सोमवार, 8 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीसूत उवाच

इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्ध

पीयूषं भवभयभित्परस्य पुंसः

सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णम्

पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति २१

 

श्रीशुक उवाच

एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः

जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत २२

विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः

इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः २३

ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः

क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात्पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः २४

हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्

प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः २५

एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च

विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत २६

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित्केशवान्तिके

परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत २७

किं स्विद्ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः

राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्रमासते २८

धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः

ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः २९

अहं प्रजाः वां भगवन्रक्षिष्ये दीनयोरिह

अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः ३०

 

श्रीब्राह्मण उवाच

सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः

अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत् ३१

तत्कथं नु भवान्कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः

त्वं चिकीर्षसि बालिश्यात्तन्न श्रद्दध्महे वयम् ३२

 

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म- मृत्युरूप संसारके भयको मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीके मुखारविन्दसे निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो बटोही अपने कानोंके दोनोंसे इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत्में इधर-उधर भटकनेसे होती है, दूर हो जाती है ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणीके गर्भसे एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया ॥ २२ ॥ ब्राह्मण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दु:खी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है ॥ २४ ॥ जो राजा हिंसा- परायण, दु:शील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दु:ख-पर-दु:ख भोगती रहती है और उसके सामने सङ्कट-पर-सङ्कट आते रहते हैं ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ब्राह्मण लडक़ेकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और वही बात कह गया ॥ २६ ॥ नवें बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससे कहा॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या ? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी यज्ञमें बैठे हुए हैं ! ॥ २८ ॥ जिनके राज्यमें धन, स्त्री अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दु:खी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रियके वेषमें पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है ॥ २९ ॥ भगवन् ! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका, तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा॥ ३० ॥

ब्राह्मणने कहाअर्जुन ! यहाँ बलरामजी, भगवान्‌ श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्र, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते ॥ ३१-३२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— नवासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भृगुजी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा

भगवान्‌ का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना

 

श्रीशुक उवाच

सरस्वत्यास्तटे राजन्नृषयः सत्रमासत

वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान् १

तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्मसुतं नृप

तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद्ब्रह्मणः सभाम् २

न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया

तस्मै चुक्रोध भगवान्प्रज्वलन्स्वेन तेजसा ३

स आत्मन्युत्थितम्मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः

अशीशमद्यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणात्मभूः ४

ततः कैलासमगमत्स तं देवो महेश्वरः

परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा ५

नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह

शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः ६

पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा

अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः ७

शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत्

तत उत्थाय भगवान्सह लक्ष्म्या सतां गतिः ८

स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्

आह ते स्वागतं ब्रह्मन्निषीदात्रासने क्षणम्

अजानतामागतान्वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो ९

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने

इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना १०

पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद्गतान्

पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा ११

अद्याहं भगवंल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्

वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः १२

 

श्रीशुक उवाच

एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा

निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः १३

पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्

स्वानुभूतमशेषेण राजन्भृगुरवर्णयत् १४

तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः

भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम् १५

धर्मः साक्षाद्यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्

ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद्यशश्चात्ममलापहम् १६

मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्

अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम् १७

सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः

भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः १८

त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः

गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम् १९

 

श्रीशुक उवाच

इत्थं सारस्वता विप्रा नृणाम्संशयनुत्तये

पुरुषस्य पदाम्भोज सेवया तद्गतिं गताः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगोंमें इस विषयपर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है ? ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! उन लोगोंने यह बात जाननेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी सभामें गये ॥ २ ॥ उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया ॥ ३ ॥ परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धिसे दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणिमन्थन से उत्पन्न अग्नि को जलसे बुझा दे ॥ ४ ॥

वहाँसे महर्षि भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिङ्गन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं ॥ ५ ॥ परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिङ्गन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेदकी मर्यादाका उल्लङ्घन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान्‌ शङ्कर क्रोधके मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको मारना चाहा ॥ ६ ॥ परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान्‌ विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठमें गये ॥ ७ ॥ उस समय भगवान्‌ विष्णु लक्ष्मीजीकी गोदमें अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्ष:स्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान्‌ विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान्‌ने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो ! मुझे आपके शुभागमनका पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये ॥ ८-९ ॥ महामुने ! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।यों कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान्‌ अपने हाथोंसे सहलाने लगे ॥ १० ॥ और बोले—‘महर्षे ! आपके चरणोंका जल तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोंको पवित्र कीजिये ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्ष:स्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब भगवान्‌ ने अत्यन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! भृगुजी वहाँसे लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्सङ्गमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान्‌ के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया ॥ १४ ॥ भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियोंको बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान्‌ विष्णुको ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभयके उद्गमस्थान हैं ॥ १५ ॥ भगवान्‌ विष्णुसे ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ शान्त, समचित्त, अकिञ्चन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं ॥ १७ ॥ उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं ॥ १८ ॥ भगवान्‌ की गुणमयी मायाने राक्षस, असुर और देवताउनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्तिका साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थ- स्वरूप हैं ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सरस्वतीतटके ऋषियोंने अपने लिये नहीं, मनुष्योंका संशय मिटानेके लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान्‌के चरणकमलोंकी सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

शिवजी का सङ्कटमोचन

 

स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः

स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत्स्वकृताच्छिवः २३

तेनोपसृष्टः सन्त्रस्तः पराधावन्सवेपथुः

यावदन्तं दिवो भूमेः कष्ठानामुदगादुदक् २४

अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन्सुरेश्वराः

ततो वैकुण्ठमगमद्भास्वरं तमसः परम् २५

यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमो गतिः

शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः २६

तं तथा व्यसनं दृष्ट्वा भगवान्वृजिनार्दनः

दूरात्प्रत्युदियाद्भूत्वा बटुको योगमायया २७

मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्

अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत् २८

 

श्रीभगवानुवाच

शाकुनेय भवान्व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः

क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक् २९

यदि नः श्रवणायालं युष्मद्व्यवसितं विभो

भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान्समीहते ३०

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा

गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम् ३१

 

श्रीभगवानुवाच

एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि

यो दक्षशापात्पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट् ३२

यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद्गुरौ

तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम् ३३

यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद्दानवर्षभ

तदैनं जह्यसद्वाचं न यद्वक्तानृतं पुनः ३४

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः

भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्न्यधात् ३५

अथापतद्भिन्नशिराः व्रजाहत इव क्षणात्

जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद्दिवि ३६

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे

देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः ३७

मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान्पुरुषोत्तमः

अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना ३८

हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः

क्षेमी स्यात्किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद्गुरौ ३९

य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः

परस्य साक्षात्परमात्मनो हरेः

गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा

विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः ४०

 

भगवान्‌ शङ्कर के इस प्रकार कह देनेपर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ।वह असुर शङ्कर जी के वरकी परीक्षाके लिये उन्हीं के सिरपर हाथ रखनेका उद्योग करने लगा। अब तो शङ्कर जी अपने दिये हुए वरदानसे ही भयभीत हो गये ॥ २३ ॥ वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्ततक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े ॥ २४ ॥ बड़े-बड़े देवता इस सङ्कट को टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अंधकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोकमें गये ॥ २५ ॥ वैकुण्ठमें स्वयं भगवान्‌ नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियोंकी परम गति हैं, जो सारे जगत्को अभयदान करके शान्तभावमें स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठमें जाकर जीवको फिर लौटना नहीं पड़ता ॥ २६ ॥ भक्तभयहारी भगवान्‌ ने देखा कि शङ्करजी तो बड़े सङ्कटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमायासे ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी ओर आने लगे ॥ २७ ॥ भगवान्‌ने मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथमें कुश लिये हुए थे। वृकासुरको देखकर उन्होने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया ॥ २८ ॥

ब्रह्मचारी वेषधारी भगवान्‌ ने कहाशकुनिनन्दन वृकासुरजी ! आप स्पष्ट ही बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या ? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये ॥ २९ ॥ आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं ? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि लोग सहायकोंके द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं ॥ ३० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के एक-एक शब्दसे अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमश: अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान्‌ शङ्करके पीछे दौडऩेकी बात शुरूसे कह सुनायी ॥ ३१ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है ? तब तो भाई ! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या ? वह तो दक्ष प्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है ॥ ३२ ॥ दानवराज ! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं ? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों, तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये ॥ ३३ ॥ दानव-शिरोमणे ! यदि किसी प्रकार शङ्करकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ने ऐसी मोहित करनेवाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया ॥ ३५ ॥ बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाशमें देवतालोग जय-जय, नमो नम:, साधु-साधु !के नारे लगाने लगे ॥ ३६ ॥ पापी वृकासुरकी मृत्युसे देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और भगवान्‌ शङ्कर उस विकट सङ्कट से मुक्त हो गये ॥ ३७ ॥ अब भगवान्‌ पुरुषोत्तमने भयमुक्त शङ्करजीसे कहा कि देवाधिदेव ! बड़े हर्षकी बात है कि इस दुष्टको इसके पापोंने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर ! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके ? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर ! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है ?’ ॥ ३८-३९ ॥

भगवान्‌ अनन्त शक्तियोंके समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणीकी सीमाके परे है। वे प्रकृतिसे अतीत स्वयं परमात्मा हैं। उनकी शङ्करजीको सङ्कटसे छुड़ानेकी यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसारके बन्धनों और शत्रुओंके भयसे मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुद्र मोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...