सोमवार, 29 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म

 

 श्रीभगवानुवाच -

 वनं विविक्षुः पुत्रेषु भार्यां न्यस्य सहैव वा ।

 वन एव वसेत् शांतः तृतीयं भागमायुषः ॥ १ ॥

 कन्दमूल फलैः वन्यैः मेध्यैः वृत्तिं प्रकल्पयेत् ।

 वसीत वल्कलं वासः तृण-पर्ण अजिनानि च ॥ २ ॥

 केश रोम नख-श्मश्रु मलानि बिभृयाद् दतः ।

 न धावेद् अप्सु मज्जेत त्रि कालं स्थण्डिलेशयः ॥ ३ ॥

 ग्रीष्मे तप्येत पञ्चाग्नीन् वर्षासु आसारषाड् जले ।

 आकण्थमग्नः शिशिरे एवंवृत्तः तपश्चरेत् ॥ ४ ॥

 अग्निपक्वं समश्नीयात् कालपक्वं अथापि वा ।

 उलूखल-अश्मकुट्टो वा दंतोलूखल एव वा ॥ ५ ॥

 स्वयं सञ्चिनुयात् सर्वं आत्मनो वृत्तिकारणम् ।

 देश काल बलाभिज्ञो नाददीतान् यदाऽऽहृतम् ॥ ६ ॥

 वन्यैः ह्चरु-पुरोडाशैः निर्वपेत् कालचोदितान् ।

 न तु श्रौतेन पशुना मां यजेत वनाश्रमी ॥ ७ ॥

 अग्निहोत्रं च दर्शश्च पौर्णमासश्च पूर्ववत् ।

 चातुर्मास्यानि च मुनेः आम्नातानि च नैगमैः ॥ ८ ॥

 एवं चीर्णेन तपसा मुनिः र्धमनिसंततः ।

 मां तपोमयमाराध्य ऋषिलोकाद् उपैति माम् ॥ ९ ॥

 यस्तु एतत्कृच्छ्रतः चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत् ।

 कामायाल्पीयसे युञ्ज्याद् बालिशः कोऽपरस्ततः ॥ १० ॥

 यदा असौ नियमेऽकल्पो जरया जातवेपथुः ।

 आत्मन्यग्नीन् समारोप्य मच्चित्तोऽग्निं समाविशेत् ॥ ११ ॥

 यदा कर्मविपाकेषु लोकेषु निरयात्मसु ।

 विरागो जायते सम्यङ् न्यस्ताग्निः प्रव्रजेत्ततः ॥ १२ ॥

 इष्ट्वा यथोपदेशं मां दत्त्वा सर्वस्वमृत्विजे ।

 अग्नीन् स्वप्राण आवेश्य निरपेक्षः परिव्रजेत् ॥ १३ ॥

 विप्रस्य वै संन्यसतो देवा दारादिरूपिणः ।

 विघ्नान् कुर्वन्त्ययं ह्यस्मान् आक्रम्य समियात् परम् ॥ १४ ॥

 बिभृयाच्चेन् मुनिर्वासः कौपीन् आच्छादनं परम् ।

 त्यक्तं न दण्डपात्राभ्यां अन्यत् किञ्चिद् अनापदि ॥ १५ ॥

 दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेत् जलम् ।

 सत्यपूतां वदेद् वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ १६ ॥

 मौन-अनीहा-अनिलायामाः दण्डा वाक्-देह-चेतसाम् ।

 न ह्येते यस्य सन्त्यङ्ग वेणुभिः न भवेद् यतिः ॥ १७ ॥

 भिक्षां चतुर्षु वर्णेषु विगर्ह्यान् वर्जयन् चरेत् ।

 सप्तागारान् असङ्‌क्लृप्तान् तुष्येत् लब्धेन तावता ॥ १८ ॥

 बहिर्जलाशयं गत्वा तत्रोपस्पृश्य वाग्यतः ।

 विभज्य पावितं शेषं भुञ्जीत-अशेषमाहृतम् ॥ १९ ॥

 एकश्चरेत् महीमेतां निःसङ्गः संयतेंद्रियः ।

 आत्मक्रीड आत्मरत आत्मवान् समदर्शनः ॥ २० ॥

 विविक्त-क्षेमशरणो मद्‍भावविमलाशयः ।

 आत्मानं चिन्तयेदेकं अभेदेन मया मुनिः ॥ २१ ॥

 अन्वीक्षेतात्मनो बंधं मोक्षं च ज्ञाननिष्ठया ।

 बंध इंद्रियविक्षेपो मोक्ष एषां च संयमः ॥ २२ ॥

 तस्मान् नियम्य षड्वर्गं मद्‍भावेन चरेन् मुनिः ।

 विरक्तः क्षुद्रकामेभ्यो लब्ध्वा आत्मनि सुखं महत् ॥ २३ ॥

 पुरग्रामव्रजान् सार्थान् भिक्षार्थं प्रविशंश्चरेत् ।

 पुण्यदेश सरित्-शैल वन-आश्रमवतीं महीम् ॥ २४ ॥

 वानप्रस्थाश्रमपदेषु अभीक्ष्णं भैक्ष्यमाचरेत् ।

 संसिध्यति आशु-असंमोहः शुद्धसत्त्वः शिलान्धसा ॥ २५ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रममें जाना चाहे, तो अपनी पत्नीको पुत्रोंके हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्तसे अपनी आयुका तीसरा भाग वनमें ही रहकर व्यतीत करे ॥ १ ॥ उसे वनके पवित्र कन्द-मूल और फलोंसे ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्रकी जगह वृक्षोंकी छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछालासे ही काम निकाल ले ॥ २ ॥ केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ीरूप शरीरके मलको हटावे नहीं। दातुन न करे। जलमें घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरतीपर ही पड़ रहे ॥ ३ ॥ ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्रि तपे, वर्षा ऋतुमें खुले मैदानमें रहकर वर्षाकी बौछार सहे। जाड़ेके दिनोंमें गलेतक जलमें डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे ॥ ४ ॥ कन्द-मूलोंको केवल आगमें भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदिके द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटनेकी आवश्यकता हो तो ओखलीमें या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतोंसे ही चबा-चबाकर खा ले ॥ ५ ॥ वानप्रस्थाश्रमीको चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातोंको जानकर अपने जीवन-निर्वाहके लिये स्वयं ही सब प्रकारके कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदिसे अनभिज्ञ लोगोंसे लाये हुए अथवा दूसरे समयके सञ्चित पदार्थोंको अपने काममें न ले [*] ॥ ६ ॥ नीवार आदि जंगली अन्नसे ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हींसे समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जानेपर वेदविहित पशुओंद्वारा मेरा यजन न करे ॥ ७ ॥ वेदवेत्ताओंने वानप्रस्थीके लिये अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदिका वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थोंके लिये है ॥ ८ ॥ इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जानेके कारण वानप्रस्थीकी एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करके पहले तो ऋषियोंके लोकमें जाता है और वहाँसे फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है ॥ ९ ॥ प्रिय उद्धव ! जो पुरुष बड़े कष्टसे किये हुए और मोक्ष देनेवाले इस महान् तपस्याको स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलोंकी प्राप्तिके लिये करता है, उससे बढक़र मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्याका अनुष्ठान निष्कामभावसे ही करना चाहिये ॥ १० ॥

प्यारे उद्धव ! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नियमोंका पालन करनेमें असमर्थ हो जाय, बुढ़ापेके कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्रियोंको भावनाके द्वारा अपने अन्त:करणमें आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्रिमें प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) ॥ ११ ॥ यदि उसकी समझमें यह बात आ जाय कि काम्य कर्मोंसे उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकोंके समान ही दु:खपूर्ण हैं और मनमें लोक-परलोकसे पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्रियोंका परित्याग करके संन्यास ले ले ॥ १२ ॥ जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधिके अनुसार आठों प्रकारके श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञसे मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज् को  दे दे। यज्ञाग्नियों को अपने प्राणोंमें लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियोंकी अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवतालोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियोंका रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहणमें विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे ! यह तो हमलोगोंकी अवहेलनाकर, हमलोगोंको लाँघकर परमात्माको प्राप्त होने जा रहा है’ ॥ १४ ॥

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु  के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्तिकालको छोडक़र सदाके लिये है ॥ १५ ॥ नेत्रोंसे धरती देखकर पैर रखे, कपड़ेसे छानकर जल पिये मुँहसे प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्यसे पवित्र हुई ही निकाले और शरीरसे जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक— सोच-विचार कर ही करे ॥ १६ ॥ वाणीके लिये मौन, शरीरके लिये निश्चेष्ट स्थिति और मनके लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीरपर बाँसके दण्ड धारण करनेसे दण्डी स्वामी नहीं हो जाता ॥ १७ ॥ संन्यासीको चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितोंको छोडक़र चारों वर्णोंकी भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरोंसे जितना मिल जाय, उतनेसे ही सन्तोष कर ले ॥ १८ ॥ इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्तीके बाहर जलाशयपर जाय, वहाँ हाथ- पैर धोकर जलके द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले, फिर शास्त्रोक्त पद्धतिसे जिन्हें भिक्षाका भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले; दूसरे समयके लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये ॥ १९ ॥ संन्यासीको पृथ्वीपर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वशमें हों। वह अपने-आपमें ही मस्त रहे, आत्म-प्रेममें ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी धैर्य रखे और सर्वत्र समानरूपसे स्थित परमात्माका अनुभव करता रहे ॥ २० ॥ संन्यासीको निर्जन और निर्भय एकान्त-स्थानमें रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावनासे विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्डके रूपमें चिन्तन करे ॥ २१ ॥ वह अपनी ज्ञाननिष्ठासे चित्तके बन्धन और मोक्षपर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियोंका विषयोंके लिये विक्षिप्त होना—चञ्चल होना बन्धन है और उनको संयममें रखना ही मोक्ष है ॥ २२ ॥ इसलिये संन्यासीको चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको जीत ले, भोगोंकी क्षुद्रता समझकर उनकी ओरसे सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आपमें ही परम आनन्दका अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावनासे भरकर पृथ्वीमें विचरता रहे ॥ २३ ॥ केवल भिक्षाके लिये ही नगर, गाँव, अहीरोंकी बस्ती या यात्रियोंकी टोलीमें जाय। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमोंसे पूर्ण पृथ्वीमें बिना कहीं ममता जोड़े घूमता- फिरता रहे ॥ २४ ॥ भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियोंके आश्रमसे ही ग्रहण करे। क्योंकि कटे हुए खेतोंके दानेसे बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्तको शुद्ध कर देती है और उससे बचाखुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २५ ॥

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[*] अर्थात् मुनि इस बातको जानकर कि अमुक पदार्थ कहाँसे लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं, स्वयं ही नवीन-नवीन कन्द-मूल-फल आदिका सञ्चय करे। देश-कालादिसे अनभिज्ञ अन्य जनोंके लाये हुए अथवा कालान्तरमें सञ्चय किये हुए पदार्थोंके सेवनसे व्याधि आदिके कारण तपस्यामें विघ्र होनेकी आशंका है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 28 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

 प्रतिग्रहं मन्यमानः तपस्तेजोयशोनुदम् ।

 अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः ॥ ४१ ॥

 ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।

 कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥ ४२ ॥

 शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो

     धर्मं महांतं विरजं जुषाणः ।

 मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठन्

     नातिप्रसक्तः समुपैति शांतिम् ॥ ४३ ॥

 समुद्धरंति ये विप्रं सीदंतं मत्परायणम् ।

 तान् उद्धरिष्ये न चिराद् आपद्‍भ्यो नौः इवार्णवात् ॥ ४४ ॥

 सर्वाः समुद्धरेद् राजा पितेव व्यसनात् प्रजाः ।

 आत्मानं आत्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान् ॥ ४५ ॥

 एवंविधो नरपतिः विमानेनार्कवर्चसा ।

 विधूय इह अशुभं कृत्स्नं इंद्रेण सह मोदते ॥ ४६ ॥

 सीदन् विप्रः वणिक् वृत्त्या पण्यैः एवापदं तरेत् ।

 खड्गेन वा आपदाक्रांतो न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४७ ॥

 वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेत् मृगययापदि ।

 चरेद् वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ ४८ ॥

 शूद्रवृत्तिं भजेद् वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम् ।

 कृच्छ्रान् मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा ॥ ४९ ॥

 वेदाध्याय स्वधा स्वाहा बलि अन्नाद्यैः यथोदयम् ।

 देवर्षिपितृभूतानि मद् रूपाणि अन्वहं यजेत् ॥ ५० ॥

 यदृच्छया उपपन्नेन शुक्लेन उपार्जितेन वा ।

 धनेन अपीडयन् भृत्यान् न्यायेन एव आहरेत् क्रतून् ॥ ५१ ॥

 कुटुंबेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुंबी अपि ।

 विपश्चित् नश्वरं पश्येद् अदृष्टमपि दृष्टवत् ॥ ५२ ॥

 पुत्रदारा आप्तबंधूनां संगमः पांथसङ्गमः ।

 अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा ॥ ५३ ॥

 इत्थं परिमृशन् मुक्तो गृहेषु अतिथिवद् वसन् ।

 न गृहैः अनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः ॥ ५४ ॥

 कर्मभिः गृहमेधीयैः इष्ट्वा मामेव भक्तिमान् ।

 तिष्ठेद् वनं वोपविशेत् प्रजावान् वा परिव्रजेत् ॥ ५५ ॥

 यस्तु आसक्तमतिः गेहे पुत्रवित्तैषणा आतुरः ।

 स्त्रैणः कृपणधीः मूढो मम अहं इति बध्यते ॥ ५६ ॥

 अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजऽऽत्मजाः ।

 अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः ॥ ५७ ॥

 एवं गृहाशयाक्षिप्त हृदयो मूढधीः अयम् ।

 अतृप्तस्तान् अनुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः ॥ ५८ ॥

 

ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवननिर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियोंमें भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों—तो अन्न कटनेके बाद खेतोंमें पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले ॥ ४१ ॥ उद्धव ! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है ॥ ४२ ॥ जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारोंमें गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्त:करण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परम-शान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥ जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्रमें डूबते हुए प्राणीको नौका बचा लेती है ॥ ४४ ॥ राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे ॥ ४५ ॥ जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढक़र स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है ॥ ४६ ॥ यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्यवृत्तिका आश्रय ले ले, और जबतक विपत्ति दूर न हो जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपत्तिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति’का आश्रय कभी न ले ॥ ४८ ॥ वैश्य भी आपत्तिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव ! ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही हैं। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्रवर्णोंकी वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे ॥ ४९ ॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदिके द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियोंकी यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे ॥ ५० ॥

गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपाॢजत अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे ॥ ५१ ॥

प्रिय उद्धव ! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं ॥ ५२ ॥ यह जो स्त्री-पुत्र, भाई- बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ बटोही इकट्ठेहो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलनेवालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है ॥ ५३ ॥ गृहस्थको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थीमें फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभावसे रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदिमें अहङ्कार और घर आदिमें ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थीके फंदे बाँध नहीं सकते ॥ ५४ ॥ भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मोंके द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घरमें ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रममें चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ॥ ५५ ॥ प्रिय उद्धव ! जो लोग इस प्रकारका गृहस्थजीवन न बिताकर घर-गृहस्थीमें ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओंमें फँसकर हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरेके फेरमें पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं ॥ ५६ ॥ वे सोचते रहते हैं—हाय ! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नीके बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहनेपर ये दीन, अनाथ और दुखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा?’ ॥ ५७ ॥ इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है ॥ ५८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

 

 यदि असौ छंदसां लोकं आरोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम् ।

 गुरवे विन्यसेद् देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्व्रतः ॥ ३१ ॥

 अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम् ।

 अपृथग्धीः उपसीत ब्रह्मवर्चस्वी अकल्मषः ॥ ३२ ॥

 स्त्रीणां निरीक्षण स्पर्श संलाप क्ष्वेलनादिकम् ।

 प्राणिनो मिथुनीभूतान् अगृहस्थो अग्रतस्त्यजेत् ॥ ३३ ॥

 शौचं आचमनं स्नानं संध्योपासनमार्जवम् ।

 तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्या अभक्ष्य संभाष्यवर्जनम् ॥ ३४ ॥

 सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनंदन ।

 मद्‍भवः सर्वभूतेषु मनोवाक्-कायसंयमः ॥ ३५ ॥

 एवं बृहद्व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निः इव ज्वलन् ।

 मद्‍भक्तः तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः ॥ ३६ ॥

 अथ अनंतरं आवेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः ।

 गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः ॥ ३७ ॥

 गृहं वनं वोपविशेत् प्रव्रजे द्वा द्विजोत्तमः ।

 आश्रमादाश्रमं गच्छेत् नान्यथा मत्परश्चरेत् ॥ ३८ ॥

 गृहार्थी सदृशीं भार्यां उद्वहेद् अजुगुप्सिताम् ।

 यवीयसीं तु वयसा यां सवर्णां अनुक्रमात् ॥ ३९ ॥

 इज्य-अध्ययन-दानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ।

 प्रतिग्रहो-अध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम् ॥ ४० ॥

 

यदि ब्रह्मचारीका विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदोंके निवासस्थान ब्रह्मलोकमें जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदोंके स्वाध्यायके लिये अपना सारा जीवन आचार्यकी सेवामें ही समर्पित कर देना चाहिये ॥ ३१ ॥ ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्रि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियोंमें मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके हृदयमें एक ही परमात्मा विराजमान हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूरसे ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियोंपर तो दृष्टिपाततक न करें ॥ ३३ ॥ प्रिय उद्धव ! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीरका संयम—यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—सभीके लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्योंको न छूना, अभक्ष्य वस्तुओंको न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना—ये नियम भी सबके लिये हैं ॥ ३४-३५ ॥ नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमोंका पालन करनेसे अग्रिके समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्याके कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥

प्यारे उद्धव ! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करनेकी इच्छा न हो—गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्यको दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे—स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे ॥ ३७ ॥ ब्रह्मचारीको चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रमके बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमश: एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रमके रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचारमें न प्रवृत्त हो ॥ ३८ ॥

प्रिय उद्धव ! यदि ब्रह्मचर्याश्रमके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारीको चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुलीन कन्यासे विवाह करे। वह अवस्थामें अपनेसे छोटी और अपने ही वर्णकी होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्णकी कन्यासे और विवाह करना हो, तो क्रमश: अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह कर सकता है ॥ ३९ ॥ यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्योंको समानरूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है ॥ ४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...