रविवार, 4 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

श्रीबादरायणिरुवाच

स एवमाशंसित उद्धवेन

भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः

सभाजयन्भृत्यवचो मुकुन्द-

स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः १

 

श्रीभगवानुवाच

बार्हस्पत्य स नास्त्यत्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः

दुरक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः २

न तथा तप्यते विद्धः पुमान्बाणैस्तु मर्मगैः

यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः ३

कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव

तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः ४

केनचिद्भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः

स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम् ५

अवन्तिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया

वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः ६

ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः

शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः ७

दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यन्ते पुत्रबान्धवाः

दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन्प्रियम् ८

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः

धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पञ्चभागिनः ९

तदवध्यानविस्रस्त पुण्यस्कन्धस्य भूरिद

अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः १०

ज्ञात्यो जगृहुः किञ्चित्किञ्चिद्दस्यव उद्धव

दैवतः कालतः किञ्चिद्ब्रह्मबन्धोर्नृपार्थिवात् ११

स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः

उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम् १२

तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः

खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेदः सुमहानभूत् १३

स चाहेदमहो कष्टं वृथात्मा मेऽनुतापितः

न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः १४

प्रायेणाथाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन

इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च १५

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! वास्तवमें भगवान्‌ की लीलाकथा ही श्रवण करनेयोग्य है। वे ही प्रेम और मुक्तिके दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजीने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान्‌ ने उनके प्रश्न की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा— ॥॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य उद्धवजी ! इस संसारमें प्राय: ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनोंकी कटुवाणीसे ङ्क्षबधे हुए अपने हृदयको सँभाल सकें ॥ २ ॥ मनुष्यका हृदय मर्मभेदी बाणोंसे ङ्क्षबधनेपर भी उतनी पीडाका अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनोंके मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं ॥ ३ ॥ उद्धवजी ! इस विषयमें महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो ॥ ४ ॥ एक भिक्षुकको दुष्टोंने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद्गार प्रकट किये थे। उन्हींका इस इतिहासमें वर्णन है ॥ ५ ॥

प्राचीन समयकी बात है, उज्जैनमें एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बातमें आ जाया करता था ॥ ६ ॥ उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियोंको कभी मीठी बातसे भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलानेकी तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्मसे रीते घरमें रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा समयपर अपने शरीरको भी सुखी नहीं करता था ॥ ७ ॥ उसकी कृपणता और बुरे स्वभावके कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मनको प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था ॥ ८ ॥ वह लोक-परलोक दोनोंसे ही गिर गया था। बस, यक्षोंके समान धनकी रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनोंतक इस प्रकार जीवन बितानेसे उसपर पञ्चमहायज्ञके भागी देवता बिगड़ उठे ॥ ९ ॥ उदार उद्धवजी ! पञ्चमहायज्ञके भागियोंके तिरस्कारसे उसके पूर्व- पुण्योंका सहारा—जिसके बलसे अबतक धन टिका हुआ था—जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रमसे इकट्ठाकिया था, वह धन उसकी आँखोंके सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया ॥ १० ॥ उस नीच ब्राह्मणका कुछ धन तो उसके कुटुम्बियोंने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोपसे नष्ट हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ साधारण मनुष्योंने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्डके रूपमें शासकोंने हड़प लिया ॥ ११ ॥ उद्धवजी ! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियोंने भी उसकी ओरसे मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ताने घेर लिया ॥ १२ ॥ धनके नाशसे उसके हृदयमें बड़ी जलन हुई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसुओंके कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मनमें संसारके प्रति महान् दु:खबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया ॥ १३ ॥

अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा—‘हाय ! हाय !! बड़े खेदकी बात है, मैंने इतने दिनोंतक अपनेको व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धनके लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्मकर्ममें लगा और न मेरे सुखभोगके ही काम आया ॥ १४ ॥ प्राय: देखा जाता है कि कृपण पुरुषोंको धनसे कभी सुख नहीं मिलता। इस लोकमें तो वे धन कमाने और रक्षाकी चिन्तासे जलते रहते हैं और मरनेपर धर्म न करनेके कारण नरकमें जाते हैं ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शनिवार, 3 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

 

निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम्

वयोमध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव ४६

एता मनोरथमयीर्हान्यस्योच्चावचास्तनूः

गुणसङ्गादुपादत्ते क्वचित्कश्चिज्जहाति च ४७

आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ

न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः ४८

तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ

तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक् ४९

प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान्

तत्त्वेन स्पर्शसम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते ५०

सत्त्वसङ्गादृषीन्देवान्रजसासुरमानुषान्

तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः ५१

नृत्यतो गायतः पश्यन्यथैवानुकरोति तान्

एवं बुद्धिगुणान्पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते ५२

यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव

चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः ५३

यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा

स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः ५४

अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते

ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ५५

तस्मादुद्धव मा भुङ्क्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः

आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम् ५६

क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथ वा

ताडितः सन्निरुद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः ५७

निष्ठ्युतो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः

श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनात्मानमुद्धरेत् ५८

 

श्रीउद्धव उवाच

यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर

सुदुःसहमिमं मन्य आत्मन्यसदतिक्रमम् ५९

विदुषामपि विश्वात्मन्प्रकृतिर्हि बलीयसी

ऋते त्वद्धर्मनिरतान्शान्तास्ते चरणालयान् ६०

 

उद्धवजी ! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीरकी ही हैं ॥ ४६ ॥ यह शरीर जीवसे भिन्न है और ये उँची- नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणोंके सङ्गसे इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता है ॥ ४७ ॥ पिताको पुत्रके जन्मसे और पुत्रको पिताकी मृत्युसे अपने-अपने जन्म-मरणका अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्युसे युक्त देहोंका द्रष्टा जन्म और मृत्युसे युक्त शरीर नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे जौ-गेहूँ आदिकी फसल बोनेपर उग आती है और पक जानेपर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटनेका जाननेवाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओंका साक्षी है, वह शरीरसे सर्वथा पृथक् है ॥ ४९ ॥ अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीरसे आत्माका विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वत: अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोगमें सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है ॥ ५० ॥ जब अविवेकी जीव अपने कर्मोंके अनुसार जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकने लगता है, तब सात्त्विक कर्मोंकी आसक्तिसे वह ऋषिलोक और देवलोकमें राजसिक कर्मोंकी आसक्तिसे मनुष्य और असुरयोनियोंमें तथा तामसी कर्मोंकी आसक्तिसे भूत-प्रेत एवं पशु- पक्षी आदि योनियोंमें जाता है ॥ ५१ ॥ जब मनुष्य किसीको नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने—तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धिके गुणोंको देखता है, तब स्वयं निष्ङ्क्षक्रय होनेपर भी उसका अनुकरण करनेके लिये बाध्य हो जाता है ॥ ५२ ॥ जैसे नदी- तालाब आदिके जलके हिलने या चंचल होनेपर उसमें प्रतिबिम्बित तटके वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवाले नेत्रके साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मनके द्वारा सोचे गये तथा स्वप्नमें देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशाहर् ! आत्माका विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है ॥ ५३-५४ ॥ विषयोंके सत्य न होनेपर भी जो जीव विषयोंका ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्नमें प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती ॥ ५५ ॥

प्रिय उद्धव ! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियोंसे विषयोंको मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञान  से प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो ॥ ५६ ॥

असाधु पुरुष गर्दन पकडक़र बाहर निकाल दें, वाणीद्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बाँधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरहसे विचलित करें, निष्ठासे डिगानेकी चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रवसे क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थका तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याणका इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयोंसे अपनी विवेक-बुद्धिद्वारा ही—किसी बाह्य साधनसे नहीं—अपनेको बचा लेना चाहिये। वस्तुत:आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र साधन है ॥ ५७-५८ ॥

उद्धवजीने कहा—भगवन् ! आप समस्त वक्ताओंके शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनोंसे किये गये तिरस्कारको अपने मनमें अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अत: जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवनमें धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये ॥ ५९ ॥ विश्वात्मन् ! जो आपके भागवतधर्म  के आचरणमें प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरण-कमलोंका ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी दुष्टोंके द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है ॥ ६० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

 

श्रीभगवानुवाच

प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ

एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः २९

ममाङ्ग माया गुणमय्यनेकधा

विकल्पबुद्धीश्च गुणैर्विधत्ते

वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक-

मथाधिदैवमधिभूतमन्यत् ३०

दृग्रूपमार्कं वपुरत्र रन्ध्रे

परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे

आत्मा यदेषामपरो य आद्यः

स्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धिः

एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षुर्

जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम् ३१

योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः

प्रधानमूलान्महतः प्रसूतः

अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु—

र्वैकारिकस्तामस ऐन्द्रियश्च ३२

आत्मापरिज्ञानमयो विवादो

ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः

व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां

मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात् ३३

 

श्रीउद्धव उवाच

त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो

उच्चावचान्यथा देहान्गृह्णन्ति विसृजन्ति च ३४

तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः

न ह्येतत्प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वञ्चिताः ३५

 

श्रीभगवानुवाच

मनः कर्ममयं नॄणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम्

लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ३६

ध्यायन्मनोऽनु विषयान्दृष्टान्वानुश्रुतानथ

उद्यत्सीदत्कर्मतन्त्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति ३७

विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत्स्मरेत्पुनः

जन्तोर्वै कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः ३८

जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद

विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथः ३९

स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ

तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति ४०

इन्द्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि

बहिरन्तर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद्यथा ४१

नित्यदा ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च

कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ४२

यथार्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः

तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः ४३

सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्

सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम् ४४

मा स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान्

म्रियते वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुतः ४५

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा—इन दोनोंमें अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत्में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणोंके क्षोभसे ही बना है ॥ २९ ॥ प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणोंसे अनेकों प्रकारकी भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टिको तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं— अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत ॥ ३० ॥ उदाहरणार्थ—नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्रगोलकमें स्थित सूर्यदेवताका अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरेके आश्रयसे सिद्ध होते हैं। और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाशमें स्थित सूर्यमण्डल इन तीनोंकी अपेक्षासे मुक्त है, क्योंकि वह स्वत:सिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदोंका मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाशसे समस्त सिद्ध पदार्थोंकी मूलसिद्धि है। उसीके द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षुके तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदिके भी तीन-तीन भेद हैं [*] ॥ ३१ ॥ प्रकृतिसे महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्वसे अहङ्कार। इस प्रकार यह अहङ्कार गुणोंके क्षोभसे उत्पन्न हुआ प्रकृतिका ही एक विकार है। अहङ्कारके तीन भेद हैं—सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहङ्कार ही अज्ञान और सृष्टिकी विविधताका मूलकारण है ॥ ३२ ॥ आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थोंसे न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवादकी ही बात है ! अस्ति-नास्ति ( है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवादका कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरूपसे विमुख हैं, वे इस विवादसे मुक्त नहीं हो सकते ॥ ३३ ॥

उद्धवजीने पूछा—भगवन् ! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापोंके फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियोंमें जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्माका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना, अकर्ताका कर्म करना और नित्य-वस्तुका जन्म-मरण कैसे सम्भव है? ॥ ३४ ॥ गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे तो इस विषयको ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते। और इस विषयके विद्वान् संसारमें प्राय: मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी मायाकी भूल- भुलैयामें पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ॥ ३५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! मनुष्योंका मन कर्म-संस्कारोंका पुञ्ज है। उन संस्कारोंके अनुसार भोग प्राप्त करनेके लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसीका नाम है लिङ्ग- शरीर। वही कर्मोंके अनुसार एक शरीरसे दूसरे शरीरमें, एक लोकसे दूसरे लोकमें आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिङ्गशरीरसे सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपनेको लिङ्गशरीर ही समझ बैठता है, उसीमें अहङ्कार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है ॥ ३६ ॥ मन कर्मोंके अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयोंका चिन्तन करने लगता है और क्षणभरमें ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयोंमें लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापरका अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है ॥ ३७ ॥ उन देवादि शरीरोंमें इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीवको अपने पूर्व शरीरका स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारणसे शरीरको सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ॥ ३८ ॥ उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी भी शरीरको अभेद-भावसे‘मैं’ के रूपमें स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीरमें अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है ॥ ३९ ॥ यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देहका स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथमें स्थित जीव भी पहलेके स्वप्न और मनोरथको स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथमें पूर्व सिद्ध होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता है ॥ ४० ॥ इन्द्रियोंके आश्रय मन या शरीरकी सृष्टिसे आत्मवस्तुमें यह उत्तम, मध्यम और अधमकी त्रिविधता भासती है। उनमें अभिमान करनेसे ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदोंका हेतु मालूम पडऩे लगता है, जैसे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्रके शत्रु-मित्र आदिके लिये भेदका हेतु हो जाता है ॥ ४१ ॥ प्यारे उद्धव ! कालकी गति सूक्ष्म है। उसे साधारणत: देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होनेके कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते ॥ ४२ ॥ जैसे कालके प्रभावसे दियेकी लौ, नदियोंके प्रवाह अथवा वृक्षके फलोंकी विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियोंके शरीरोंकी आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है ॥ ४३ ॥ जैसे यह उन्हीं ज्योतियोंका वही दीपक है, प्रवाहका यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तनमें व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषोंका ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है ॥ ४४ ॥ यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मोंके बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्तिसे वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है ॥ ४५ ॥

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[1] यथा त्वचा, स्पर्श और वायु; श्रवण, शब्द और दिशा; जिह्वा, रस और वरुण; नासिका, गन्ध और अश्विनीकुमार; चित्त, चिन्तनका विषय और वासुदेव; मन, मनका विषय और चन्द्रमा; अहङ्कार, अहङ्कार का विषय और रुद्र; बुद्धि, समझनेका विषय और ब्रह्मा—इन सभी त्रिविध तत्त्वोंसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं है।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...