मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०३)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 विप्रशापापदेशेन संहारः स्वकुलस्य च ।

 उद्धवस्य च संवादो वसुदेवस्य चाद्‌भुतः ॥ ४१ ॥

 यत्रात्मविद्या ह्यखिला प्रोक्ता धर्मविनिर्णयः ।

 ततो मर्त्यपरित्याग आत्मयोगानुभावतः ॥ ४२ ॥

 युगलक्षणवृत्तिश्च कलौ नॄणामुपप्लवः ।

 चतुर्विधश्च प्रलय उत्पत्तिस्त्रिविधा तथा ॥ ४३ ॥

 देहत्यागश्च राजर्षेः विष्णुरातस्य धीमतः ।

 शाखाप्रणयनं ऋषेः मार्कण्डेयस्य सत्कथा ॥

 महापुरुषविन्यासः सूर्यस्य जगदात्मनः ॥ ४४ ॥

 इति चोक्तं द्विजश्रेष्ठा यत्पृष्टोऽहं इहास्मि वः ।

 लीलावतारकर्माणि कीर्तितानीह सर्वशः ॥ ४५ ॥

 पतितः स्खलितश्चार्तः क्षुत्त्वा वा विवशो ब्रुवन् ।

 हरये नम इत्युच्चैः मुच्यते सर्वपातकात् ॥ ४६ ॥

सङ्‌कीर्त्यमानो भगवान् अनन्तः

     श्रुतानुभावो व्यसनं हि पुंसाम् ।

 प्रविश्य चित्तं विधुनोत्यशेषं

     यथा तमोऽर्कोऽभ्रमिवातिवातः ॥ ४७ ॥

मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा

     न कथ्यते यद्‌भगवानधोक्षजः ।

 तदेव सत्यं तदुहैव मङ्‌गलं

     तदेव पुण्यं भगवद्‌गुणोदयम् ॥ ४८ ॥

 तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं

     तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।

 तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां

     यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ॥ ४९ ॥

 न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो

     जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।

 तद् ध्वाङ्‌क्षतीर्थं न तु हंससेवितं

     यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ॥ ५० ॥

 तद्वाग्विसर्गो जनताघसंप्लवो

     यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।

 नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्‌कितानि यत्

     श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ५१ ॥

 नैष्कर्म्यमप्यच्युत भाववर्जितं

     न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।

 कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे

     न ह्यर्पितं कर्म यदप्यनुत्तमम् ॥ ५२ ॥

 यशःश्रियामेव परिश्रमः परो

     वर्णाश्रमाचारतपःश्रुतादिषु ।

 अविस्मृतिः श्रीधरपादपद्मयोः

     गुणानुवादश्रवणादरादिभिर्हरेः ॥ ५३ ॥

अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः

     क्षिणोत्यभद्राणि च शं तनोति च ।

 सत्त्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं

     ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम् ॥ ५४ ॥

यूयं द्विजाग्र्या बत भूरिभागा

     यच्छश्वदात्मन्यखिलात्मभूतम् ।

 नारायणं देवमदेवमीशं

     अजस्रभावा भजताविवेश्य ॥ ५५ ॥

हं च संस्मारित आत्मतत्त्वं

     श्रुतं पुरा मे परमर्षिवक्त्रात् ।

 प्रायोपवेशे नृपतेः परीक्षितः

     सदस्यृषीणां महतां च श्रृण्वताम् ॥ ५६ ॥

 एतद्वः कथितं विप्राः कथनीयोरुकर्मणः ।

 माहात्म्यं वासुदेवस्य सर्वाशुभविनाशनम् ॥ ५७ ॥

 य एतत्श्रावयेन्नित्यं यामक्षणमनन्यधीः ।

 श्रद्धावान् योऽनुश्रृणुयात् पुनात्यात्मानमेव सः ॥ ५८ ॥

 द्वादश्यामेकादश्यां वा श्रृण्वन्नायुष्यवान् भवेत् ।

 पठत्यनश्नन् प्रयतः ततो भवत्यपातकी ॥ ५९ ॥

 पुष्करे मथुरायां च द्वारवत्यां यतात्मवान् ।

 उपोष्य संहितामेतां पठित्वा मुच्यते भयात् ॥ ६० ॥

 देवता मुनयः सिद्धाः पितरो मनवो नृपाः ।

 यच्छन्ति कामान् गृणतः श्रृण्वतो यस्य कीर्तनात् ॥ ६१ ॥

 ऋचो यजूंषि सामानि द्विजोऽधीत्यानुविन्दते ।

 मधुकुल्या घृतकुल्याः पयःकुल्याश्च तत्फलम् ॥ ६२ ॥

 पुराणसंहितां एतां अधीत्य प्रयतो द्विजः ।

 प्रोक्तं भगवता यत्तु तत्पदं परमं व्रजेत् ॥ ६३ ॥

 विप्रोऽधीत्याप्नुयात् प्रज्ञां राजन्योदधिमेखलाम् ।

 वैश्यो निधिपतित्वं च शूद्रः शुध्येत पातकात् ॥ ६४ ॥

कलिमलसंहतिकालनोऽखिलेशो

     हरिरितरत्र न गीयते ह्यभीक्ष्णम् ।

 इह तु पुनर्भगवानशेषमूर्तिः

     परिपठितोऽनुपदं कथाप्रसङ्‌गैः ॥ ६५ ॥

तमहमजमनन्तमात्मतत्त्वं

     जगदुदयस्थितिसंयमात्मशक्तिम् ।

 द्युपतिभिरजशक्रशङ्‌कराद्यैः

     दुरवसितस्तवमच्युतं नतोऽस्मि ॥ ६६ ॥

 उपचितनवशक्तिभिः स्व आत्मनि

     उपरचितस्थिरजङ्‌गमालयाय ।

 भगवत उपलब्धिमात्रधाम्ने

     सुरऋषभाय नमः सनातनाय ॥ ६७ ॥

स्वसुखनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावोऽपि

     अजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम् ।

 व्यतनुत कृपया यः तत्त्वदीपं पुराणं

     तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥ ६८ ॥

 

शौनकादि ऋषियो ! ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान्‌ ने ब्राह्मणोंके शापके बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ॥ ४१ ॥ उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्यलोक का परित्याग किया ॥ ४२ ॥ बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है ॥ ४३ ॥ इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित्‌के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा-विभाजनका प्रसङ्ग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवान्‌ के अङ्ग- उपाङ्गोंका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान्‌ सूर्यके गणोंका वर्णन है ॥ ४४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंने इस सत्सङ्गके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान्‌की लीला और उनके अवतार- चरित्रोंका ही कीर्तन किया है ॥ ४५ ॥

जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते, दु:ख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है—‘हरये नम:’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥ यदि देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन्न भगवान्‌ श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका सङ्कीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दु:ख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ॥ ४७ ॥ जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान्‌ के नाम, लीला, गुण आदिका उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है—सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान्‌के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मङ्गलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ॥ ४८ ॥ जिस वचनके द्वारा भगवान्‌ के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है ॥ ४९ ॥ जिस वाणीसे—चाहे वह रस, भाव, अलङ्कार आदिसे युक्त ही क्यों न हो—जगत् को पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान्‌ रहते हैं ॥ ५० ॥ इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोकमें भगवान्‌के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ ५१ ॥ वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्‌ की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान्‌ को अर्पण नहीं किया गया है—वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो—सर्वदा अमङ्गलरूप, दु:ख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ? ॥ ५२ ॥ वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है—केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति। परन्तु भगवान्‌के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है ॥ ५३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमङ्गलोंको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, भगवान्‌की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्‌के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ॥ ५४ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं ! क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान्‌को स्थापित करके भजन करते रहते हैं ॥ ५५ ॥ जिस समय राजर्षि परीक्षित्‌ अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरण कराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ ॥ ५६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसङ्गमें उन्हींकी महिमाका वर्णन किया है; जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है ॥ ५७ ॥ जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्त:करणको पवित्र बना लेता है ॥ ५८ ॥ जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्त:करणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराण-संहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ६० ॥ जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ ६१ ॥ ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पय:कुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवत के पाठसे भी मिलता है ॥ ६२ ॥ जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपद की प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान्‌ ने किया है ॥ ६३ ॥ इसके अध्ययनसे ब्राह्मण को ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ ६४ ॥

भगवान्‌ ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलों को ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान्‌का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवतमहापुराणमें तो प्रत्येक कथा-प्रसङ्गमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान्‌का ही वर्णन हुआ है ॥ ६५ ॥ वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकालादिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत्की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६६ ॥ जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकृति आदि नौ शक्तियोंका सङ्कल्प करके इस चराचर जगत्की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान्‌के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६७ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्र थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मङ्गलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत्के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ ६८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे द्वादशस्कन्धार्थनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 26 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 मन्वन्तरानुकथनं गजेन्द्रस्य विमोक्षणम् ।

 मन्वन्तरावताराश्च विष्णोर्हयशिरादयः ॥ १९ ॥

 कौर्मं धान्वतरं मात्स्यं वामनं च जगत्पतेः ।

 क्षीरोदमथनं तद्वद् अमृतार्थे दिवौकसाम् ॥ २० ॥

 देवासुरमहायुद्धं राजवंशानुकीर्तनम् ।

 इक्ष्वाकुजन्म तद्वंशः सुद्युम्नस्य महात्मनः ॥ २१ ॥

 इलोपाख्यानमत्रोक्तं तारोपाख्यानमेव च ।

 सूर्यवंशानुकथनं शशादाद्या नृगादयः ॥ २२ ॥

 सौकन्यं चाथ शर्यातेः ककुत्स्थस्य च धीमतः ।

 खट्वाङ्‌गस्य च मान्धातुः सौभरेः सगरस्य च ॥ २३ ॥

 रामस्य कोशलेन्द्रस्य चरितं किल्बिषापहम् ।

 निमेरङ्‌गपरित्यागो जनकानां च सम्भवः ॥ २४ ॥

 रामस्य भार्गवेन्द्रस्य निःक्षतृईकरणं भुवः ।

 ऐलस्य सोमवंशस्य ययातेर्नहुषस्य च ॥ २५ ॥

 दौष्मन्तेर्भरतस्यापि शान्तनोस्तत्सुतस्य च ।

 ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशोऽनुकीर्तितः ॥ २६ ॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् कृष्णाख्यो जगदीश्वरः ।

 वसुदेवगृहे जन्म ततो वृद्धिश्च गोकुले ॥ २७ ॥

 तस्य कर्माण्यपाराणि कीर्तितान्यसुरद्विषः ।

 पूतनासुपयःपानं शकटोच्चाटनं शिशोः ॥ २८ ॥

 तृणावर्तस्य निष्पेषः तथैव बकवत्सयोः ।

 धेनुकस्य सहभ्रातुः प्रलम्बस्य च संक्षयः ॥ २९ ॥

 गोपानां च परित्राणं दावाग्नेः परिसर्पतः ।

 दमनं कालियस्याहेः महाहेर्नन्दमोक्षणम् ॥ ३० ॥

 व्रतचर्या तु कन्यानां यत्र तुष्टोऽच्युतो व्रतैः ।

 प्रसादो यज्ञपत्‍नीभ्यो विप्राणां चानुतापनम् ॥ ३१ ॥

 गोवर्धनोद्धारणं च शक्रस्य सुरभेरथ ।

 यज्ञभिषेकं कृष्णस्य स्त्रीभिः क्रीडा च रात्रिषु ॥ ३२ ॥

 शङ्‌खचूडस्य दुर्बुद्धेः वधोऽरिष्टस्य केशिनः ।

 अक्रूरागमनं पश्चात् प्रस्थानं रामकृष्णयोः ॥ ३३ ॥

 व्रजस्त्रीणां विलापश्च मथुरालोकनं ततः ।

 गजमुष्टिकचाणूर कंसादीनां तथा वधः ॥ ३४ ॥

 मृतस्यानयनं सूनोः पुनः सान्दीपनेर्गुरोः ।

 मथुरायां निवसता यदुचक्रस्य यत्प्रियम् ।

 कृतमुद्धवरामाभ्यां युतेन हरिणा द्विजाः ॥ ३५ ॥

 जरासन्धसमानीत सैन्यस्य बहुशो वधः ।

 घातनं यवनेन्द्रस्य कुशस्थल्या निवेशनम् ॥ ३६ ॥

 आदानं पारिजातस्य सुधर्मायाः सुरालयात् ।

 रुक्मिण्या हरणं युद्धे प्रमथ्य द्विषतो हरेः ॥ ३७ ॥

 हरस्य जृम्भणं युद्धे बाणस्य भुजकृन्तनम् ।

 प्राग्ज्योतिषपतिं हत्वा कन्यानां हरणं च यत् ॥ ३८ ॥

 चैद्यपौण्ड्रकशाल्वानां दन्तवक्रस्य दुर्मतेः ।

 शम्बरो द्विविदः पीठो मुरः पञ्चजनादयः ॥ ३९ ॥

 माहात्म्यं च वधस्तेषां वाराणस्याश्च दाहनम् ।

 भारावतरणं भूमेः निमित्तीकृत्य पाण्डवान् ॥ ४० ॥

 

आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोंकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरोंमें होनेवाले जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णुके अवतार—कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्तिके लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र-मन्थन और देवासुर-संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यत: राजवंशोंका वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंश-विस्तार, महात्मा सुद्युम्र, इला एवं ताराके उपाख्यान—इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति, खट्वाङ्ग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान्‌ रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह- त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ॥ १९-२४ ॥ भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही हैं। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लडक़े यदुका वंशविस्तार कहा गया है ॥ २५-२६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान्‌ श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोंका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणोंको दूधके साथ पी लिया। बचपनमें ही छकड़ेको उलट दिया ॥ २७-२८ ॥ तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ॥ २९ ॥ दावानलसे घिरे गोपोंकी रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया ॥ ३० ॥ इसके बाद गोपियोंने भगवान्‌को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्‌ ने यज्ञपत्नियोंपर कृपा की। उनके पतियों—ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ॥ ३१ ॥ गोवद्र्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने आकर भगवान्‌का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियोंके साथ रासक्रीड़ा की ॥ ३२ ॥ दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ॥ ३३ ॥ उस प्रसंगपर व्रज-सुन्दरियोंने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ॥ ३४ ॥ सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो ! जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण मथुरामें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजीके साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ॥ ३५ ॥ जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्‌ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया ॥ ३६ ॥ स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान्‌ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रुक्मिणीका हरण किया ॥ ३७ ॥ बाणासुरके साथ युद्धके प्रसङ्गमें महादेवजीपर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएँ काट डालीं। प्राग्ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ॥ ३८ ॥ शिशुपाल, पौण्ंड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन आदि दैत्योंके बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्‌ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान्‌के चक्रने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ॥ ३९-४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्ध बारहवाँ अध्याय (पोस्ट०१)

 

श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची

 

 सूत उवाच -

 नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे ।

 ब्रह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्ये सनातनान् ॥ १ ॥

 एतद् वः कथितं विप्रा विष्णोश्चरितमद्‌भुतम् ।

 भवद्‌भिः यदहं पृष्टो नराणां पुरुषोचितम् ॥ २ ॥

 अत्र सङ्‌कीर्तितः साक्षात् सर्वपापहरो हरिः ।

 नारायणो हृषीकेशो भगवान् सात्वतां पतिः ॥ ३ ॥

 अत्र ब्रह्म परं गुह्यं जगतः प्रभवाप्ययम् ।

 ज्ञानं च तदुपाख्यानं प्रोक्तं विज्ञानसंयुतम् ॥ ४ ॥

 भक्तियोगः समाख्यातो वैराग्यं च तदाश्रयम् ।

 पारीक्षितं उपाख्यानं नारदाख्यानमेव च ॥ ५ ॥

 प्रायोपवेशो राजर्षेः विप्रशापात् परीक्षितः ।

 शुकस्य ब्रह्मर्षभस्य संवादश्च परीक्षितः ॥ ६ ॥

 योगधारणयोत्क्रान्तिः संवादो नारदाजयोः ।

 अवतारानुगीतं च सर्गः प्राधानिकोऽग्रतः ॥ ७ ॥

 विदुरोद्धवसंवादः क्षत्तृमैत्रेययोस्ततः ।

 पुराणसंहिताप्रश्नो महापुरुषसंस्थितिः ॥ ८ ॥

 ततः प्राकृतिकः सर्गः सप्त वैकृतिकाश्च ये ।

 ततो ब्रह्माण्डसम्भूतिः वैराजः पुरुषो यतः ॥ ९ ॥

 कालस्य स्थूलसूक्ष्मस्य गतिः पद्मसमुद्‌भवः ।

 भुव उद्धरणेऽम्भोधेः हिरण्याक्षवधो यथा ॥ १० ॥

 ऊर्ध्वतिर्यगवाक्सर्गो रुद्रसर्गस्तथैव च ।

 अर्धनारीश्वरस्याथ यतः स्वायंभुवो मनुः ॥ ११ ॥

 शतरूपा च या स्त्रीणां आद्या प्रकृतिरुत्तमा ।

 सन्तानो धर्मपत्‍नीनां कर्दमस्य प्रजापतेः ॥ १२ ॥

 अवतारो भगवतः कपिलस्य महात्मनः ।

 देवहूत्याश्च संवादः कपिलेन च धीमता ॥ १३ ॥

 नवब्रह्मसमुत्पत्तिः दक्षयज्ञविनाशनम् ।

 ध्रुवस्य चरितं पश्चात् पृथोः प्राचीनबर्हिषः ॥ १४ ॥

 नारदस्य च संवादः ततः प्रैयव्रतं द्विजाः ।

 नाभेस्ततोऽनुचरितं ऋषभस्य भरतस्य च ॥ १५ ॥

 द्वीपवर्षसमुद्राणां गिरिनद्युपवर्णनम् ।

 ज्योतिश्चक्रस्य संस्थानं पातालनरकस्थितिः ॥ १६ ॥

 दक्षजन्म प्रचेतोभ्यः तत्पुत्रीणां च सन्ततिः ।

 यतो देवासुरनराः तिर्यङ्‌नगखगादयः ॥ १७ ॥

 त्वाष्ट्रस्य जन्मनिधनं पुत्रयोश्च दितेर्द्विजाः ।

 दैत्येश्वरस्य चरितं प्रह्रादस्य महात्मनः ॥ १८ ॥

 

सूतजी कहते हैं—भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान्‌ श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोंका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ॥ १ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्र किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान्‌ विष्णुका यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है ॥ २ ॥ इस श्रीमद्भागवतपुराण में सर्वपापापहारी स्वयं भगवान्‌ श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं ॥ ३ ॥ इस श्रीमद्भागवत- पुराणमें परम रहस्यमय—अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराणमें उसी परमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है ॥ ४ ॥

शौनकजी ! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित्‌की कथा और व्यास-नारद-संवादके प्रसङ्गसे नारदचरित्र भी कहा गया है ॥ ५ ॥ राजर्षि परीक्षित्‌ ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गङ्गातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है ॥ ६ ॥

योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है ॥ ७ ॥

तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषयमें प्रश्र है और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ॥ ८ ॥ गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियोंके द्वारा कार्य-सृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है ॥ ९ ॥ तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान्‌के द्वारा हिरण्याक्षका वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सृष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् उस अद्र्धनारी-नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आद्या प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपत्नियोंका जन्म, महात्मा भगवान्‌ कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसङ्ग आता है ॥ १०-१३ ॥

चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनबर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिश्चक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोंकी स्थितिका निरूपण हुआ है ॥ १४—१६ ॥

शौनकादि ऋषियो ! छठे स्कन्धमें ये विषय आये हैं—प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्ति; दक्ष- पुत्रियोंकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म-कर्म; वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं—) इस स्कन्धमें मुख्यत: दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है ॥ १७-१८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



रविवार, 25 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधों का रहस्य

तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन

 

श्रीशौनक उवाच

शुको यदाह भगवान्विष्णुराताय शृण्वते

सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः २७

तेषां नामानि कर्माणि नियुक्तानामधीश्वरैः

ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः २८

 

सूत उवाच

अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्

निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते २९

एक एव हि लोकानां सूर्य आत्मादिकृद्धरिः

सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः ३०

कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः

द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन्नवधोक्तोऽजया हरिः ३१

मध्वादिषु द्वादशसु भगवान्कालरूपधृक्

लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः ३२

धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने

पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी ३३

अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली

नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम् ३४

मित्रोऽत्रिः पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः

रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी ३५

वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः

शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी ३६

इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः

प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी ३७

विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः

अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी ३८

पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा

घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी ३९

ऋतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा

विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी ४०

अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी

विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी ४१

भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः

कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी ४२

त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा

ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद्धृतराष्ट्र इषम्भराः ४३

विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्

विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी ४४

एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः

स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने ४५

द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै

चरन्समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम् ४६

सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैरृषयः संस्तुवन्त्यमुम्

गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः ४७

उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः

चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैरृता बलशालिनः ४८

वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः

पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम् ४९

एवं ह्यनादिनिधनो भगवान्हरिरीश्वरः

कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः ५०

 

शौनकजीने कहा—सूतजी ! भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित्‌से (पञ्चम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या हैं ? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान्‌ ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ॥ २७-२८ ॥

सूतजीने कहा—समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान्‌ विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है ॥ २९ ॥ असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं ॥ ३० ॥ शौनकजी ! एक भगवान्‌ ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ कालरूपधारी भगवान्‌ सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं ॥ ३२ ॥

शौनकजी ! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व—ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ३३ ॥ अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प—ये वैशाख मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३४ ॥ मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष—ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ ३५ ॥ आषाढ़में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं ॥ ३६ ॥ श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं ॥ ३७ ॥ भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शङ्खपाल नाग रहते हैं ॥ ३८ ॥ शौनकजी ! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ॥ ३९ ॥ फाल्गुन मासका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ॥ ४० ॥ मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, ताक्ष्1र्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशङ्ख नाग रहते हैं ॥ ४१ ॥ पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं ॥ ४२ ॥ आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्रि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है ॥ ४३ ॥ तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ॥ ४४ ॥

शौनकजी ! वे सब सूर्यरूप भगवान्‌की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रात:काल और सायङ्काल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ ये सूर्यदेव अपने छ: गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेकबुद्धिका विस्तार करते हैं ॥ ४६ ॥ सूर्यभगवान्‌के गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ॥ ४७ ॥ नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं ॥ ४८ ॥ इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रहमर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ॥ ४९ ॥ इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान्‌ श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं ॥ ५० ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...