शनिवार, 27 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

 द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्यात् जन्मोपानयनं द्विजः ।

 वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहूतः ॥ २२ ॥

 मेखला अजिन दण्डाक्ष ब्रह्मसूत्रकमण्डलून् ।

 जटिलो अधौतदद्वासः अरक्तपीठः कुशान् दधत् ॥ २३ ॥

 स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः ।

 न च्छिंद्यान् नखरोमाणि कक्ष-उपस्थगतान्यपि ॥ २४ ॥

 रेतो न अवकिरेत् जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम् ।

 अवकीर्णे अवगाह्य अप्सु यतासुः त्रिपदीं जपेत् ॥ २५ ॥

 अग्न्यर्काचार्य-गो-विप्र गुरु-वृद्ध-सुरान् शुचिः ।

 समाहित उपासीत संध्ये च यतवाग्-जपन् ॥ २६ ॥

 आचार्यं मां विजानीयात् न-अवमन्येत कर्हिचित् ।

 न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः ॥ २७ ॥

 सायं प्रातः उपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत् ।

 यच्चान्यद् अपि अनुज्ञातं उपयुञ्जीत संयतः ॥ २८ ॥

 शुश्रूषमाण आचार्यं सदा-उपासीत नीचवत् ।

 यान शय्यासनस्थानैः नातिदूरे कृताञ्जलिः ॥ २९ ॥

 एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद् ‍भोगविवर्जितः ।

 विद्या समाप्यते यावद् बिभ्रद् व्रतं अखण्डितम् ॥ ३० ॥

 

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे ॥ २२ ॥ मेखला, मृगचर्म, वर्णके अनुसार दण्ड, रुद्राक्षकी माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिरपर जटा रखे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण करे ॥ २३ ॥ स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्यागके समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रियके बाल और नाखूनोंको कभी न काटे ॥ २४ ॥ पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदिमें वीर्य स्खलित हो जाय, तो जलमें स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्रीका जप करे ॥ २५ ॥ ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अग्रि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायङ्काल और प्रात:काल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये ॥ २६ ॥ आचार्यको मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है ॥ २७ ॥ सायङ्काल और प्रात:काल दोनों समय जो कुछ भिक्षामें मिले वह लाकर गुरुदेवके आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयमसे भिक्षा आदिका यथोचित उपयोग करे ॥ २८ ॥ आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी दूरपर सोवे। थके हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों तो उनके आदेशकी प्रतीक्षामें हाथ जोडक़र पासमें ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्तिकी भाँति सेवा-शुश्रूषाके द्वारा सदा-सर्वदा आचार्यकी आज्ञामें तत्पर रहे ॥ २९ ॥ जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक सब प्रकारके भोगोंसे दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

श्रीउद्धव उवाच -

 यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद्‍भक्तिलक्षणः ।

 वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि ॥ १ ॥

 यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत् ।

 स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत् समाख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥

 पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो ।

 यत्तेन हंसरूपेण ब्राह्मणेऽभ्यात्थ माधव ॥ ३ ॥

 स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन ।

 न प्रायो भविता मर्त्य लोके प्राक् अनुशासितः ॥ ४ ॥

 वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि ।

 सभायामपि वैरिञ्च्यां यत्र मूर्तिधराः कलाः ॥ ५ ॥

 कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन ।

 त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति ॥ ६ ॥

 तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मः त्वद्‍भक्तिलक्षणः ।

 यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो ॥ ७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

 इत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः ।

 प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मान् आह सनातनान् ॥ ८ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

 धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम् ।

 वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे ॥ ९ ॥

 आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः ।

 कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः ॥ १० ॥

 वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक् ।

 उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः ॥ ११ ॥

 त्रेतामुखे महाभाग प्राणान् मे हृदयात् त्रयी ।

 विद्या प्रादुरभूत् तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः ॥ १२ ॥

 विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः ।

 वैराजात् पुरुषात् जाता य आत्माचारलक्षणाः ॥ १३ ॥

 गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम ।

 वक्षःस्थलाद् वने वासो न्यासः शिर्षणि संस्थितः ॥ १४ ॥

 वर्णानां आश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः ।

 आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैः नीचोत्तमोत्तमाः ॥ १५ ॥

 शमो दमस्तपः शौचं संतोषः क्षांतिरार्जवम् ।

 मद्‍भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः ॥ १६ ॥

 तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः ।

 स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १७ ॥

 आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदंभो ब्रह्मसेवनम् ।

 अतुष्टिः अर्थोपचयैः वैश्य प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १८ ॥

 शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चापि अमायया ।

 तत्र लब्धेन संतोषः शूद्र प्रकृतयस्त्विमाः ॥ १९ ॥

 अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः ।

 कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोन्त्यावसायिनाम् ॥ २० ॥

 अहिंसा सत्यमस्तेयं अकामक्रोधलोभता ।

 भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः ॥ २१ ॥

 

उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण ! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेवालोंके लिये और सामान्यत: मनुष्यमात्रके लिये उस धर्मका उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकारसे अपने धर्मका अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणोंमें उसे भक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १-२ ॥ प्रभो ! महाबाहु माधव ! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका उपदेश किया था ॥ ३ ॥ रिपुदमन ! बहुत समय बीत जानेके कारण वह इस समय मत्र्यलोकमें प्राय: नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं ॥ ४ ॥ अच्युत ! पृथ्वीमें तथा ब्रह्माकी उस सभामें भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्मका प्रवचन, प्रवत्र्तन अथवा संरक्षण कर सके ॥ ५ ॥ इस धर्मके प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्यको मारकर वेदोंकी रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्मकी भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! जब आप पृथ्वीतलसे अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्मका लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा ? ॥ ६ ॥ आप समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो ! आप उस धर्मका वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजीने प्रश्र किया, तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियोंके कल्याणके लिये उन्हें सनातन धर्मोंका उपदेश दिया ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम्हारा प्रश्र धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। अत: मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ९ ॥ जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है ॥ १० ॥ उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे ॥ ११ ॥

परम भाग्यवान् उद्धव ! सत्ययुगके बाद त्रेतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वास के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्यासे होता, अध्वर्यु और उद्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं प्रकट हुआ ॥ १२ ॥ विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण, भुजासे क्षत्रिय, जंघासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरणसे होती है ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्म- चर्याश्रम, वक्ष:स्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमकी उत्पत्ति हुई है ॥ १४ ॥

इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए ॥ १५ ॥ शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य—ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं ॥ १६ ॥ तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव हैं ॥ १७ ॥ आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसञ्चयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्णके स्वभाव हैं ॥ १८ ॥ ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं ॥ १९ ॥ अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना, झूठमूठ झगडऩा और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना—ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं ॥ २० ॥ उद्धवजी ! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें; सत्यपर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो वही करें ॥ २१ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 26 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की विभूतियों का वर्णन

 

धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः

वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः २१

पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः

स्कन्दोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः २२

यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्

वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः २३

योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोऽस्मि विजिगीषताम्

आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम् २४

स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः

नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम् २५

धर्माणामस्मि सन्न्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः

गुह्यानां सुनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम् २६

संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ

मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित् २७

अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः

द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान् २८

वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्

किम्पुरुषानां हनुमान्विद्याध्राणां सुदर्शनः २९

रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्

कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम् ३०

व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः

तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ३१

ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्वताम्

सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा ३२

विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सरसामहम्

भूधराणामहं स्थैर्यं गन्धमात्रमहं भुवः ३३

अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः

प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः ३४

ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः

भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसङ्क्रमः ३५

गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानन्दस्पर्शलक्षणम्

आस्वादश्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम् ३६

पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्

विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम्

अहमेतत्प्रसङ्ख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः ३७

मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना

सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित् ३८

सङ्ख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया

न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः ३९

तेजः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः

वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः ४०

एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः सङ्क्षेपेण विभूतयः

मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते ४१

वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान्यच्छेन्द्रियाणि च

आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने ४२

यो वै वाङ्मनसी संयगसंयच्छन्धिया यतिः

तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत् ४३

तस्माद्वचो मनः प्राणान्नियच्छेन्मत्परायणः

मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते ४४

 

मैं निवासस्थानोंमें सुमेरु, दुर्गम स्थानोंमें हिमालय, वनस्पतियोंमें पीपल और धान्यों  में जौ हूँ ॥ २१ ॥ मैं पुरोहितोंमें वसिष्ठ, वेदवेत्ताओंमें बृहस्पति, समस्त सेनापतियोंमें स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकोंमें भगवान्‌ ब्रह्मा हूँ ॥ २२ ॥ पञ्चमहायज्ञोंमें ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतोंमें अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थोंमें नित्यशुद्ध वायु, अग्रि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ ॥ २३ ॥ आठ प्रकारके योगोंमें मैं मनोनिरोधरूप समाधि हूँ। विजयके इच्छुकोंमें रहनेवाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलोंमें आत्मा और अनात्माका विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियोंमें विकल्प हूँ ॥ २४ ॥ मैं स्त्रियोंमें मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषोंमें स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरोंमें नारायण और ब्रह्मचारियोंमें सनत्कुमार हूँ ॥ २५ ॥ मैं धर्मोंमें कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रयके त्यागद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभयके साधनोंमें आत्मस्वरूपका अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपनके साधनोंमें मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुषके जोड़ोंमें मैं प्रजापति हूँ—जिनके शरीरके दो भागोंसे पुरुष और स्त्रीका पहला जोड़ा पैदा हुआ ॥ २६ ॥ सदा सावधान रहकर जागनेवालोंमें संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओंमें वसन्त, महीनोंमें मार्गशीर्ष और नक्षत्रोंमें अभिजित् हूँ ॥ २७ ॥ मैं युगोंमें सत्ययुग, विवेकियोंमें महर्षि देवल और असित, व्यासोंमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियोंमें मनस्वी शुक्राचार्य हूँ ॥ २८ ॥ सृष्टिकी उत्पत्ति और लय, प्राणियोंके जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्याके जाननेवाले भगवानों  में (विशिष्ट महापुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तोंमें तुम (उद्धव), किम्पुरुषोंमें हनुमान्, विद्याधरोंमें सुदर्शन (जिसने अजगरके रूपमें नन्दबाबाको ग्रस लिया था और फिर भगवान्‌के पादस्पर्शसे मुक्त हो गया था) मैं हूँ ॥ २९ ॥ रत्नोंमें पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओंमें कमलकी कली, तृणोंमें कुश और हविष्योंमें गायका घी हूँ ॥ ३० ॥ मैं व्यापारियोंमें रहनेवाली लक्ष्मी, छल-कपट करनेवालोंमें द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओंकी तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषोंमें रहनेवाला सत्त्वगुण हूँ ॥ ३१ ॥ मैं बलवानोंमें उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तोंमें भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवोंकी पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा—इन नौ मूर्तियोंमें मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ॥ ३२ ॥ मैं गन्धर्वोंमें विश्वावसु और अप्सराओंमें ब्रह्माजीके दरबारकी अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतोंमें स्थिरता और पृथ्वीमें शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ ॥ ३३ ॥ मैं जलमें रस, तेजस्वियोंमें परम तेजस्वी अग्रि; सूर्य, चन्द्र और तारोंमें प्रभा तथा आकाशमें उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ ॥ ३४ ॥ उद्धवजी ! मैं ब्राह्मणभक्तोंमें बलि, वीरोंमें अर्जुन और प्राणियोंमें उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ ॥ ३५ ॥ मैं ही पैरोंमें चलनेकी शक्ति, वाणीमें बोलनेकी शक्ति, पायुमें मल-त्यागकी शक्ति, हाथोंमें पकडऩेकी शक्ति और जननेन्द्रियमें आनन्दोपभोगकी शक्ति हूँ। त्वचामें स्पर्शकी, नेत्रोंमें दर्शनकी, रसनामें स्वाद लेनेकी, कानोंमें श्रवणकी और नासिकामें सूँघनेकी शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियोंकी इन्द्रियशक्ति मैं ही हूँ ॥ ३६ ॥ पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहङ्कार, महत्तत्त्व, पञ्चमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म—ये सब मैं ही हूँ ॥ ३७ ॥ इन तत्त्वोंकी गणना, लक्षणोंद्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ॥ ३८ ॥ यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है ॥ ३९ ॥ ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ॥ ४० ॥

उद्धवजी ! मैंने तुम्हारे प्रश्रके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थवस्तु नहीं हैं, मनोविकारमात्र हैं, क्योंकि मनसे सोची और वाणीसे कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ॥ ४१ ॥ इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्द- भाषण से रोको, मनके सङ्कल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपञ्चाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म- मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा ॥ ४२ ॥ जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेमें भरा हुआ जल ॥ ४३ ॥ इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षोडशोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...