अजित ! आपकी जय हो; जय हो ! झूठे गुण धारण करके चराचर जीवको आच्छादित करनेवाली इस मायाको नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंगेनहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बातका गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणोंके समुद्र हैं।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



रविवार, 11 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छियासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सुभद्राहरण और भगवान्‌ का मिथिलापुरी में राजा जनक

और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -

भवान्हि सर्वभूतानां आत्मा साक्षी स्वदृग् विभो ।

 अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः ॥ ३१ ॥

 स्ववचस्तदृतं कर्तुं अस्मद्‌दृग्गोचरो भवान् ।

 यदात्थैकान्तभक्तान् मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः ॥ ३२ ॥

 को नु त्वच्चरणाम्भोजं एवंविद् विसृजेत् पुमान् ।

 निष्किञ्चनानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः ॥ ३३ ॥

 योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह ।

 यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम् ॥ ३४ ॥

 नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

 नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे ॥ ३५ ॥

 दिनानि कतिचिद्‌ भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः ।

 समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम् ॥ ३६ ॥

 इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवान् लोकभावनः ।

 उवास कुर्वन् कल्याणं मिथिलानरयोषिताम् ॥ ३७ ॥

 श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा ।

 नत्वा मुनीन् सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह ॥ ३८ ॥

 तृणपीठबृषीष्वेतान् आनीतेषूपवेश्य सः ।

 स्वागतेनाभिनन्द्याङ्‌घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा ॥ ३९ ॥

 तदम्भसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम् ।

 स्नापयां चक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः ॥ ४० ॥

फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभिः

     मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः ।

 आराधयामास यथोपपन्नया

     सपर्यया सत्त्वविवर्धनान्धसा ॥ ४१ ॥

 स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्

     गृहान्धकुपे पतितस्य सङ्गमः ।

 यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः

     कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः ॥ ४२ ॥

सूपविष्टान् कृतातिथ्यान् श्रुतदेव उपस्थितः ।

 सभार्यस्वजनापत्य उवाचाङ्‌घ्र्यभिमर्शनः ॥ ४३ ॥

 

 श्रुतदेव उवाच -

नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः ।

 यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया ॥ ४४ ॥

 यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया ।

 सृष्ट्वा लोकं परं स्वाप्नं अनुविश्यावभासते ॥ ४५ ॥

 श्रृणतां गदतां शश्वद् अर्चतां त्वाभिवन्दताम् ।

 णृणां संवदतामन्तः हृदि भास्यमलात्मनाम् ॥ ४६ ॥

 हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम् ।

 आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽपि अन्त्युपेतगुणात्मनाम् ॥ ४७ ॥

नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने

     अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे ।

 सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे

     स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये ॥ ४८ ॥

स त्वं शाधि स्वभृत्यान् नः किं देव करवाम हे ।

 एतदन्तो नृणां क्लेशो यद्‌भवानक्षिगोचरः ॥ ४९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा ।

 गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसन् तमुवाच ह ॥ ५० ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन् ।

 सञ्चरन्ति मया लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः ॥ ५१ ॥

 देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः ।

 शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया ॥ ५२ ॥

 ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह ।

 तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ॥ ५३ ॥

 न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम् ।

 सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम् ॥ ५४ ॥

 दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवं अवजानन्त्यसूयवः ।

 गुरुं मां विप्रमात्मानं अर्चादाविज्यदृष्टयः ॥ ५५ ॥

 चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः ।

 मद् रूपाणीति चेतस्य आधत्ते विप्रो मदीक्षया ॥ ५६ ॥

तस्माद्‌ ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय ।

 एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः ॥ ५७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

स इत्थं प्रभुनादिष्टः सहकृष्णान् द्विजोत्तमान् ।

 आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद्‌गतिम् ॥ ५८ ॥

 एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान् ।

 उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात् ॥ ५९ ॥

 

राजा बहुलाश्वने कहा—‘प्रभो ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं। इसीसे आपने हमलोगोंको दर्शन देकर कृतार्थ किया है ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलरामजी, अर्धाङ्गिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मासे भी बढक़र प्रिय है। अपने उन वचनोंको सत्य करनेके लिये ही आपने हमलोगोंको दर्शन दिया है ॥ ३२ ॥ भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेम-परवशताको जानकर भी आपके चरणकमलोंका परित्याग कर सके ? प्रभो ! जिन्होंने जगत्की समस्त वस्तुओंका एवं शरीर आदिका भी मनसे परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियोंको आप अपनेतकको भी दे डालते हैं ॥ ३३ ॥ आपने यदुवंशमें अवतार लेकर जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े हुए मनुष्योंको उससे मुक्त करनेके लिये जगत्में ऐसे विशुद्ध यशका विस्तार किया है, जो त्रिलोकीके पाप-तापको शान्त करनेवाला है ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्यकी निधि हैं; सबके चित्तको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये आप सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्तिका विस्तार करनेके लिये आप ही नारायण ऋषिके रूपमें तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥ एकरस अनन्त ! आप कुछ दिनोंतक मुनिमण्डलीके साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणोंकी धूलसे इस निमिवंशको पवित्र कीजिये॥ ३६ ॥ परीक्षित्‌ ! सबके जीवनदाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्वकी यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियोंका कल्याण करते हुए कुछ दिनोंतक वहीं रहे ॥ ३७ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डलीके पधारनेपर आनन्दमग्र हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनियोंको अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे ॥ ३८ ॥ श्रुतदेवने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उनपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और मुनियोंको बैठाया, स्वागत-भाषण आदिके द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान्‌ और ऋषियोंके चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियोंको सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे ॥ ४० ॥ तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खससे सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्न से सब की आराधना की ॥ ४१ ॥ उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि मैं तो घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणोंकी धूल ही समस्त तीर्थोंको तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया ? ॥ ४२ ॥ जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियोंके साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुए। वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श करते हुए कहने लगे ॥ ४३ ॥

श्रुतदेवने कहाप्रभो ! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवोंसे परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभीसे सब लोगोंसे मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियोंके द्वारा इस जगत्की रचना करके आत्मसत्ताके रूपमें इसमें प्रवेश किया है ॥ ४४ ॥ जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्थामें अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत्की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपोंमें अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपनेमें ही अपनी मायासे जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपोंसे प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ४५ ॥ जो लोग सर्वदा आपकी लीलाकथाका श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओंका अर्चन-वन्दन करते हैं और आपसमें आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ४६ ॥ जिन लोगोंका चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मोंकी वासनासे बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदयमें रहनेपर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगोंने आपके गुणगानसे अपने अन्त:करणको सद्गुणसम्पन्न बना लिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियोंसे अग्राह्य होनेपर भी आप अत्यन्त निकट हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! जो लोग आत्मतत्त्वको जाननेवाले हैं, उनके आत्माके रूपमें ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदिको ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्माको प्राप्त होनेवाली मृत्युके रूपमें हैं। आप महत्तत्त्व आदि कार्यद्रव्य और प्रकृतिरूप कारणके नियामक हैंशासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टिपर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरोंकी दृष्टिको ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४८ ॥ स्वयंप्रकाश प्रभो ! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें ? नेत्रोंके द्वारा आपका दर्शन होनेतक ही जीवोंके क्लेश रहते हैं। आपके दर्शनमें ही समस्त क्लेशोंकी परिसमाप्ति है ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरणागत-भयहारी भगवान्‌ श्रीकृष्णने श्रुतदेवकी प्रार्थना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा ॥ ५० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाप्रिय श्रुतदेव ! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलोंकी धूलसे लोगों और लोकोंको पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदिके द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदिमें जो पवित्र करनेकी शक्ति है, वह भी उन्हें संतोंकी दृष्टिसे ही प्राप्त होती है ॥ ५२ ॥ श्रुतदेव ! जगत्में ब्राह्मण जन्मसे ही सब प्राणियोंसे श्रेष्ठ हैं। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासनामेरी भक्तिसे युक्त हो तब तो कहना ही क्या है ॥ ५३ ॥ मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ ॥ ५४ ॥ दुर्बुद्धि मनुष्य इस बातको न जानकर केवल मूर्ति आदिमें ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणोंमें दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मणका, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं ॥ ५५ ॥ ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्तमें यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्धकी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के- सब आत्मस्वरूप भगवान्‌के ही रूप हैं ॥ ५६ ॥ इसलिये श्रुतदेव ! तुम इन ब्रहमर्षियोंको मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धासे इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियोंसे भी मेरी पूजा नहीं हो सकती ॥ ५७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेवने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उन ब्रहमर्षियोंकी एकात्मभावसे आराधना की तथा उनकी कृपासे वे भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्वने भी वही गति प्राप्त की ॥ ५८ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जैसे भक्त भगवान्‌ की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ भी भक्तोंकी भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तोंको प्रसन्न करनेके लिये कुछ दिनोंतक मिथिलापुरीमें रहे और उन्हें साधु पुरुषोंके मार्गका उपदेश करके वे द्वारका लौट आये ॥ ५९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे

उत्तरार्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...