गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– आठवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धआठवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

मार्कण्डेयजी की तपस्या और वर-प्राप्ति

 

श्रीशौनक उवाच

सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर ।

तमस्यपारे भ्रमतां नॄणां त्वं पारदर्शनः ॥ १ ॥

 आहुश्चिरायुषं ऋषिं मृकण्डुतनयं जनाः ।

 यः कल्पान्ते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत् ॥ २ ॥

 स वा अस्मत् कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन् भार्गवर्षभः ।

 नैवाधुनापि भूतानां सम्प्लवः कोऽपि जायते ॥ ३ ॥

 एक एवार्णवे भ्राम्यन् ददर्श पुरुषं किल ।

 वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्‌भुतम् ॥ ४ ॥

 एष नः संशयो भूयान् सूत कौतूहलं यतः ।

 तं नश्छिन्धि महायोगिन् पुराणेष्वपि सम्मतः ॥ ५ ॥

 

 सूत उवाच -

 प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः ।

 नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा ॥ ६ ॥

 प्राप्तद्विजाति संस्कारो मार्कण्डेयः पितुः क्रमात् ।

 छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः ॥ ७ ॥

 बृहद्व्रतधरः शान्तो जटिलो वल्कलाम्बरः ।

 बिभ्रत्कमण्डलुं दण्डं उपवीतं समेखलम् ॥ ८ ॥

 कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये ।

 अग्न्यर्कगुरुविप्रात्म स्वर्चयन् सन्ध्ययोर्हरिम् ॥ ९ ॥

 सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यं आहृत्य वाग्यतः ।

 बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः ॥ १० ॥

 एवं तपःस्वाध्यायपरो वर्षाणां अयुतायुतम् ।

 आराधयन् हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम् ॥ ११ ॥

 ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे ।

 नृदेवपितृभूतानि तेनासन् अतिविस्मिताः ॥ १२ ॥

 इत्थं बृहद्व्रतधरः तपःस्वाध्याय संयमैः ।

 दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना ॥ १३ ॥

 तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिनः ।

 व्यतीयाय महान् कालो मन्वन्तरषडात्मकः ॥ १४ ॥

 एतत् पुत्पुरन्दरो ज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन् किलान्तरे ।

 तपोविशङ्‌कितो ब्रह्मन् आरेभे तद्विघातनम् ॥ १५ ॥

 गन्धर्वाप्सरसः कामं वसन्तमलयानिलौ ।

 मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तथा ॥ १६ ॥

 ते वै तदाश्रमं जग्मुः हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे ।

 पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो ॥ १७ ॥

 तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलताञ्चितम् ।

 पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामल जलाशयम् ॥ १८ ॥

 मत्तभ्रमरसङ्‌गीतं मत्तकोकिल कूजितम् ।

 मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम् ॥ १९ ॥

 वायुः प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान् ।

 सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम् ॥ २० ॥

 उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रः प्रवालस्तबकालिभिः ।

 गोपद्रुमलताजालैः तत्रासीत् कुसुमाकरः ॥ २१ ॥

 अन्वीयमानो गन्धर्वैः गीतवादित्रयूथकैः ।

 अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः ॥ २२ ॥

 हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिङ्‌कराः ।

 मीलिताक्षं दुराधर्षं मूर्तिमन्तं इवानलम् ॥ २३ ॥

 ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः ।

 मृदङ्‌गवीणापणवैः वाद्यं चक्रुर्मनोरमम् ॥ २४ ॥

 सन्दधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा ।

 मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन् ॥ २५ ॥

 क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कन्दुकैः स्तनगौरवात् ।

 भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः ॥ २६ ॥

 इतस्ततो भ्रमद्दृष्टेः चलन्त्या अनु कन्दुकम् ।

 वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम् ॥ २७ ॥

 विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः ।

 सर्वं तत्राभवन् मोघं अनीशस्य यथोद्यमः ॥ २८ ॥

 त इत्थमपकुर्वन्तो मुनेस्तत्तेजसा मुने ।

 दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः ॥ २९ ॥

 इतीन्द्रानुचरैर्ब्रह्मन् धर्षितोऽपि महामुनिः ।

 यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि ॥ ३० ॥

 दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान् स्वराट् ।

 श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेः विस्मयं समगात् परम् ॥ ३१ ॥

 

शौनकजीने कहा—साधुशिरोमणि सूतजी ! आप आयुष्मान् हों। सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्रका उत्तर दीजिये ॥ १ ॥ लोग कहते हैं कि मृकण्ड-ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलय  ने सारे जगत् को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ॥ २ ॥ परन्तु सूतजी ! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगु-वंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है ॥ ३ ॥ ऐसी स्थितिमें यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलय कालीन समुद्रमें डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका दर्शन किया ॥ ४ ॥ सूतजी ! हमारे मनमें बड़ा सन्देह है और इस बातको जाननेकी बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकोंमें सम्मानित हैं। आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये ॥ ५ ॥

सूतजीने कहा—शौनकजी ! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्र किया। इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान्‌ नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ॥ ६ ॥ शौनकजी ! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे ॥ ७ ॥ उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था। शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ॥ ८ ॥ काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी पूर्तिके लिये ही ग्रहण किया था। वे सायङ्काल और प्रात:काल अग्रिहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकारकी भावना आदिके द्वारा भगवान्‌की आराधना करते ॥ ९ ॥ सायं-प्रात: भिक्षा लाकर गुरुदेवके चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते ॥ १० ॥ मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्‌की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी कठिन है ॥ ११ ॥ मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा, भृगु, शङ्कर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ १२ ॥ आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशोंको मिटाकर शुद्ध अन्त:करणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे ॥ १३ ॥ योगी मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्‌के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छ: मन्वन्तर व्यतीत हो गये ॥ १४ ॥ ब्रह्मन् ! इस सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना आरम्भ कर दिया ॥ १५ ॥

शौनकजी ! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मदको भेजा ॥ १६ ॥ भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है ॥ १७ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते हैं ॥ १८ ॥ कहीं मतवाले भौंरे अपनी सङ्गीतमयी गुंजारसे लोगोंका मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पञ्चम स्वरमें ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियोंका झुंड खेलता रहता है ॥ १९ ॥ मार्कण्डेय मुनिके ऐसे पवित्र आश्रममें इन्द्रके भेजे हुए वायुने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनोंकी नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पोंका आलिङ्गन किया और फिर कामभावको उत्तेजित करते हुए धीरे-धीरे बहने लगा ॥ २० ॥ कामदेवके प्यारे सखा वसन्तने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्याका समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणोंका विस्तार कर रहे थे। सहस्र-सहस्र डालियोंवाले वृक्ष लताओंका आलिङ्गन पाकर धरतीतक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलोंके गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे ॥ २१ ॥ वसन्तका साम्राज्य देखकर कामदेवने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथमें पुष्पोंका धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे ॥ २२ ॥

उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान्‌ की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों ! उनको देखनेसे ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा ॥ २३ ॥ अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदङ्ग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वरमें बजाने लगे ॥ २४ ॥ शौनकजी ! अब कामदेवने अपने पुष्पनिर्मित धनुषपर पञ्चमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख हैं—शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगानेकी ताकमें था, उस समय इन्द्रके सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनिका मन विचलित करनेके लिये प्रयत्नशील थे ॥ २५ ॥ उनके सामने ही पुञ्जिकस्थली नामकी सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनोंके भारसे बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियोंमें गुँथे हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर धरतीपर गिरती जा रही थीं ॥ २६ ॥ कभी-कभी वह तिरछी चितवनसे इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंदके साथ आकाशकी ओर जाते, कभी धरतीकी ओर और कभी हथेलियोंकी ओर। वह बड़े हाव-भावके साथ गेंदकी ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायुने उसकी झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दिया ॥ २७ ॥ कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषोंके प्रयत्न विफल हो जाते हैं ॥ २८ ॥ शौनकजी ! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते हैं ॥ २९ ॥ शौनकजी ! इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहङ्कार का भाव न हुआ। सच है, महापुरुषोंके लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ ३० ॥ जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी सेनाके साथ निस्तेज—हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रहमर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ॥ ३१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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बुधवार, 21 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– सातवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

 श्रीमद्भागवतमहापुराण

 द्वादश स्कन्धसातवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

 अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण

 

 रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे ।

 तिर्यङ्‌मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः ॥ १४ ॥

 मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वराः ।

 ऋषयोंऽशावताराश्च हरेः षड्‌विधमुच्यते ॥ १५ ॥

 राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।

 वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥ १६ ॥

 नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः ।

 संस्थेति कविभिः प्रोक्तः चतुर्धास्य स्वभावतः ॥ १७ ॥

 हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेः अविद्याकर्मकारकः ।

 यं चानुशायिनं प्राहुः अव्याकृतमुतापरे ॥ १८ ॥

 व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत् स्वप्नसुषुप्तिषु ।

 मायामयेषु तद्ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः ॥ १९ ॥

 पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु ।

 बीजादि पञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम् ॥ २० ॥

 विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम् ।

 योगेन वा तदात्मानं वेदेहाया निवर्तते ॥ २१ ॥

 एवं लक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः ।

 मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च ॥ २२ ॥

 ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्‌गं सगारुडं ।

 नारदीयं भागवतं आग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥ २३ ॥

 भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।

 वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यं इति त्रिषट् ॥ २४ ॥

 ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः ।

 शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम् ॥ २५ ॥

 

भगवान्‌ युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ॥ १४ ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान्‌के अंशावतार—इन्हीं छ: बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं ॥ १५ ॥ ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तानपरम्परा- को ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है ॥ १६ ॥ इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है ॥ १७ ॥ पुराणोंके लक्षणमें ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग-विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ॥ १८ ॥ जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं—जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है ॥ १९ ॥ नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें, तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है ॥ २० ॥ जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमें ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ॥ २१ ॥

शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ २२ ॥ उनके नाम ये हैं— ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामन पुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ॥ २३-२४ ॥ शौनकजी ! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन- अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसङ्ग सुनने और पढऩेवालों के ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ॥ २५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– सातवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धसातवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण

 

 सूत उवाच -

 

 अथर्ववित्सुमन्तुश्च शिष्यं अध्यापयत् स्वकाम् ।

 संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान् ॥ १ ॥

 शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिः मादोषः पिप्पलायनिः ।

 वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो श्रृणु ।

 कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चापि अथर्ववित् ॥ २ ॥

 बभ्रुः शिष्योऽथांगिरसः सैन्धवायन एव च ।

 अधीयेतां संहिते द्वे सावर्णाद्यास्तथापरे ॥ ३ ॥

 नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपाङ्‌गिरसादयः ।

 एते आथर्वणाचार्याः श्रृणु पौराणिकान् मुने ॥ ४ ॥

 त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिः अकृतव्रणः ।

 वैशंपायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे ॥ ५ ॥

 अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात् ।

 एकैकां अहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम् ॥ ६ ॥

 कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः ।

 अधीमहि व्यासशिष्यात् चत्वारो मूलसंहिताः ॥ ७ ॥

 पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिः निरूपितम् ।

 श्रृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः ॥ ८ ॥

 सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्तिरक्षान्तराणि च ।

 वंशो वंशानुचरीतं संस्था हेतुरपाश्रयः ॥ ९ ॥

 दशभिः लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः ।

 केचिन् पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया ॥ १० ॥

 अव्याकृतगुणक्षोभान् महतस्त्रिवृतोऽहमः ।

 भूतसूक्ष्मेन्द्रियार्थानां संभवः सर्ग उच्यते ॥ ११ ॥

 पुरुषानुगृहीतानां एतेषां वासनामयः ।

 विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद्बीजं चराचरम् ॥ १२ ॥

 वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणां अचराणि च ।

 कृता स्वेन नृणां तत्र कामात् चोदनयापि वा ॥ १३ ॥

 

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तु मुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी। कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्शको उसका अध्ययन कराया ॥ १ ॥ वेददर्शके चार शिष्य हुए—शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो ॥ २ ॥ शौनकजी ! पथ्यके तीन शिष्य थे—कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अङ्गिरा-गोत्रोत्पन्न शुनकके दो शिष्य थे—बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया। अथर्ववेदके आचार्योंमें इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावण्र्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ ॥३-४॥

 

शौनकजी ! पुराणों के छ: आचार्य प्रसिद्ध हैं—त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ॥ ५ ॥ इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराण-संहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान्‌ व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ॥ ६ ॥ उन छ: संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीके शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैंने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ॥ ७ ॥

शौनकजी ! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानीसे उनका वर्णन सुनो ॥ ८ ॥ शौनकजी ! पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्व-सर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच। विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच ॥ ९-१० ॥ (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक)—तीन प्रकारके अहङ्कार बनते हैं। त्रिविध अहङ्कारसे ही पञ्चतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्ति-क्रमका नाम ‘सर्ग’ है ॥ ११ ॥ परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामथ्र्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मोंके अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं ॥ १२ ॥ चर प्राणियोंकी अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाहकी सामग्री है। चर प्राणियोंके दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ ने शास्त्रके आज्ञानुसार ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– छठा अध्याय (पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धछठा अध्याय (पोस्ट०३)

 

परीक्षित्‌ की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखाभेद

 

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्

यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम् ६१

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन्कियत्

चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम् ६२

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया

विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति ६३

देवरातसुतः सोऽपि छर्दित्वा यजुषां गणम्

ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान्यजुर्गणान् ६४

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः

तैत्तिरीया इति यजुः शाखा आसन्सुपेशलाः ६५

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मंश्छन्दांस्यधि गवेषयन्

गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम् ६६

श्रीयाज्ञवल्क्य उवाच

 

ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण काल

स्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु

बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक

एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादान

विसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति ६७

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवनमहर्

अहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिन

बीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपन मण्डलम् ६८

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनैन्द्रियासु

गणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति ६९

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रह

गिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया परमकारुणिक

ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्माव

स्थने प्रवर्तयति ७०

अवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति परित आशापालैस्

तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः ७१

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिरभिवन्दितम्

अहमयातयामयजुष्काम उपसरामीति ७२

 

सूत उवाच

एवं स्तुतः स भगवान्वाजिरूपधरो रविः

यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात्प्रसादितः ७३

यजुर्भिरकरोच्छाखा दश पञ्च शतैर्विभुः

जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः ७४

जैमिनेः समगस्यासीत्सुमन्तुस्तनयो मुनिः

सुत्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम् ७५

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्

सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विज ७६

हिरण्यनाभः कौशल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः

शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः ७७

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन्पञ्चशतानि वै

पौष्यञ्ज्यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान्प्रचक्षते ७८

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुशीदः कुक्षिरेव च

पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम् ७९

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशति संहिताः

शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान् ८०

 

शौनकजी ! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों  का नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित्त करने के लिये एक व्रत का अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ॥ ६१ ॥ वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे  कहा—‘अहो भगवन् ! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालन से लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित्त के  लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ॥ ६२ ॥

याज्ञवल्क्यमुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ ॥ ६३ ॥ याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई ॥ ६४-६५ ॥ शौनकजी ! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान्‌ का उपस्थान करने लगे ॥ ६६ ॥

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं—मैं ॐकारस्वरूप भगवान्‌ सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोंसे असङ्ग रहनेवाले अद्वितीय भगवान्‌ ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे सङ्घटित संवत्सरोंके द्वारा एवं जलके आकर्षण-विकर्षण— आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकोंकी जीवनयात्रा चलाते हैं ॥ ६७ ॥ प्रभो ! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दु:खों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव ! आप सारी सृष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल का पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं ॥ ६८ ॥ आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत्में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं[*] ॥ ६९ ॥ यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पडक़र अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्रसे ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हुआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार, आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ॥ ७० ॥ चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अञ्जलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं ॥ ७१ ॥ भगवन् ! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो ॥ ७२ ॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान्‌ सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे ॥ ७३ ॥ इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया ॥ ७४ ॥

यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायनने जैमिनि मुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तु मुनि और पौत्र थे सुन्वान् ! जैमिनि मुनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी ॥ ७५ ॥ जैमिनि मुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं ॥ ७६ ॥ सुकर्माके शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया ॥ ७७ ॥ पौष्यञ्जि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हींको प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया ॥ ७८ ॥ पौष्यञ्जिके और भी शिष्य थे—लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमेंसे प्रत्येकने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया ॥ ७९ ॥ हिरण्यनाभका शिष्य था—कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दीं। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ ॥ ८० ॥

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[*] ६७, ६८, ६९ इन तीनों वाक्योंद्वारा क्रमश: गायत्रीमन्त्रके ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्’, ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’—इन तीन चरणोंकी व्याख्या करते हुए भगवान्‌ सूर्यकी स्तुति की गयी है।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...