सोमवार, 19 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 02)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 02)

 

नारद जी कहते हैं --मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ पुरुषवेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक बन जातीं और श्रीकृष्ण के सामने उन्हीं की तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधा का वेष धारण करके श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती थीं। कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ, स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम-विह्वल एवं परमानन्द में निमग्न हो, योगिजनों की भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओं में, वृक्षों में, भूतल में, विभिन्न दिशाओं में तथा अपने-आप में भी भगवान् श्रीपति का दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती थीं। इस प्रकार रासमण्डल में सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान्‌ का जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही कैसे सकता है ?

महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र के रास में जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम 'आसुरि था। वे नारदगिरिपर श्रीहरिके ध्यान में तत्पर हो तपस्या करते थे । हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे । एक समय रात में जब मुनि ध्यान करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यान में नहीं आये। उन्होंने बारंबार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यान से उठकर श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रम को गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वर को नर-नारायण के दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेव का भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ।

तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँ से कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनि के मन में बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागर से सुशोभित श्वेतद्वीप में गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरि का दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त और भी खिन्न हो गया । उनका मुख प्रेम से पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने पार्षदों से पूछा - 'भगवान् यहाँ से कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला- 'हम लोग नहीं जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्ता में पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरि का दर्शन हो ?' ।।

यों कहते हुए मन के समान गतिशील आसुरि मुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मी के साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायण का दर्शन उन्हें नहीं हुआ। नरेश्वर ! वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनि ने भगवान्‌ को नहीं देखा। तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँ के वृन्दावनीय निकुञ्ज में भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । तब मुनि का चित्त खिन्न हो गया और वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये। वहाँ उन्होंने पार्षदों से पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपोंने उनसे कहा - 'वामनावतार के ब्रह्माण्ड में, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं ।' उनके यों कहने पर महामुनि आसुरि वहाँ से उस ब्रह्माण्डमें आये ।

[वहां भी] श्रीहरि का दर्शन न होने से तीव्र गति से चलते हुए मुनि कैलास पर्वत पर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्ण के ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न- चित्त हुए महामुनि ने  पूछा ।।

आसुरि बोले- भगवन् ! मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शन की इच्छा से वैकुण्ठ से लेकर गोलोक तक का चक्कर लगा आया, किंतु कहीं भी देवाधिदेव का दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये, इस समय भगवान् कहाँ हैं ?

श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागर में रहने वाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे। उन्हें उस क्लेश से मुक्त करने के लिये जो बड़ी उतावली के साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावन में आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने के बराबर बड़ी रात बनायी है। मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा। तुम भी शीघ्र ही चलो, जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥ २२ – ४९ ॥

 

.....शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता”  पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 24)

 



रविवार, 18 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 01)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 01)

 

नारदजी कहते हैं -- गोपीगणों के साथ यमुनातट का दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण, रास-विहार के लिये मनोहर वृन्दावन में आये । श्रीहरि के वरदान से वृन्दावन की ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब की सब ब्रजाङ्गना होकर, एक यूथ के रूप में संघटित हो, रासगोष्ठी में सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियों का समूह विचित्र कान्ति से सुशोभित था । उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावन में विहार करने लगे । कदम्ब–वृक्षों से आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तट पर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थान को सुगन्धपूर्ण कर रही थी । वंशीवट उस सुन्दर पुलिन की

रमणीयता को बढ़ा रहा था। रास के श्रम से थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधा के साथ आकर बैठे।

उस समय गोपाङ्गनाओं के साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँति के वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे। गोप- सुन्दरियाँ श्रीहरि को आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं।

कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं । राजन्! कुछ गोपियों ने क्रमशः मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरों के साथ गान किया । नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं । कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिका की श्रेणी में आती थीं । उन सबके मन श्रीकृष्ण में लगे थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभावसे गोविन्द- की सेवा करती थीं।

कोई श्रीकृष्ण के साथ गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरि के साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ पैरों में नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरों की झंकार के साथ-साथ श्रीकृष्ण के अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्ण को दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती थीं ॥ १-१३ ॥

इस प्रकार परम मनोहर वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसर का तिलक धारण किये, गोपियों के साथ वृन्दावनमें विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधर की बाँसुरी के साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही मृदङ्ग बजाती हुई भगवान्‌ के गुण गाती थीं।

कुछ श्रीहरि के सामने खड़ी हो मधुर स्वर से खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी लताके नीचे चंग बजाती हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं । वे भूतल पर सांसारिक सुख को सर्वथा भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपों में श्रीकृष्ण के हाथ को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थीं ।

किन्हीं गोपियों के हार लता – जाल से उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थल का स्पर्श करते हुए उन हारों को लता–जालों से पृथक् कर देते थे। गोप सुन्दरियों की नासिका में जो नकबेसरें थीं, उनमें मोती की लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं। उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर स्वयं सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधव के चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूल में से आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं। अहो ! उनका कैसा महान् तप था ! कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दर के कपोलोंपर अपनी दो अँगुलियों से धीरे-धीरे छूतीं और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं । कदम्ब वृक्षों के नीचे पृथक्-पृथक् सभी गोपाङ्गनाओं के साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा था ॥ ०१ – २१ ॥

 

.............शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता”  पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 24)



रविवार, 9 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 08)

 ।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 08)

 

विचार के द्वारा यह अनुभव करें कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है । बचपन में हमारा शरीर जैसा था, वैसा आज नहीं है और जैसा आज है, वैसा आगे नहीं रहेगा, पर हम स्वयं वही हैं, जो बचपन में थे । तात्पर्य है कि शरीर तो बदल गया, पर हम नहीं बदले । अतः शरीर हमारा साथी नहीं है । हम निरन्तर रहते हैं, पर शरीर निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत निरन्तर मिटता रहता है । इस विवेक को महत्व देने से तत्त्वज्ञान हो जायगा अर्थात् हमारी आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी । इसका नाम ज्ञानयोगहै ।

 

जब इच्छाओं को मिटाने में अथवा आवश्यकता की पूर्ति करने में अपनी शक्ति काम नहीं करती और साधक का यह विश्वास होता है कि केवल भगवान् ही अपने हैं और उनकी शक्ति से ही मेरी आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, तब वह व्याकुल होकर भगवान्‌ को पुकारता है, प्रार्थना करता है । भगवान्‌ को पुकारने से उसकी इच्छाएँ मिट जाती हैं । इसका नाम भक्तियोगहै ।

 

संसार की सत्ता मानकर उसको महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही जो अप्राप्त है, वह संसार प्राप्त दीखने लग गया और जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्व अप्राप्त दीखने लग गया । इसी कारण संसार की भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्मा की भी इच्छा (आवश्यकता) उत्पन्न हो गयी । अतः साधक को कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधन से संसार की इच्छा को सर्वथा मिटाना है । संसार की इच्छा सर्वथा मिटते ही संसारकी सत्ता, महत्ता तथा सम्बन्ध नहीं रहेगा और जिनके हम अंश हैं, उन नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जायगा । फिर कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहेगा अर्थात् मनुष्यजन्म की पूर्णता हो जायगी ।

 

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 07)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 07)

 

हम नया-नया पकड़ते रहते हैं और भगवान् छुड़ाते रहते हैं ! यह भगवान्‌ की अत्यन्त कृपालुता है ! वे हमारा क्रियात्मक आवाहन करते हैं कि तुम संसार में न फँसकर मेरी तरफ चले आओ । अगर हम संसार को पकड़ना छोड़ दें तो महान् आनन्द मिल जायगा । जब कभी हमें शान्ति मिलेगी तो वह कामनाओं के त्याग से ही मिलेगी‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता १२ । १२) ।

 

दूसरों की सेवा करने से बड़ी सुगमता से इच्छा का त्याग होता है । गरीब, अपाहिज, बीमार, बालक, विधवा, गाय आदि की सेवा करनेसे इच्छाएँ मिटती हैं । एक साधु कहते थे कि जब मेरा विवाह हुआ था, एक दिन मेरे को एक आम मिला । पर मैंने वह आम अपनी स्त्री को दे दिया । इससे मेरे भीतर यह विचार उठा कि वह आम मैं खुद भी खा सकता था, पर मैंने खुद न खाकर स्त्रीको क्यों दिया ? इससे मेरेको यह शिक्षा मिली कि दूसरे को सुख पहुँचानेसे अपने सुखकी इच्छा मिटती है । इसका नाम कर्मयोगहै । संसार की इच्छा शरीर की प्रधानता से होती है । अतः विवेक-विचारपूर्वक शरीर के द्वारा दूसरों की सेवा करने से, दूसरों को सुख पहुँचाने से इच्छा सुगमतापूर्वक मिट जाती है । सृष्टि की रचना ही इस ढंग से हुई है कि एक-दूसरेको सुख पहुँचाने से, सेवा करने से कल्याण की प्राप्ति हो जाती है‒‘परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ (गीता ३ । ११) । शरीर संसार से ही पैदा हुआ है, संसा रसे ही पला है, संसार से ही शिक्षित हुआ है, संसार में ही रहता है और संसार में ही लीन हो जाता है अर्थात् संसार के सिवाय शरीर की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अतः संसार से मिले हुएको ईमानदारी के साथ संसार की सेवा में अर्पित कर दें । जो कुछ करें, संसार के हित के लिये ही करें । केवल संसार के हित का ही चिन्तन करें, हित का ही भाव रखें, साथमें अपने आराम, मान-बड़ाई, सुख-सुविधा आदिकी इच्छा न रखें तो परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता १२ । ४) ।

 

दूसरों को सुख पहुँचाने की अपेक्षा भी किसी को दुःख न पहुँचाना बहुत ऊँची सेवा है । सुख पहुँचाने से सीमित सेवा होती है, पर दुःख न पहुँचाने से असीम सेवा होती है । भलाई करने से ऊपर से भलाई होती है, पर बुराई न करने से भीतर से भलाई अंकुरित होती है । बुराई का त्याग करने के लिये तीन बातों का पालन आवश्यक है‒(१) किसी को बुरा नहीं समझें (२) किसी का बुरा नहीं चाहें और (३) किसी का बुरा नहीं करें । इस प्रकार बुराई का सर्वथा त्याग करने से हमारी वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी और मनुष्यजीवन सफल हो जायगा ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



कामना और आवश्यकता (पोस्ट 06)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता (पोस्ट 06)

 

भोग और संग्रह का, शरीर का त्याग तो अपने-आप हो रहा है । जैसे बालकपना चला गया, ऐसे ही जवानी भी चली जायगी, वृद्धावस्था भी चली जायगी, व्यक्ति भी चले जायँगे, पदार्थ भी चले जायेंगे । केवल उनकी इच्छा का त्याग करना है, उनको अस्वीकार करना है । परन्तु परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं । वे हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं हैं । परमात्मा को मानें तो भी वे हैं, न मानें तो भी वे हैं, स्वीकार करें तो भी वे हैं, अस्वीकार करें तो भी वे हैं । परन्तु संसार हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर करता है । संसार को स्वीकार करें तो वह है, अस्वीकार करें तो वह नहीं है । अगर संसार मनुष्य की स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर नहीं होता तो फिर कोई भी मनुष्य संसार से असंग नहीं हो सकता, साधु नहीं बन सकता । संसार निरन्तर अलग हो रहा है और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । केवल संसार की इच्छा का त्याग करना है और परमात्मा की आवश्यकता का अनुभव करना है । फिर संसार का त्याग और परमात्मा की प्राप्ति स्वतः-सिद्ध है ।

 

किसी की भी ताकत नहीं है कि वह शरीर-संसार को अपने साथ रख सके अथवा खुद उनके साथ रह सके । न हम उनके साथ रह सकते हैं, न वे हमारे साथ रह सकते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं हैं । संसार का कोई भी सुख सदा नहीं रहता; क्योंकि वह सुख हमारा नहीं है । उसकी इच्छा का त्याग करना ही पड़ेगा । संसार को सत्ता भी हमने ही दी है‒‘ययेदं धार्यते जगत् (गीता ७ । ५) । वास्तव में संसार की सत्ता है नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः (गीता २ । १६) । संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है । हमें वहम होता है कि हम जी रहे हैं, पर वास्तव में हम मर रहे हैं । मान लें, हमारी कुल आयु अस्सी वर्ष की है और उसमें से बीस वर्ष बीत गये तो अब हमारी आयु अस्सी वर्षकी नहीं रही, प्रत्युत साठ वर्ष की रह गयी । हम सोचते हैं कि हम इतने वर्ष बड़े हो गये हैं पर वास्तव में छोटे हो गये हैं । जितनी उम्र बीत रही है, उतनी ही मौत नजदीक आ रही है । जितने वर्ष बीत गये, उतने तो हम मर ही गये । अतः जो निरन्तर छूट रहा है, उसको ही छोड़ना है और जो निरन्तर विद्यमान है, उसको ही प्राप्त करना है ।

 

हमने जिद कर ली है कि हम संसार को पकड़ेंगे, छोड़ेंगे नहीं तो भगवान्‌ ने भी जिद कर ली है कि मैं छुड़ा दूँगा, रहने दूँगा नहीं । हम बालकपना पकड़ते हैं तो भगवान् उसको नहीं रहने देते, हम जवानी पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम वृद्धावस्था पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम धनवत्ता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम नीरोगता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 05)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 05)

 

साधक अधिक-से-अधिक अपने मन को परमात्मा में लगाता है । मन तो प्रकृति का अंश होनेसे जड़ है और परमात्मा चेतन हैं । अतः मन परमात्मा में कैसे लगेगा ? जड़ तो जड़ में ही लगेगा, चेतन में कैसे लगेगा ? वास्तव में स्वयं (चेतन) ही परमात्मा में लगता है, मन नहीं लगता । जीव का स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसका मन लगता है । संसा रमें मन लगाने से वह संसार में लग गया । जब वह परमात्मा में मन लगाता है, तब मन तो परमात्मा में नहीं लगता, पर स्वयं परमात्मा में लग जाता है । मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगानेसे मन विलीन हो जाता है, खत्म हो जाता है । श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं

 

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।

मामनुस्मरतश्चित्तं   मव्येव    प्रविलीयते

                                                 (११ । १४ । २७)

 

विषयों का चिन्तन करने से मन विषयों में फँस जाता है और मेरा स्मरण करनेसे मन मेरे में विलीन हो जाता है अर्थात् मन की सत्ता नहीं रहती ।

 

कामना की पूर्ति में तो भविष्य है, पर आवश्यकता की पूर्ति में भविष्य नहीं है । कारण कि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, पर परमात्मा सदा सब जगह विद्यमान हैं । अनुभव में न आये तो भी आँखें मीचकर, अन्धे होकर यह मान लें कि परमात्मा सब जगह मौजूद हैं‒‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च (गीता १३ । १५) वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूपमें भी वे ही हैं ।इस प्रकार सब जगह, सब समय, सब वस्तुओं में, सब व्यक्तियों में सब क्रियाओं में सब अवस्थाओं में, सब परिस्थितियों में परमात्मा को देखते रहने से इच्छा नष्ट हो जायगी और आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी ।

 

शरीर और संसार एक ही जातिके हैं

 

छिति जल पावक गगन समीरा ।

पंच रचित अति अधम सरीरा ॥

                            (मानस, कि॰ ११ । २)

 

शरीर हमारे साथ एक क्षण भी नहीं रहता । यह निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । परन्तु भगवान् निरन्तर हमारे हृदय में विराजमान रहते हैं‒‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता १३ । १७) सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः (गीता १५ । १५) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति (गीता १८ । ६१) । तात्पर्य है कि हमें जिसका त्याग करना है, उसका निरन्तर त्याग हो रहा है और जिसको प्राप्त करना है, वह निरन्तर प्राप्त हो रहा है । केवल भोग भोगना और संग्रह करनाइन दो इच्छाओं का हमें त्याग करना है । ये दो इच्छाएँ ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधक हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे

 



कामना और आवश्यकता (पोस्ट 04)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 04)

 

हम गृहस्थ का त्याग कर दें, रुपयों का त्याग कर दें शरीर का त्याग कर दें तो आवश्यकता की पूर्ति हो जायगीऐसी बात नहीं है । आवश्यकता की पूर्ति इनकी इच्छा का त्याग करने से होगी । गृहस्थ बना रहे, रुपये बने रहें, शरीर बना रहे, मान-बड़ाई बनी रहेयह असम्भव है । असम्भव की इच्छा कभी पूरी होगी ही नहीं, प्रत्युत इच्छा करते हुए मर जायँगे और जन्म-मरण के चक्कर में वैसे ही पड़े रहेंगे । इच्छा की कभी पूर्ति नहीं होगी और आवश्यकता का कभी त्याग नहीं होगा । कारण कि इच्छा शरीर (जड़) को लेकर है और उसका विषय नाशवान् है तथा आवश्यकता स्वयँ (चेतन) को लेकर है और उसका विषय अविनाशी है । अतः चाहे इच्छा का त्याग कर दें तो योग सिद्ध हो जायगा‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् और चाहे आवश्यकता की पूर्ति कर लें तो योग सिद्ध हो जायगा‒‘समत्वं योग उच्यते । जड़ता का त्याग भी योग है और समता की प्राप्ति भी योग है । जड़ता के त्याग से चिन्मयता की प्राप्ति हो जायगी और चिन्मयता की प्राप्ति से जड़ता का त्याग हो जायगा । दोनों एक साथ कभी रहेंगे नहीं ।

 

जैसे पानी से भरा हुआ घड़ा हो तो उसको खाली करना है और उसमें आकाश भरना हैये दो काम दीखते हैं । पर वास्तवमें दो काम नहीं हैं प्रत्युत एक ही काम हैघडे़ को खाली करना । घडे़ में से पानी निकाल दें तो आकाश अपने-आप भर जायगा । ऐसे ही संसार की कामना का त्याग करना और परमात्मा की आवश्यकता पूरी करनाये दो काम नहीं हैं । संसार की कामना का त्याग कर दें तो परमात्मा की आवश्यकता अपने-आप पूरी हो जायगी । केवल संसार की इच्छा से ही परमात्मा अप्राप्त हो रहे हैं ।

 

 जीव, जगत् और परमात्माये तीन ही वस्तुएँ हैं । जीव क्या है ? मैं जीव हूँ । जगत् क्या है ? यह जो दीख रहा है, यह जगत् है । परमात्मा क्या है ? जो जीव और जगत् दोनों का मालिक है, वह परमात्मा है । जीव और जगत्‌ का तो विचार होता है, पर परमात्मा का विचार नहीं होता, प्रत्युत विश्वास होता है । कारण कि विचार का विषय वह होता है, जिसके विषय में हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते । जिसके विषय में कुछ नहीं जानते, उसपर विचार नहीं चलता । उसपर तो विश्वास ही किया जाता है । अतः विचार करके जगत्‌ का त्याग करना है और श्रद्धा-विश्वास करके परमात्मा को स्वीकार करना है । जड़ता का त्याग करने में कोई भी परतन्त्र नहीं है; क्योंकि जड़ता विजातीय है ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...