सोमवार, 5 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

द्विज उवाच

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-

र्न देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः

मनः परं कारणमामनन्ति

संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत्  ४३

मनो गुणान्वै सृजते बलीय-

स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि

शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि

तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति  ४४

अनीह आत्मा मनसा समीहता

हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे

मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्-

जुषन्निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ  ४५

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च

श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि

सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः

परो हि योगो मनसः समाधिः ४६

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं

दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्

असंयतं यस्य मनो विनश्यद्-

दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः  ४७

मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा

मनश्च नान्यस्य वशं समेति

भीष्मो हि देवः सहसः सहीया-

न्युञ्ज्याद्वशे तं स हि देवदेवः ४८

तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-

मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्

कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-

र्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः ४९

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा

ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः

एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण

दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति  ५०

जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत्

जिह्वां क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-

स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्  ५१

दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु

किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्

यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्-

क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे ५२

आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः

किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः

न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्या-

त्क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम् ५३

ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै

ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां

क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः ५४

कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे

देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः

क्रुध्येत कस्मै न हि कर्म मूलम्  ५५

कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ

नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्-

क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम्  ५६

न केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य

द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य

यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-

देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः  ५७

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-

मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः

अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं

तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव  ५८

 

श्रीभगवानुवाच

निर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमः

प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्

निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-

दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम्  ५९

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः

मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ६०

तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया

मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ६१

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः

धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन्द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते  ६२

 

ब्राह्मण कहता—मेरे सुख अथवा दु:खका कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मनको ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियोंकी सृष्टि की है। उन वृत्तियोंके अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकारके कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही जीवकी विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्ङ्क्षक्रय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञानसे सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मनको स्वीकार करके उसके द्वारा विषयोंका भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥ दान, अपने धर्मका पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्‌में लग जाय। मनका समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मोंसे अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥ सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं । मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीरको ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानोंको भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत्के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥ साधारणत: मनुष्योंकी बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मन:कल्पित शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रमके फंदेमें फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकारमें ही भटकते रहते हैं ॥ ५० ॥

यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दु:खका कारण है, तो भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दु:ख पहुँचानेवाला भी मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा ? ॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दु:खके कारण हैं, तो भी इस दु:खसे आत्माकी क्या हानि ? क्योंकि यदि दु:खके कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके रूपमें उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं। और देवता सभी शरीरोंमें एक हैं; जो देवता एक शरीरमें हैं; वे ही दूसरेमें भी हैं। ऐसी दशामें यदि अपने ही शरीरके किसी एक अङ्ग से दूसरे अङ्ग को चोट लग जाय तो भला, किसपर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दु:खका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दु:ख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोधका निमित्त ही क्या ? ॥ ५३ ॥ यदि ग्रहोंको सुख-दु:खका निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे ? ॥ ५४ ॥ यदि कर्मोंको ही सुख-दु:खका कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन ? क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड और चेतन—उभयरूप होनेपर ही हो सकते हैं।(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते हैं; अत: वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और हिताहितका ज्ञान रखनेके कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किसपर करें ? ॥ ५५ ॥ यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:खका कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकनेवाले अहङ्कारको ही होता है। जो इस बातको जान लेता है, वह फिर किसी भी भयके निमित्तसे भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियोंने इस परमात्मनिष्ठाका आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्‌के चरणकमलोंकी सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान-सागरको अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसारमें मनुष्यको कोई दूसरा सुख या दु:ख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रुके भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियोंको मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधनका इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्तसे इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंके वशमें नहीं होता। उनके बीच में भी वह सिंह के समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

श्रीभगवानुवाच

इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तमः

उन्मुच्य हृदयग्रन्थीन्शान्तो भिक्षुरभून्मुनिः ३१

स चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रियानिलः

भिक्षार्थं नगरग्रामानसङ्गोऽलक्षितोऽविशत् ३२

तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः

दृष्ट्वा पर्यभवन्भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः ३३

केचित्त्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम्

पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन ३४

प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः

अन्नं च भैक्ष्यसम्पन्नं भुञ्जानस्य सरित्तटे ३५

मूत्रयन्ति च पापिष्ठाः ष्ठीवन्त्यस्य च मूर्धनि

यतवाचं वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत्  ३६   

तर्जयन्त्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः

बध्नन्ति रज्ज्वा तं केचिद्बध्यतां बध्यतामिति ३७

क्षिपन्त्येकेऽवजानन्त एष धर्मध्वजः शठः

क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत्स्वजनोज्झितः ३८

अहो एष महासारो धृतिमान्गिरिराडिव

मौनेन साधयत्यर्थं बकवद्दृढनिश्चयः ३९

इत्येके विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च

तं बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम्  ४०

एवं स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत्

भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तं प्राप्तमबुध्यत  ४१

परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः

पातयद्भिः स्व धर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम्  ४२

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस उज्जैननिवासी ब्राह्मणने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पनकी गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया ॥ ३१ ॥ अब उसके चित्तमें किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्तिके प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें कर लिया। वह पृथ्वीपर स्वच्छन्दरूपसे विचरने लगा। वह भिक्षाके लिये नगर और गाँवोंमें जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था ॥ ३२ ॥ उद्धवजी ! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरहसे उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते ॥ ३३ ॥ कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्ष- माला और कंथा ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्रको ही इधर-उधर डाल देते ॥ ३४ ॥ कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी-तटपर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिरपर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लिये विवश करते और जब वह इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते ॥ ३५-३६ ॥ कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सीसे बाँधने लगते ॥ ३७ ॥ कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपणने धर्मका ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रोंने घरसे निकाल दिया; तब इसने भीख माँगनेका रोजगार लिया है ॥ ३८ ॥ ओहो ! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्यमें बड़े भारी पर्वतके समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढक़र ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’ ॥ ३९ ॥ कोई उस अवधूतकी हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियोंको बाँध लेते या ङ्क्षपजड़ेमें बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरोंमें बंद कर देते ॥ ४० ॥ किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदिके कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदिसे दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदिके द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुकके मनमें इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ॥ ४१ ॥ यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरहके तिरस्कार करके उसे उसके धर्मसे गिरानेकी चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़तासे अपने धर्ममें स्थिर रहता और सात्त्विक धैर्यका आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता ॥ ४२ ॥

 

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रविवार, 4 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः

लोभः स्वल्पोऽपि तान्हन्ति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम् १६

अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये

नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम् १७

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः

भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च १८

एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्

तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् १९

भिद्यन्ते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा

एका स्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः २०

अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः

त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम् २१

लब्ध्वा जन्मामरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद्द्विजाग्र्यताम्

तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम् २२

स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्

द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि २३

देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन्बन्धूंश्च भागिनः

असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः २४

व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्

कुशला येन सिध्यन्ति जरठः किं नु साधये २५

कस्मात्सङ्क्लिश्यते विद्वान्व्यर्थयार्थेहयासकृत्

कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः २६

किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत

मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः २७

नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः

येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः २८

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येऽङ्गमात्मनः

अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि २९

तत्र मामनुमोदेरन्देवास्त्रिभुवनेश्वराः

मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वाङ्गः समसाधयत् ३०

 

जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूपको बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियोंके शुद्ध यश और गुणियोंके प्रशंसनीय गुणोंपर पानी फेर देता है ॥ १६ ॥ धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करनेमें तथा उसके नाश और उपभोगमें—जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता है ॥ १७ ॥ चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पद्र्धा, लम्पटता, जूआ और शराब—ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्योंमें धनके कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थके विरोधी अर्थनामधारी अनर्थको दूरसे ही छोड़ दे ॥ १८-१९ ॥ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी—जो स्नेहबन्धनसे बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ीके कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरेके शत्रु बन जाते हैं ॥ २० ॥ ये लोग थोड़े-से धनके लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बातमें सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देनेपर उतारू हो जाते हैं। यहाँतक कि एक-दूसरेका सर्वनाश कर डालते हैं ॥ २१ ॥ देवताओंके भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्मको और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मणशरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थका नाश करते हैं, वे अशुभ गतिको प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ यह मनुष्यशरीर मोक्ष और स्वर्गका द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है जो अनर्थोंके धाम धनके चक्करमें फँसा रहे ॥ २३ ॥ जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और उनके दूसरे भागीदारोंको उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्षके समान धनकी रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगतिको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ मैं अपने कर्तव्यसे च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमादमें अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनोंसे मोक्षतक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको मैंने धन इकट्ठाकरनेकी व्यर्थ चेष्टामें खो दिया। अब बुढ़ापेमें मैं कौन-सा साधन करूँगा ॥ २५ ॥ मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धनकी व्यर्थ तृष्णासे निरन्तर क्यों दुखी रहते हैं ? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसीकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहा है ॥ २६ ॥ यह मनुष्य-शरीर कालके विकराल गालमें पड़ा हुआ है। इसको धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगोंसे, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालोंसे तथा पुन:-पुन: जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले सकाम कर्मोंसे लाभ ही क्या है ? ॥ २७ ॥

इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान्‌ मुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशामें पहुँचाया है और मुझे जगत् के प्रति यह दु:ख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुत: वैराग्य ही इस संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकाके समान है ॥ २८ ॥ मैं अब ऐसी अवस्थामें पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभमें ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीरको तपस्याके द्वारा सुखा डालूँगा ॥ २९ ॥ तीनों लोकोंके स्वामी देवगण मेरे इस सङ्कल्पका अनुमोदन करें। अभी निराश होनेकी कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वाङ्गने तो दो घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी ॥ ३० ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...