मंगलवार, 23 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन

 

 श्रीभगवानुवाच -

 सत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न च आत्मनः ।

 सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥ १ ॥

 सत्त्वात् धर्मो भवेद्‍ वृद्धात् पुंसो मद्‍भक्तिलक्षणः ।

 सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते ॥ २ ॥

 धर्मो रजस्तमो हन्यात् सत्त्ववृद्धिः अनुत्तमः ।

 आशु नश्यति तन्मूलो ह्यधर्म उभये हते ॥ ३ ॥

 आगमोपः प्रजा देशः कालः कर्म च जन्म च ।

 ध्यानं मंत्रोऽथ संस्कारो दशैते गुणहेतवः ॥ ४ ॥

 तत् तत् सात्त्विकमेवैषां यद् यद् वृद्धाः प्रचक्षते ।

 निन्दन्ति तामसं तत्तद् राजसं तद् उपेक्षितम् ॥ ५ ॥

 सात्त्विकान्येव सेवेत पुमान् सत्त्वविवृद्धये ।

 ततो धर्मस्ततो ज्ञानं यावत् स्मृतिरपोहनम् ॥ ६ ॥

 वेणुसङ्घर्षजो वह्निः दग्ध्वा शाम्यति तद्‌वनम् ।

 एवं गुणव्यत्ययजो, देहः शाम्यति तत्क्रियः ॥ ७ ॥

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 विदन्ति मर्त्याः प्रायेण विषयान् पदमापदाम् ।

 तथापि भुञ्जते कृष्ण तत्कथं श्वखराजवत् ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 अहमित्यन्यथा बुद्धिः प्रमत्तस्य यथा हृदि ।

 उत्सर्पति रजो घोरं ततो वैकारिकं मनः ॥ ९ ॥

 रजोयुक्तस्य मनसः सङ्कल्पः सविकल्पकः ।

 ततः कामो गुणध्यानाद् दुःसहः स्याद् हि दुर्मतेः ॥ १० ॥

 करोति कामवशगः कर्माण्यविजितेन्द्रियः ।

 दुःखोदर्काणि संपश्यन् रजोवेग विमोहितः ॥ ११ ॥

 रजस्तमोभ्यां यदपि विद्वान् विक्षिप्तधीः पुनः ।

 अतंद्रितो मनो युञ्जन् दोषदृष्टिर्न सज्जते ॥ १२ ॥

 अप्रमत्तोऽनुयुञ्जीत मनो मय्यर्पयन् शनैः ।

 अनिर्विण्णो यथाकालं जितश्वासो जितासनः ॥ १३ ॥

 एतावान् योग आदिष्टो मच्छिष्यैः सनकादिभिः ।

 सर्वतो मन आकृष्य मय्यद्धाऽऽवेश्यते यथा ॥ १४ ॥

 

 श्रीउद्धव उवाच -

 यदा त्वं सनकादिभ्यो येन रूपेण केशव ।

 योगमादिष्टवानेतद् रूपमिच्छामि वेदितुम् ॥ १५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 पुत्रा हिरण्यगर्भस्य मानसाः सनकादयः ।

 पप्रच्छुः पितरं सूक्ष्मां योगस्यैकान्तिकीं गतिम् ॥ १६ ॥

 

 सनकादय ऊचुः -

 गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रभो ।

 कथमन्योन्य संत्यागो मुमुक्षोः अतितितीर्षोः ॥ १७ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

एवं पृष्टो महादेवः स्वयंभूः भूतभावनः ।

 ध्यायमानः प्रश्नबीजं नाभ्यपद्यत कर्मधीः ॥ १८ ॥

 स मामचिन्तयद् देवः प्रश्नपारतितीर्षया ।

 तस्याहं हंसरूपेण सकाशमगमं तदा ॥ १९ ॥

 दृष्ट्वा मां त उपव्रज्य कृत्वा पादाभिवन्दनम् ।

 ब्रह्मामग्रतः कृत्वा पप्रच्छुः को भवान् इति ॥ २० ॥

 इत्यहं मुनिभिः पृष्टः तत्त्वजिज्ञासुभिस्तदा ।

 यदवोचमहं तेभ्यः तद् उद्धव निबोध मे ॥ २१ ॥

 वस्तुनो यद्यनानात्वमात्मनः प्रश्न ईदृशः ।

 कथं घटेत वो विप्रा वक्तुर्वा मे क आश्रयः ॥ २२ ॥

 पञ्चात्मकेषु भूतेषु समानेषु च वस्तुतः ।

 को भवानिति वः प्रश्नो वाचारम्भो ह्यनर्थकः ॥ २३ ॥

 मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैः अपीन्द्रियैः ।

 अहमेव न मत्तोऽन्यत् इति बुध्यध्वमञ्जसा ॥ २४ ॥

 गुणेषु आविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः ।

 जीवस्य देह उभयं गुणाश्चेतो मदात्मनः ॥ २५ ॥

 गुणेषु च आविशत् चित्तमभीक्ष्णं गुणसेवया ।

 गुणाश्च चित्तप्रभवा मद्‌रूप उभयं त्यजेत् ॥ २६ ॥

 जाग्रत् स्वप्नः सुषुप्तं च, गुणतो बुद्धिवृत्तयः ।

 तासां विलक्षणो जीवः साक्षित्वेन विनिश्चितः ॥ २७ ॥

 यर्हि संसृतिबन्धोऽयं आत्मनो गुणवृत्तिदः ।

 मयि तुर्ये स्थितो जह्यात् त्यागः तद् गुणचेतसाम् ॥ २८ ॥

 अहङ्कारकृतं बन्धं आत्मनोऽर्थविपर्ययम् ।

 विद्वान् निर्विद्य संसारचिन्तां तुर्ये स्थितः त्यजेत् ॥ २९ ॥

 यावत् नानार्थधीः पुंसो, न निवर्तेत युक्तिभिः ।

 जागर्ति अपि स्वपन् अज्ञः स्वप्ने जागरणं यथा ॥ ३० ॥

 असत्त्वाद् आत्मनोऽन्येषां भावानां तत्कृता भिदा ।

 गतयो हेतवश्चास्य मृषा स्वप्नदृशो यथा ॥ ३१ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! सत्त्व, रज और तम—ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्माके नहीं। सत्त्वके द्वारा रज और तम—इन दो गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुणकी शान्तवृत्तिके द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियोंको भी शान्त कर देना चाहिये ॥ १ ॥ जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, तभी जीवको मेरे भक्तिरूप स्वधर्मकी प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओंका सेवन करनेसे ही सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्ममें प्रवृत्ति होने लगती है ॥ २ ॥ जिस धर्मके पालनसे सत्त्वगुणकी वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुणको नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हींके कारण होनेवाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है ॥ ३ ॥ शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार— ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुणकी, राजसिक हों तो रजोगुणकी और तामसिक हों तो तमोगुणकी वृद्धि करती हैं ॥ ४ ॥ इनमेंसे शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं ॥ ५ ॥ जबतक अपने आत्माका साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणोंकी निवृत्ति न हो, तबतक मनुष्यको चाहिये कि सत्त्वगुणकी वृद्धिके लिये सात्त्विक शास्त्र आदिका ही सेवन करें; क्योंकि उससे धर्मकी वृद्धि होती है और धर्मकी वृद्धिसे अन्त:करण शुद्ध होकर आत्मतत्त्वका ज्ञान होता है ॥ ६ ॥ बाँसोंकी रगड़से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वनको जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणोंके वैषम्यसे उत्पन्न हुआ है। विचारद्वारा मन्थन करनेपर इससे ज्ञानाग्रि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणोंको भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है ॥ ७ ॥

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! प्राय: सभी मनुष्य इस बातको जानते हैं कि विषय विपत्तियोंके घर हैं; फिर भी वे कुत्ते, गधे और बकरेके समान दु:ख सहन करके भी उन्हींको ही भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है? ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूपको भूलकर हृदयसे सूक्ष्म-स्थूलादि शरीरोंमें अहंबुद्धि कर बैठता है—जो कि सर्वथा भ्रम ही है—तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुणकी ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है ॥ ९ ॥ बस, जहाँ मनमें रजोगुणकी प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पोंका ताँता बँध जाता है। अब वह विषयोंका चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धिके कारण कामके फंदेमें फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है ॥ १० ॥ अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकारके कर्म करने लगता है और इन्द्रियोंके वश होकर, यह जानकर भी कि इन कर्मोंका अन्तिम फल दु:ख ही है, उन्हींको करता है, उस समय वह रजोगुणके तीव्र वेगसे अत्यन्त मोहित रहता है ॥ ११ ॥ यद्यपि विवेकी पुरुषका चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुणके वेगसे विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयोंमें दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानीसे अपने चित्तको एकाग्र करनेकी चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयोंमें आसक्ति नहीं होती ॥ १२ ॥ साधकको चाहिये कि आसन और है। फिर ‘यह करो, यह मत करो’ इस प्रकारके विधि-निषेधका अधिकार होता है। तब ‘अन्त:करणकी शुद्धिके लिये कर्म करो’—यह बात कही जाती है। जब अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब कर्मसम्बन्धी दुराग्रह मिटानेके लिये यह बात कही जाती है कि भक्तिमें विक्षेप डालनेवाले कर्मोंके प्रति आदरभाव छोडक़र दृढ़ विश्वाससे भजन करो। तत्त्वज्ञान हो जानेपर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। यही इस प्रसङ्गका अभिप्राय है। प्राणवायुपर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समयके अनुसार बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साहसे उसीमें जुड़ जाय ॥ १३ ॥ प्रिय उद्धव ! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियोंने योगका यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मनको सब ओरसे खींचकर विराट् आदिमें नहीं, साक्षात् मुझमें ही पूर्णरूपसे लगा दें ॥ १४ ॥

उद्धवजीने कहा—श्रीकृष्ण ! आपने जिस समय जिस रूपसे, सनकादि परमर्षियोंको योगका आदेश दिया था, उस रूपको मैं जानना चाहता हूँ ॥ १५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! सनकादि परमर्षि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पिता   से योग  की सूक्ष्म अन्तिम सीमाके सम्बन्धमें इस प्रकार प्रश्र किया था ॥ १६ ॥

सनकादि परमर्षियोंने पूछा—पिताजी ! चित्त गुणों अर्थात् विषयोंमें घुसा ही रहता है और गुण भी चित्तकी एक-एक वृत्तिमें प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपस में मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थितिमें जो पुरुष इस संसारसागर से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनोंको एक-दूसरेसे अलग कैसे कर सकता है ? ॥ १७ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यद्यपि ब्रह्माजी सब देवताओंके शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियोंके जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि परमर्षियोंके इस प्रकार पूछनेपर ध्यान करके भी वे इस प्रश्न का मूलकारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी ॥ १८ ॥ उद्धव ! उस समय ब्रह्माजीने इस प्रश्न का उत्तर देनेके लिये भक्तिभावसे मेरा चिन्तन किया । तब मैं हंसका रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ ॥ १९ ॥ मुझे देखकर सनकादि ब्रह्माजीको आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणोंकी वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं ?’ ॥ २० ॥ प्रिय उद्धव ! सनकादि परमार्थतत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछनेपर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो— ॥ २१ ॥ ‘ब्राह्मणो ! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्वसे सर्वथा रहित है, तब आत्मा के सम्बन्धमें आप लोगोंका ऐसा प्रश्र कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? अथवा मैं यदि उत्तर देनेके लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदिका आश्रय लेकर उत्तर दूँ ? ॥ २२ ॥ देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पञ्चभूतात्मक होनेके कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थरूपसे भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थितिमें ‘आप कौन हैं?’ आप लोगोंका यह प्रश्न ही केवल वाणीका व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, अत: निरर्थक है ॥ २३ ॥ मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग तत्त्वविचारके द्वारा समझ लीजिये ॥ २४ ॥ पुत्रो ! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीवके देह हैं—उपाधि हैं। अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ॥ २५ ॥ इसलिये बार-बार विषयोंका सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविकसे अभिन्न मुझ परमात्माका साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये ॥ २६ ॥ जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ सत्त्वादि गुणोंके अनुसार होती हैं और बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्दका स्वभाव नहीं। इन वृत्तियोंका साक्षी होनेके कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूतिसे युक्त है ॥ २७ ॥ क्योंकि बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा होनेवाला यह बन्धन ही आत्मामें त्रिगुणमयी वृत्तियोंका दान करता है। इसलिये तीनों अवस्थाओंसे विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्वमें स्थित होकर इस बुद्धिके बन्धनका परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनोंका युगपत् त्याग हो जाता है ॥ २८ ॥ यह बन्धन अहङ्कारकी ही रचना है और यही आत्माके परिपूर्णतम सत्य, अखण्डज्ञान और परमानन्दस्वरूपको छिपा देता है। इस बातको जानकर विरक्त हो जाय। और अपने तीन अवस्थाओंमें अनुगत तुरीयस्वरूपमें होकर संसारकी चिन्ताको छोड़ दे ॥ २९ ॥ जबतक पुरुषकी भिन्न-भिन्न पदार्थोंमें सत्यत्वबुद्धि, अहंबुद्धि और ममबुद्धि युक्तियोंके द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तबतक वह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है—जैसे स्वप्नावस्थामें जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ ॥ ३० ॥ आत्मासे अन्य देह आदि प्रतीयमान नामरूपात्मक प्रपञ्चका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होनेवाले वर्णाश्रमादिभेद, स्वर्गादि फल और उनके कारणभूत कर्म—ये सब-के-सब इस आत्माके लिये वैसे ही मिथ्या हैं; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुषके द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ ॥ ३१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 22 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि

 

श्रीउद्धव उवाच

संशयः शृण्वतो वाचं तव योगेश्वरेश्वर

न निवर्तत आत्मस्थो येन भ्राम्यति मे मनः १६

 

श्रीभगवानुवाच

स एष जीवो विवरप्रसूतिः

प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः

मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं

मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः १७

यथानलः खेऽनिलबन्धुरुष्मा

बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः

अणुः प्रजातो हविषा समेधते

तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी १८

एवं गदिः कर्म गतिर्विसर्गो

घ्राणो रसो दृक्स्पर्शः श्रुतिश्च

सङ्कल्पविज्ञानमथाभिमानः

सूत्रं रजःसत्त्वतमोविकारः १९

अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनि-

रव्यक्त एको वयसा स आद्यः

विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव भाति

बीजानि योनिं प्रतिपद्य यद्वत् २०

यस्मिन्निदं प्रोतमशेषमोतं

पटो यथा तन्तुवितानसंस्थः

य एष संसारतरुः पुराणः

कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते २१

द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः

पञ्चस्कन्धः पञ्चरसप्रसूतिः

दशैकशाखो द्विसुपर्णनीड-

स्त्रिवल्कलो द्विफलोऽर्कं प्रविष्टः २२

अदन्ति चैकं फलमस्य गृध्रा

ग्रामेचरा एकमरण्यवासाः

हंसा य एकं बहुरूपमिज्यैर्मा-

यामयं वेद स वेद वेदम् २३

एवं गुरूपासनयैकभक्त्या

विद्याकुठारेण शितेन धीरः

विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः

सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम् २४

 

उद्धवजीने कहा—सनकादि योगेश्वरोंके भी परमेश्वर प्रभो ! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मनका सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्मका पालन करना चाहिये या सब कुछ छोडक़र आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधामें लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भली-भाँति समझाइये ॥ १६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! जिस परमात्माका परोक्षरूपसे वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करनेवाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राणके साथ मूलाधारचक्रमें प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरकचक्र (नाभिस्थान) में आकर पश्यन्ती वाणीका मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेशमें स्थित विशुद्ध नामक चक्रमें आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणीके रूपमें व्यक्त होते हैं। फिर क्रमश: मुखमें आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल—वैखरी वाणीका रूप ग्रहण कर लेते हैं ॥ १७ ॥ अग्रि आकाशमें ऊष्मा अथवा विद्युत्के रूपसे अव्यक्तरूपमें स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायुकी सहायतासे वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारीके रूपमें प्रकट होती है और फिर आहुति देनेपर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्मस्वरूपसे क्रमश: परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणीके रूपमें प्रकट होता हूँ ॥ १८ ॥ इसी प्रकार बोलना, हाथोंसे काम करना, पैरोंसे चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदासे मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मनसे संकल्प- विकल्प करना, बुद्धिसे समझना, अहङ्कारके द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्वके रूपमें सबका ताना- बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणके सारे विकार कहाँतक कहूँ—समस्त कर्ता, कारण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं ॥ १९ ॥ यह सबको जीवित करनेवाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमलका कारण है। यह आदि-पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेतमें बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगतिसे मायाका आश्रय लेकर शक्ति-विभाजनके द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपोंमें प्रतीत होने लगता है ॥ २० ॥ जैसे तागोंके ताने-बानेमें वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मामें ही ओतप्रोत है। जैसे सूतके बिना वस्त्रका अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्त्रके बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत्के न रहनेपर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है— परमात्माके बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाहरूपसे नित्य है। इसका स्वरूप ही है—कर्मकी परम्परा तथा इस वृक्षके फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग ॥ २१ ॥ इस संसारवृक्षके दो बीज हैं—पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर—दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्षमें वात, पित्त और कफरूप तीन तरहकी छाल है। इसमें दो तरहके फल लगते हैं—सुख और दु:ख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डलतक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डलका भेदन कर जानेवाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्रमें नहीं पड़ते) ॥ २२ ॥ जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयोंमें फँसे हुए हैं, वे कामनासे भरे हुए होनेके कारण गीधके समान हैं। वे इस वृक्षका दु:खरूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकारके कर्मोंके बन्धनमें फँसे रहते हैं। जो अरण्यवासी परमहंस विषयोंसे विरक्त हैं, वे इस वृक्षमें राजहंसके समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं। प्रिय उद्धव ! वास्तवमें मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकारका रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बातको गुरुओंके द्वारा समझ लेता है, वही वास्तवमें समस्त वेदोंका रहस्य जानता है ॥ २३ ॥ अत: उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेवकी उपासनारूप अनन्य भक्तिके द्वारा अपने ज्ञानकी कुल्हाड़ीको तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानीसे जीवभावको काट डालो। फिर परमात्मस्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रोंको भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूपमें ही स्थित हो रहो ॥ २४ ॥ [*]

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे

द्वादशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि

 

श्रीभगवानुवाच

न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा १

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः

यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् २

सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ३

विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः

रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन्युगे युगे ४

बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः

वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः ५

सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः

व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ६

ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः

अव्रतातप्ततपसः मत्सङ्गान्मामुपागताः ७

केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः

येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा ८

यं न योगेन साङ्ख्येन दानव्रततपोऽध्वरैः

व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि ९

रामेण सार्धं मथुरां प्रणीते

श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः

विगाढभावेन न मे वियोग

तीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय १०

तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता

मयैव वृन्दावनगोचरेण

क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां

हीना मया कल्पसमा बभूवुः ११

ता नाविदन्मय्यनुषङ्गबद्ध

धियः स्वमात्मानमदस्तथेदम्

यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये

नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे १२

मत्कामा रमणं जारमस्वरूपविदोऽबलाः

ब्रह्म मां परमं प्रापुः सङ्गाच्छतसहस्रशः १३

तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च १४

मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः १५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! जगत्में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वशमें कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूत्र्त और दक्षिणासे भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्गके समान मुझे वशमें करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ १-२ ॥ निष्पाप उद्धवजी ! यह एक युगकी नहीं, सभी युगोंकी एक-सी बात है। सत्सङ्ग  के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरोंको मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृतिके बहुत-से जीवोंने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्सङ्गके प्रभावसे ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ॥ ३—६ ॥ उन लोगोंने न तो वेदोंका स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषोंकी उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्सङ्गके प्रभावसे ही वे मुझे प्राप्त हो गये ॥ ७ ॥ गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रजके हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्यके सम्बन्धमें सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भावके द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये ॥ ८ ॥ उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियोंकी व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनोंके द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्सङ्गके द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ ॥ ९ ॥ उद्धव ! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजीके साथ मुझे व्रजसे मथुरा ले आये, उस समय गोपियोंका हृदय गाढ़ प्रेमके कारण मेरे अनुरागके रंगमें रँगा हुआ था। मेरे वियोगकी तीव्र व्याधिसे वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी ॥ १० ॥ तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावनमें था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ—वे रासकी रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षणके समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव ! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्पके समान हो गयीं ॥ ११ ॥ जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधिमें स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेमके द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादिकी भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी ॥ १२ ॥ उद्धव ! उन गोपियोंमें बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूपको नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान्‌ न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभावसे मुझसे मिलनेकी आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओंने केवल सङ्गके प्रभावसे ही मुझ परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लिया ॥ १३ ॥ इसलिये उद्धव ! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुननेयोग्य तथा सुने हुए विषयका भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप मुझ एककी ही शरण सम्पूर्ण रूपसे ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरणमें आ जानेसे तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ॥ १४-१५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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