मंगलवार, 24 जनवरी 2023

“ईशस्य हि वशे लोको... ..."

|| जय श्रीहरि ||

जैसे कठपुतली, नचानेवाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है ॥

“ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥“

….श्रीमद्भागवत १|६|७


सोमवार, 23 जनवरी 2023

मूर्ति पूजा (पोस्ट 02)

 श्री परमात्मने नम:

मन्दिर, मूर्ति या ग्रन्थ तो उपासना के साधन हैं। एकबार भारत में मैं एक महात्मा के पास जाकर वेद, बाइबल, कुरान आदिकी बातें करने लगा। पास ही एक पञ्चांग पड़ा हुआ था। महात्मा ने मुझसे कहा, ‘इसे जोरसे दबाओ,’ मैने उसे खूब दबाया। वे आश्चर्य से बोले कि, इसमें तो कई इंच जल बरसने का भविष्य है, परन्तु तुम्हारे इतना दबाने से तो जलकी एक बूंद भी नहीं निकली ।’ मैंने कहा, महाराज ! यह पञ्चाङ्ग जड़ पुस्तक है । इसपर उन्होंने कहा, ‘इसी तरह जिस मूर्ति या पुस्तक को तुम मानते हो, वह स्वयं कुछ नहीं करती परन्तु इष्ट मार्ग बतलाने में सहायक होती है।’ ईश्वररूप होजाना ही हिदुओंका अन्तिम लक्ष्य है। वेद कहते हैं कि बाह्य उपचारों से पूजा करना उन्नति का पहला सोपान है, प्रार्थना या भक्ति दूसरा और ईश्वर में तन्मय हो जाना तीसरा सोपान है । मूर्तिपूजक मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करता है--‘हे प्रभो ! मैं तुम्हें सूर्य चन्द्रमा या तारागणों का प्रकाश कैसे दिखलाऊं? वे सब तो तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशमान हैं ।’ मूर्तिपूजक दूसरे साधनों से पूजा करनेवालेकी निन्दा नहीं करता । दूसरी सीढ़ी पर चढ़े हुए मनुष्य का पहली सीढ़ी के मनुष्य की निन्दा करना, एक युवक का बच्चे को देखकर उसकी हंसी उड़ाने के बराबर है !
मूर्ति का दर्शन करते ही यदि मनमें पवित्र भाव उत्पन्न होते हों तो मूर्ति-दर्शनमें पाप कैसा? दूसरे सोपानपर पहुंचा हुआ हिन्दू साधक पहले सोपानपर स्थित समाजकी निन्दा नहीं करता, वह यह नहीं समझता कि मैं पहले बुरा कर्म करता था। सत्यकी अर्धप्रकाशित कल्पनाको पारकर प्रकाश में पहुंचना ही हिन्दुका लक्ष्य है, वह अपनेको पापी नहीं समझता। हिन्दुओंका विश्वास है कि जीवमात्र पुण्यमय-पुण्यस्वरूप परमात्मा के अनन्त रूप हैं। जंगली जातियों के धर्म मार्ग से लेकर अद्वैत वेदान्ततक सभी मार्ग एक ही केन्द्रके समीप पहुंचते हैं। देश, काल और पात्रानुसार सभी मानवीय चेष्टाएं उस एक सत्यका पता लगाने के लिये ही हैं। कोई पहले कोई पीछे सभी उसी सत्यको प्राप्त करेंगे। हिन्दुओंका हठ नहीं है कि सब कोई हमारे विशिष्ट मतोंको ही मानें। दूसरे लोग चाहते हैं कि सब एक ही नापका अंगरखा पहनें, चाहे वह शरीरपर ठीक नहीं बैठता हो, परन्तु हिन्दु ऐसा नहीं समझते। प्रतिमा या पुस्तक मूलस्वरूपको दिखानेके संकेतमात्र हैं, यदि कोई उनका उपयोग न करे तो हिन्दु उसे मूर्ख या पापी नहीं समझते। जैसे एक सूर्यकी किरणें अनेक रंगोंके कांचोंमें भिन्न भिन्न वर्णकी दिखायी देती है, वैसे ही भिन्न भिन्न धर्म-सम्प्रदाय भी एक ही केन्द्र के भिन्न भिन्न मार्ग हैं-
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
यद्याद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव च।
तत्तदेवावगच्छ्त्त्वं मम तेजोंशसम्भवम्‌॥
‘हे अर्जुन! मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण विश्व सूत्रमें सूत्रके मणियोंकी भांति मुझमें गुथा है। जिन जिन वस्तुओंमें विभूति, कान्ति और बल है, उन उन वस्तुओंको मेरे ही तेजसे उत्पन्न हुई जान।’
अनेक युगों की परम्परासे निर्मित इस हिन्दु धर्म ने मानव जाति पर अनन्त उपकार किये हैं। हिन्दुओंके लिये पर-मत-असहिष्णुता कोई चीज ही नहीं है। ‘अविरोधी तु यो धर्मो सधर्मो मुनिपुंगव।’ यह हिन्दुओंका सिद्धान्त है। वे यह नहीं कहते कि मुक्ति हिन्दुओंको ही मिलेगी, शेष सब नरकमें जायंगे। महर्षि व्यासने कहा है कि भिन्न जाति और भिन्न धर्मके ऐसे बहुतसे लोग मैने देखे हैं जो पूर्णताको प्राप्त हो चुके थे।


( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )
..........००३. ०८.फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७५७)


मूर्त्ति पूजा (पोस्ट 01)

श्री परमात्मने नम:


 इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म  का पागलपन उन्नति में बाधक होता है परन्तु अन्धश्रद्धा उससे भी भयानक है ।  ईसाईयों को प्रार्थना के लिये गिरजे की क्या आवश्यकता है ?  क्रास के चिन्ह में पवित्रता कहां से आगयी ?  प्रार्थना करते समय आंखें क्यों मूंद लेनी चाहिये ?  परमेश्‍वर के गुणोंका वर्णन करते समय ‘प्राटेष्टण्ट’ ईसाई मूर्तियों की कल्पना क्यों करते हैं?  ‘कैथलिक’ मत माननेवालों को मूर्तियों की क्यों आवश्यकता हुई ?  बन्धुओं !  बात यह है कि जैसे श्‍वासोच्छ्‌वास के बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही गुणों की किसी तरह की मनोमयी मूर्ति बनाये बिना उनका चिन्तन होना भी असम्भव है।  हमें सभी को कभी यह अनुभव नहीं हो सकता कि हमारा चित्त निराकार में लीन हो गय़ा है, क्योंकि हमें जड़विषय और गुणों की मिश्र अवस्था में देखनेका अभ्यास पड़ गया है।  गुणोंके बिना जड़ विषय और जड़ विषयों के बिना गुणों का चिन्तन नहीं किया जा सकता, इसी तत्त्व को समझकर हिन्दुओं ने गुणों का मूर्तिमय दृश्य स्वरूप बनाया है।  हमारी मूर्तियां हमें ईश्‍वर के गुणों का स्मरण कराने वाले चिन्हमात्र हैं।  चित्तकी चञ्चलता मिटकर वह सद्‌गुणों की मूर्ति परमात्मा में तल्लीन हो जाय, इसीलिये मूर्तियां बनीं हैं।  हिन्दु इस बातको जानते हैं कि पत्थरकी मूर्ति ईश्‍वर नहीं है, वे उसमें ईश्‍वर की भावना करते हैं ।  इसीसे वे पेड़, पत्ती, अग्नि, जल, पत्थर आदि समस्त दृश्य पदार्थों की पूजा किया करते हैं, वे पत्थर को नहीं पूजते, ईश्‍वरको पूजते हैं ।  आप मुखसे कहते हैं ‘हे परमात्मन्‌ !  तुम सर्वव्यापी हो ।’  परन्तु क्या आपने कभी इस बात का सचमुच अनुभव किया है ?  प्रार्थना करते समय आपके हृदय में क्या आकाश का अनन्त विस्तार या समुद्र की विशालता नहीं झलकती ?  यही ‘सर्वव्यापी’ परमात्मा का दृश्यस्वरूप है ।

 मूर्तिपूजा में मनुष्यस्वभाव के विरुद्ध क्या है ?  हमारे मन की रचना ही इसप्रकार की है कि वह किसी दृश्य पदार्थ की सहायताके बिना केवल गुणोंका चिन्तन नहीं कर सकता।  मस्जिद, गिरजा, क्रास, अग्नि, आकाश, समुद्र, आदि सभी दृश्यपदार्थ हैं, यदि हिदुओं ने इनकी जगह मूर्ति की सहज कल्पना कर ली तो क्या बुरा किया ?  निराकार की स्तुति करने वाले लोग मूर्तिपूजकों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, परन्तु उन्हें इस कल्पना का पता ही नहीं है कि मनुष्य भी ईश्‍वर हो सकता है।  वे बेचारे चार दीवारों की कोठरी में बन्द हैं।  अड़ोसी पड़ोसियों की सहायता करनेसे आगे अधिक दूरतक उनकी दृष्टि नहीं जाती ।

( लेखक: स्वामी विवेकानन्द )

शेष आगामी पोस्ट में ........

..........००३. ०८.  फाल्गुन कृ० ११ सं० १९८५.  कल्याण (पृ०७५७)


रविवार, 22 जनवरी 2023

जय श्री राम !

“कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग।।“

( सतयुग, त्रेता और द्वापरमें जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं )


शनिवार, 21 जनवरी 2023

सन्त वाणी

|| श्रीहरि: ||

जैसे ‘क्रिया’ अपनी नहीं है, ऐसे ही ‘पदार्थ’ भी अपने नहीं हैं । हम संसार में आये थे तो साथ में कुछ लाये नहीं थे, और जायँगे तो शरीर भी साथ नहीं जायगा । हमारे पास जो कुछ है, सब भगवान्‌ का दिया हुआ है । अतः क्रिया और पदार्थ‒दोनों को ही भगवान्‌ के अर्पण कर दो । एकनाथजी महाराज ने भागवत के एकादश स्कन्ध की जो टीका लिखी है, उसमें वर्णन आया है कि घर में झाड़ूसे फूस-कचरा इकट्ठा करके बाहर फेंके तो वह भी भगवान्‌ के अर्पण कर दे । वह भी भजन हो जायगा !

‒----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित  ‘बिन्दु में सिन्धु’ पुस्तक से


शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

सन्त-वाणी

|| श्रीहरि: ||

आपने भगवान्‌ के होते हुए भी अपने को भगवान्‌ का नहीं माना और संसार के नहीं होते हुए भी अपने को संसारका मान लिया, यह बहुत बड़ी भूल है । आप संसार का काम करो, पर भगवान्‌ के होकर करो । आप किसी बैंक, रेलवे, फैक्टरी आदि में काम करते हैं तो उसी के कर्मचारी कहलाने पर भी क्या आप पिता के नहीं होते ? क्या आप पिता को छोड़कर कर्मचारी होते हो ? इसी तरह आप संसारका कोई भी काम करो, अपनेको भगवान्‌ का मानते हुए ही करो । आप कैसे ही हों, हो भगवान्‌ के ही । भगवान् हमारे परमपिता हैं‒यह आप अभी-अभी स्वीकार कर लो । हम साक्षात् भगवान्‌ के बेटा-बेटी हैं । यह कोई नयी बात नहीं है । आप सदासे ही भगवान्‌के हो‒‘ईस्वर अंश जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । भगवान् भी कहते हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर॰ ८६ । २) । भगवान्‌ को आप चाहे जैसे मान लो, वे वैसे ही हैं, पर आप के भीतर सन्देह नहीं रहना चाहिये ।

अगर आप अपना कल्याण चाहते हो तो अपना सम्बन्ध भगवान्‌ से मानो और अपना समय भगवान्‌ को दो । समय देनेका तात्पर्य है‒हरेक काम भगवान्‌ के लिये करो ।

कोई पूछे कि आप कौन हो, तो आपके भीतर सबसे पहले यह बात आनी चाहिये कि मैं भगवान्‌ का हूँ । मैं भगवान्‌का हूँ‒यह घरके भीतर गड़ा हुआ धन है, जिसको न जानने के कारण आप गरीब होकर दुःख पा रहे हैं !
    
-----गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘बिन्दु में सिन्धु’ पुस्तक से


गुरुवार, 19 जनवरी 2023

सन्त वाणी

||श्रीहरि:||

अगर आप सुगमता से भगवत्प्राप्ति चाहते हैं तो मेरी प्रार्थना है कि आप ‘मैं भगवान्‌ का हूँ’‒-यह मान लें । यह ‘चुप साधन’ अथवा ‘मूक सत्संग’ से भी बढ़िया साधन है ! जैसे आपके घर की कन्या विवाह होने पर ‘मैं ससुराल की हूँ’‒यह मान लेती है, ऐसे आप ‘मैं भगवान्‌ का हूँ’‒यह मान लें । यह सबसे सुगम और सबसे बढ़िया साधन है । इसको भगवान्‌ ने सबसे अधिक गोपनीय साधन कहा है‒‘सर्वगुह्यतमम्’ (गीता १८ । ६४) । गीताभर में यह ‘सर्वगुह्यतमम्’ पद एक ही बार आया है । मैं हाथ जोड़कर प्रेम से कहता हूँ कि मेरी जानकारी में यह सबसे बढ़िया साधन है ।

आप जहाँ हैं, वहाँ ही अपने को भगवान्‌ का मान लो । चिन्ता बिल्कुल छोड़ दो । जो हमारा मालिक है, वह चिन्ता करे, मैं चिन्ता क्यों करूँ ?

चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा आनन्द ।
जायो सो  प्रतिपालसी,  रामदास  गोबिन्द ॥

वास्तव में आप बिल्कुल भगवान्‌ के ही हैं, पर आपने मान रखा है कि मैं अमुक देश, गाँव, मोहल्ले, घर आदि का हूँ । यह देश, गाँव, मोहल्ला, घर आपका नहीं है । आप यहाँ आये हो । इसलिये मेरी सम्मति यही है कि आप आज से ही यह स्वीकार कर लो कि ‘मैं भगवान्‌ का हूँ’ । हर समय भगवान्‌ के ही होकर रहो । भजन करो तो भगवान्‌ के होकर भजन करो । संसार के होकर भजन करते हो तो वह भजन बढ़िया नहीं होता ।

.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तक से


बुधवार, 11 जनवरी 2023

संसार कूप में पड़ा प्राणी

|| श्रीहरि ||

संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते |
करावालम्बं मम देहि विष्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ||

(जो मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त और विषयों की ज्वाला से संतप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कूप में मैं पड़ा हुआ हूँ | ‘हे मेरे मधुसूदन! हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!, मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये)

भव-कूप—यह एक पौराणिक रूपक है, और है सर्वथा परिपूर्ण | इस संसार के कूप में पडा प्राणी कूप-मण्डूक से भी अधिक अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त होरहा है | अहंता और ममता के घेरे में घिरा प्राणी—समस्त चराचर में परिव्याप्त एक ही आत्मतत्त्व है, इस परमसत्य की बात स्वप्न में भी नहीं सोच पाता |

कितना भयानक है यह संसार-कूप—यह सूखा कुआँ है | इस अंधकूप में जल का नाम नहीं है | इस दु:खमय संसार में जल-रस कहाँ है | जल तो रस है, जीवन है; किन्तु संसार में तो न सुख है, न जीवन है | यहाँ का सुख और जीवन—एक मिथ्या भ्रम है | सुख से सर्वथा रहित है, संसार और मृत्यु से ग्रस्त है—अनित्य है |

मनुष्य इस रसहीन सूखे कुँए में गिर रहा है | कालरूपी हाथी के भय से भागकर वह कुँए के मुखपर उगी लताओं को पकड़कर लटक गया है कुँए में | लेकिन कबतक लटका रहेगा वह ? उसके दुर्बल बाहु कबतक देह का भार सम्हाले रहेंगे | कुँएके ऊपर मदांध गज उसकी प्रतीक्षा कर रहा है –बाहर निकला और गज ने कुचल दिया पैरों से |

कुँए में ही गिर जाता--कूद जाता; किन्तु वहां तो महाविषधर फण उठाए फूत्कार कर रहा है | क्रुद्ध सर्प प्रस्तुत ही है की मनुष्य गिरे और उसके शरीर में पैंने दन्त तीक्ष्ण विष उँडेल दें | अभागा मनुष्य—वह देर तक लटका भी नहीं रह सकता | जिस लता को पकड़कर वह लटक रहा है, दो चूहे--काले और श्वेत रंग के दो चूहे उस लता को कुतरने में लगे हैं | वे उस लता को ही काट रहे हैं | लेकिन मूर्ख मानव को मुख फाड़े सिर पर और नीचे खादी मृत्यु दीखती ही कहाँ है | वह तो मग्न है | लता में लगे शहद के छत्ते से जो मधुबिंदु यदाकदा टपकपड़ते हैं, उन सीकरों को चाट लेने में ही वह अपने को कृतार्थ मान रहा है |

यह न रूपक है न कहानी है | यह तो जीवन है—संसार के रसहीन कूप में पड़े सभी प्राणी यही जीवन बिता रहे हैं | मृत्यु से चारों ओर से ग्रस्त यह जीवन—कालरूपी कराल हाथी कुचल देने की प्रतीक्षा में है इसे | मौतरूपी सर्प अपना फण फैलाए प्रस्तुत है | कहीं भी मनुष्य का मृत्यु से छुटकारा नहीं | जीवन के दिन—आयु की लता जो उसका सहारा है, कटती जारही है | दिन और रात्रिरूपी सफ़ेद तथा काले चूहे उसे कुतर रहे हैं | क्षण-क्षण आयु क्षीण हो रही है | इतने पर भी मनुष्य मोहान्ध हो रहा है | उसे मृत्यु दीखती नहीं | विषय-सुखरूपी मधुकण जो यदाकदा उसे प्राप्त होजाते हैं, उन्हीं में रम रहा है वह—उन्हीं को पाने की चिंता में व्यग्र है वह !

----------कल्याण, वर्ष ९०, अंक ११-नवम्बर,२०१६

#संसार कूप
#हे गोविन्द!
#हे माधव!


मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 04)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 04)

 

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन् ! आसुरि और शिव—दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्ण को देखा तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ ! समस्त गोपसुन्दरियों के देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्द में मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनों ने कहा ॥

दोनों बोले- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधि-देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है ।

देव ! आप परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् हैं । इन दिनों भूतल का भारी भार हरने और सत्पुरुषों का कल्याण करने के लिये अपने समस्त लोकों को पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं । अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्डल को भी अलंकृत करते हैं ।

गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार – लीला का विस्तार करनेवाले राधावल्लभ ! व्रजसुन्दरियों के मुख से अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओं के विकास के लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिका के वक्ष और कण्ठ को विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डल के पालक, व्रज- मण्डल के अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डल की भूमि के संरक्षक हैं * ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जन की-सी गम्भीर वाणी में मुनिसे बोले ॥

श्रीभगवान् ने कहा- तुम दोनों ने साठ हजार वर्षों तक निरपेक्षभाव से तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावना से रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम दोनों अपने मन के अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।।

शिव और आसुरि बोले- भूमन् ! आपको नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलों की संनिधि में सदा ही वृन्दावनके भीतर हमारा निवास हो । आपके चरण से भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों— श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥

श्रीनारद जी कहते हैं— राजन् ! तब भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरि मुनि मनोहर वृन्दावन में

वंशीवट के समीप रासमण्डल से मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिन पर निकुञ्ज के पास ही नित्य निवास करने लगे ।।

तदनन्तर श्रीकृष्ण ने जहाँ कमलपुष्पों के सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वन में गोपाङ्गनाओं के साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्ण ने छः महीने की रात बनायी । परंतु उस रासलीला में सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोद से पूर्ण रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदय की वेला में वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घर को लौटीं । श्रीनन्दनन्दन साक्षात् नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुर में जा पहुँचीं ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र का यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापों को हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथ पूरक तथा मङ्गल का धाम हैं साधारण लोगों को यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओं को मोक्ष देनेवाला है । राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २०-३८ ।।

.....................................................

*कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।

पुण्डरीकाक्ष गोविन्द गरुडध्वज ते नमः ||

जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।

दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥

अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षाद्

भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।

प्राप्तोऽसि नन्दभवने परतः परस्त्वं

कृत्वा हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥

अंशांशकांशककलाभिरुताभिरामं

वेशप्रपूर्णनिचयाभिरतीवयुक्तः ।

विश्वं विभर्षि रसरासमलङ्करोषि

वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥

गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश

वृन्दावनेश कृतनित्यविहारलील ।

राधापते व्रजवधूजनगीतकीर्ते

गोविन्द गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ।

श्रीमन्निकुञ्जलतिकाकुसुमाकरस्त्वं

श्रीराधिकाहृदयकण्ठविभूषणस्त्वम् ।

श्रीरासमण्डलपतिर्व्रजमण्डलेशो

ब्रह्माण्डमण्डलमहीपरिपालकोऽसि ॥

 

.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)

 



सोमवार, 19 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 03)


 ।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 03)

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् शिव, आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदय से ऐसा निश्चय करके वहाँ से चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शन के लिये व्रज – मण्डल में गये । वहाँ की भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस दिव्य भूमि का दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ।

उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथ में बेंत की छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं । उन द्वारपालिकाओं ने मार्ग में स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डल में जाने से रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाओं ने उन दोनों से कहा ॥ १ –४ ॥

द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावन को चारों ओर से घेरकर निरन्तर रासमण्डल की रक्षा कर रही हैं । इस कार्य में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने ही हमें नियुक्त किया है। इस एकान्त रासमण्डल में एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थान में गोपीयूथ के सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी हो तो इस मानसरोवर में स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूप की प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डल के भीतर जा सकते हो ॥ ५-७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओं के यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवर में स्नान करके, गोपी भाव को प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८ ॥

सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस रासमण्डल की मनोहरता बढ़ा रही थी । वह सुन्दर प्रदेश माधवी लता- समूहों से व्याप्त और कदम्बवृक्षों से आच्छादित था। वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमा की चाँदनी ने उसको प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकार की कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी । यमुनाजी की रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओं से रासमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी।

मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजी के जलस्पर्श से शीतल-मन्द वायु के बहने से हिलते हुए तरुपल्लवों द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियों से, प्राङ्गणों और खंभों की पंक्तियों से, फहराती हुई दिव्य पताकाओं से और सुवर्णमय कलशों से सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहों से सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गों से एवं भ्रमरों की गुंजारों और वाद्यों की मधुर ध्वनियों से व्याप्त रासमण्डल की शोभा देखते ही बनती थी ।

सहस्रदलकमलों की सुगन्ध से पूरित शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओर से उस स्थान को सुवासित कर रहा था। रास- मण्डल के निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी नायिका हंसगामिनी श्रीराधा से सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे । रास मण्डल के भीतर निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्ण का लावण्य करोड़ों कामदेवों को लज्जित करनेवाला था ।

हाथ में वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअङ्ग पर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न,कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी । मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथदान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे । ९–१९ ॥

 

....शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...