शनिवार, 20 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण

 

मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः

वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् १

अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्

गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् २

सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः

नानात्मकत्वाद्विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ३

निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्

जिज्ञासायां सम्प्रवृत्तो नाद्रियेत्कर्मचोदनाम् ४

यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान्मत्परः क्वचित्

मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ५

अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः

असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक् ६

जायापत्यगृहक्षेत्र स्वजनद्रविणादिषु

उदासीनः समं पश्यन्सर्वेष्वर्थमिवात्मनः ७

विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद्देहादात्मेक्षिता स्वदृक्

यथाग्निर्दारुणो दाह्याद्दाहकोऽन्यः प्रकाशकः ८

निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान्गुणान्

अन्तः प्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान्परः ९

योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि

संसारस्तन्निबन्धोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः १०

तस्माज्जिज्ञासयात्मानमात्मस्थं केवलं परम्

सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ११

आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः

तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः १२

वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-

र्धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम्

गुणांश्च सन्दह्य यदात्ममेत-

त्स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः १३

अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः

नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् १४

मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा

तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः १५

एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः

कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत् १६

तत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते

भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत् १७

न देहिनां सुखं किञ्चिद्विद्यते विदुषामपि

तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम् १८

यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः

तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद्यथा १९

कोऽन्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके

आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः २०

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव ! साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण  में रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँ  तक उनसे विरोध न हो वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे ॥ १ ॥ निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगत्के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दु:ख ॥ २ ॥ इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है ॥ ३ ॥ जो पुरुष मेरी शरणमें है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये, जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये ॥ ४ ॥ अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढक़र आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ॥ ५ ॥ शिष्य को अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे—किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे ॥ ६ ॥ जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ॥ ७ ॥ उद्धव ! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है ॥ ८ ॥ जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है, तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ॥ ९ ॥ ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है ॥ १० ॥ प्यारे उद्धव ! इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है, उसे क्रमश: मिटा देना चाहिये ॥ ११ ॥ (यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकडिय़ाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्नि की उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्रि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्रि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है [*] ॥ १२-१३ ॥

प्यारे उद्धव ! यदि तुम कदाचित् कर्मोंके कर्ता और सुख-दुखोंके भोक्ता जीवोंको अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओंको नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थोंकी स्थिति प्रवाहसे नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियोंके भेदसे उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके माननेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत्के कर्ता आत्माकी नित्य सत्ता और जन्म-मृत्युके चक्करसे मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवोंके सम्बन्धसे होनेवाली जीवोंकी जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होनेके कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और कालकी नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मोंका कर्ता तथा सुख-दु:खका भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दु:खका फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोगकी समस्या सुलझ जानेपर भी दु:ख- भोगकी समस्या तो उलझी ही रहेगी। अत: इस मतके अनुसार जीवको कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी । जब जीव स्वरूपत: परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनोंसे ही वञ्चित रह जायगा ॥ १४—१७ ॥ (यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दु:ख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दु:खसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ॥ १८ ॥ यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुखकी प्राप्ति और दु:खके नाशका ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपायका पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ॥ १९ ॥ जब मृत्यु उनके सिरपर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस मनुष्यको फाँसीपर लटकानेके लिये वधस्थानपर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (अत: पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टिसे न सुख ही सिद्ध होगा और न जीवका कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा) ॥ २० ॥

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[*] यहाँतक यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप नित्य एक ही आत्मा है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म देहके कारण हैं। आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है, सब अनित्य और मायामय है; इसलिये आत्मज्ञान होते ही समस्त विपत्तियोंसे मुक्ति मिल जाती है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 19 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अवधूतोपाख्यान—कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा

 

एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।

संहृत्य कालकलया कल्पान्त इदमीश्वरः ॥ १६ ॥

 एक एवाद्वितीयोऽभूत् आत्माधारोऽखिलाश्रयः ।

 कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।

 सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥ १७ ॥

 परावराणां परम, आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।

 केवलानुभवानन्द सन्दोहो निरुपाधिकः ॥ १८ ॥

 केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।

 सङ्क्षोभयन् सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥ १९ ॥

 तामाहुः त्रिगुणव्यक्तिं सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।

 यस्मिन् प्रोतम् इदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥ २० ॥

 यथोर्णनाभिः हृदयाद् ऊर्णां सन्तत्य वक्त्रतः ।

 तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥ २१ ॥

 यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

 स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत् तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥

 कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।

 याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥ २३ ॥

 एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।

 स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं श्रृणु मे वदतः प्रभो ॥ २४ ॥

 देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुः

     बिभ्रत् स्म सत्त्वनिधनं सततार्त्युदर्कम् ।

 तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि

     पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसङ्गः ॥ २५ ॥

 जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान्

     पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितन्वन् ।

 स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः

     सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा ॥ २६ ॥

 जिह्वैकतोऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा

     शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।

 घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिः

     बह्व्यः सपत्‍न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ २७ ॥

 सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या

     वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् ।

 तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ।

     ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥ २८ ॥

 लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसंभवान्ते

     मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।

 तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु यावन्

     निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ २९ ॥

एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।

 विचरामि महीमेतां मुक्तसङ्गोऽनहङ्कृतिः ॥ ३० ॥

 न ह्येकस्मात् गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम् ।

 ब्रह्मैतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभिः ॥ ३१ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 इत्युक्त्वा स यदुं विप्रः तमामन्त्र्य गभीरधीः ।

 वन्दितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥ ३२ ॥

 अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।

 सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥ ३३ ॥

 

अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ने पूर्वकल्पमें बिना किसी अन्य सहायकके अपनी ही मायासे रचे हुए जगत् को कल्प के अन्तमें (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्तिके द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपनेमें लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदसे शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधारसे रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनोंके नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत्के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति कालके प्रभावसे सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियोंको साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूपसे विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति कालके द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति- प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणोंकी पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि  का मूल कारण है। उसीमें यह सारा विश्व, सूत में ताने-बानेकी तरह ओतप्रोत है और इसीके कारण जीवको जन्म-मृत्युके चक्करमें पडऩा पड़ता है ॥ १६—२० ॥ जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुँहके द्वारा जाला फैलाती है, उसीमें विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत्को अपनेमेंसे उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूपसे विहार करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं ॥ २१ ॥

राजन् ! मैंने भृङ्गी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेहसे , द्वेषसे अथवा भयसे भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसीमें लगा दे तो उसे उसी वस्तुका स्वरूप प्राप्त हो जाता है ॥ २२ ॥ राजन् ! जैसे भृङ्गी एक कीड़ेको ले जाकर दीवारपर अपने रहनेकी जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भयसे उसीका चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीरका त्याग किये बिना ही उसी शरीरसे तद्रूप हो जाता है [*] ॥ २३ ॥

राजन् ! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओंसे ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्यकी शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीरको पकड़ रखनेका फल यह है कि दु:ख-पर-दु:ख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीरसे तत्त्वविचार करनेमें सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ॥ २५ ॥ जीव जिस शरीरका प्रिय करनेके लिये ही अनेकों प्रकारकी कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओंका विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषणमें लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसञ्चय करता है। आयुष्य पूरी होनेपर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्षके समान दूसरे शरीरके लिये बीज बोकर उसके लिये भी दु:ख की व्यवस्था कर जाता है ॥ २६ ॥ जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीवको जीभ एक ओर—स्वादिष्ट पदार्थोंकी ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर—जलकी ओर; जननेन्द्रिय एक ओर—स्त्रीसंभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर—कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्दकी ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघनेके लिये ले जाना चाहती है तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखनेके लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ॥ २७ ॥ वैसे तो भगवान्‌  ने अपनी अचिन्त्य शक्ति मायासे वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकारकी योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्यशरीर  की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धिसे युक्त है, जो ब्रह्मका साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ॥ २८ ॥ यद्यपि यह मनुष्यशरीर है तो अनित्य ही—मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थकी प्राप्ति हो सकती है; इसलिये अनेक जन्मोंके बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्र-से- शीघ्र, मृत्युके पहले ही मोक्ष-प्राप्तिका प्रयत्न कर ले। इस जीवनका मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषयभोग तो सभी योनियोंमें प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥ २९ ॥ राजन् ! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया। मेरे हृदयमें ज्ञान-विज्ञानकी ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहङ्कार ही। अब मैं स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीमें विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥ राजन् ! अकेले गुरुसे ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धिसे भी बहुत-कुछ सोचने-समझनेकी आवश्यकता है। देखो ! ऋषियोंने एक ही अद्वितीय ब्रह्मका अनेकों प्रकारसे गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्मके वास्तविक स्वरूपको कैसे जान सकोगे ?) ॥ ३१ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्यारे उद्धव ! गम्भीर-बुद्धि अवधूत दत्तात्रेयने राजा यदुको इस प्रकार उपदेश किया। यदुने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये ॥ ३२ ॥ हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों  का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥३३ ॥

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 [*] जब उसी शरीर  से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीरसे तो कहना ही क्या है? इसलिये मनुष्य  को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा  का ही चिन्तन करना चाहिये।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अवधूतोपाख्यान—कुरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा

 

श्रीब्राह्मण उवाच -

परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत् प्रियतमं नृणाम् ।

अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चनः ॥ १ ॥

 सामिषं कुररं जघ्नुः बलिनो ये निरामिषाः ।

 तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥ २ ॥

 न मे मानापमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।

 आत्मक्रीड आत्मरतिः विचरामीह बालवत् ॥ ३ ॥

 द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।

 यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः ॥ ४ ॥

 क्वचित् कुमारी त्वात्मानं वृणानान् गृहमागतान् ।

 स्वयं तान् अर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ॥ ५ ॥

 तेषम् अभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव ।

 अवघ्नन्त्याः प्रकोष्ठस्थाः चक्रुः शङ्खाः स्वनं महत् ॥ ६ ॥

 सा तत् जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः ।

 बभञ्जैकैकशः शङ्खान् द्वौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥ ७ ॥

 उभयोरप्यभूद् घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शंखयोः ।

 तत्राप्येकं निरभिदद् एकस्मात् नाभवद् ध्वनिः ॥ ८ ॥

 अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।

 लोकान् अनुचरन् एतान् लोकतत्त्वविवित्सया ॥ ९ ॥

 वासे बहूनां कलहो भवेत् वार्ता द्वयोरपि ।

 एक एव चरेत् तस्मात् कुमार्या इव कङ्कणः ॥ १० ॥

 मन एकत्र संयुञ्ज्यात् जितश्वासो जितासनः ।

 वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतन्द्रितः ॥ ११ ॥

यस्मिन्मनो लब्धपदं यदेतत्

     शनैः शनैः मुञ्चति कर्मरेणून् ।

 सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च

     विधूय निर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥ १२ ॥

तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो

     न वेद किञ्चिद् बहिरन्तरं वा ।

 यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्तं

     इषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥ १३ ॥

एकचार्यनिकेतः स्याद् , अप्रमत्तो गुहाशयः ।

 अलक्ष्यमाण आचारैः मुनिरेकोऽल्पभाषणः ॥ १४ ॥

 गृहारम्भोऽतिदुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः ।

 सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १५ ॥

 

अवधूत दत्तात्रेयजीने कहा—राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दु:खका कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चनभाव से रहता है—शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता—उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीननेके लिये उसे घेरकर चोंच मारने लगे। जब कुरर पक्षीने अपनी चोंचसे मांसका टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥ २ ॥

मुझे मान या अपमानका कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालों को जो चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालकसे ली है। अत: उसीके समान मैं भी मौजसे रहता हूँ ॥ ३ ॥ इस जगत्में दो ही प्रकारके व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्दमें मग्र रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥ ४ ॥

एक बार किसी कुमारी कन्याके घर उसे वरण करनेके लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घरके लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया ॥ ५ ॥ राजन् ! उनको भोजन करानेके लिये वह घरके भीतर एकान्तमें धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाईमें पड़ी शंखकी चूडिय़ाँ जोर-जोरसे बज रही थीं ॥ ६ ॥ इस शब्दको निन्दित समझकर कुमारीको बड़ी लज्जा मालूम हुई [*] और उसने एक-एक करके सब चूडिय़ाँ तोड़ डाली और दोनों हाथोंमें केवल दो-दो चूडिय़ाँ रहने दीं ॥ ७ ॥ अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूडिय़ाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयोंमें केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकारकी आवाज नहीं हुई ॥ ८ ॥ रिपुदमन ! उस समय लोगोंका आचार-विचार निरखने-परखनेके लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी कन्याकी चूड़ीके समान अकेले ही विचरना चाहिये ॥ ९-१० ॥

राजन् ! मैंने बाण बनानेवालेसे यह सीखा है कि आसन और श्वासको जीतकर वैराग्य और अभ्यासके द्वारा अपने मनको वशमें कर ले और फिर बड़ी सावधानीके साथ उसे एक लक्ष्यमें लगा दे ॥ ११ ॥ जब परमानन्दस्वरूप परमात्मामें मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओंकी धूलको धो बहाता है। सत्त्वगुणकी वृद्धिसे रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियोंका त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे र्ईंधनके बिना अग्रि ॥ १२ ॥ इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मामें ही स्थिर—निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थका भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनानेमें इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पाससे ही दलबलके साथ राजाकी सवारी निकल गयी और उसे पतातक न चला ॥ १३ ॥

राजन् ! मैंने साँपसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासीको सर्पकी भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थानमें न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदिमें पड़ा रहे, बाहरी आचारोंसे पहचाना न जाय। किसीसे सहायता न ले और बहुत कम बोले ॥ १४ ॥ इस अनित्य शरीरके लिये घर बनानेके बखेड़ेमें पडऩा व्यर्थ और दु:खकी जड़ है। साँप दूसरोंके बनाये घरमें घुसकर बड़े आरामसे अपना समय काटता है ॥ १५ ॥

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[*] क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्योतक था।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

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