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मंगलवार, 24 जनवरी 2023
“ईशस्य हि वशे लोको... ..."
सोमवार, 23 जनवरी 2023
मूर्ति पूजा (पोस्ट 02)
श्री परमात्मने नम:
मूर्त्ति पूजा (पोस्ट 01)
रविवार, 22 जनवरी 2023
जय श्री राम !
शनिवार, 21 जनवरी 2023
सन्त वाणी
शुक्रवार, 20 जनवरी 2023
सन्त-वाणी
गुरुवार, 19 जनवरी 2023
सन्त वाणी
बुधवार, 11 जनवरी 2023
संसार कूप में पड़ा प्राणी
मंगलवार, 20 दिसंबर 2022
शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 04)
।।
श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।
शिव और आसुरि को गोपीरूप से
रासमण्डल में
श्रीकृष्ण का दर्शन
(पोस्ट 04)
श्रीनारद जी कहते हैं- राजन् ! आसुरि
और शिव—दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्ण को देखा तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ !
समस्त गोपसुन्दरियों के देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्द में मस्तक झुकाकर,
आनन्दविह्वल हुए उन दोनों ने कहा ॥
दोनों बोले- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण !
देवाधि-देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है ।
जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको
नमस्कार है ।
देव ! आप परिपूर्णतम साक्षात् भगवान्
हैं । इन दिनों भूतल का भारी भार हरने और सत्पुरुषों का कल्याण करने के लिये अपने
समस्त लोकों को पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में
तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं । अंशांश, अंश,
कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से
संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा
करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्डल को भी अलंकृत करते हैं ।
गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर !
वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार – लीला का विस्तार करनेवाले राधावल्लभ !
व्रजसुन्दरियों के मुख से अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी
जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओं के विकास के लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिका के
वक्ष और कण्ठ को विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डल के पालक,
व्रज- मण्डल के अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डल की भूमि के संरक्षक
हैं * ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब
श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जन की-सी
गम्भीर वाणी में मुनिसे बोले ॥
श्रीभगवान् ने कहा- तुम दोनों ने साठ
हजार वर्षों तक निरपेक्षभाव से तप किया है, इसीसे
तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा
सर्वत्र शत्रुभावना से रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम
दोनों अपने मन के अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।।
शिव और आसुरि बोले- भूमन् ! आपको
नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलों की संनिधि में सदा ही वृन्दावनके
भीतर हमारा निवास हो । आपके चरण से भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है;
अतः आप दोनों— श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥
श्रीनारद जी कहते हैं— राजन् ! तब
भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर
उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरि मुनि मनोहर वृन्दावन में
वंशीवट के समीप रासमण्डल से मण्डित
कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिन पर निकुञ्ज के पास ही नित्य निवास करने लगे ।।
तदनन्तर श्रीकृष्ण ने जहाँ कमलपुष्पों
के सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे,
उस पद्माकर वन में गोपाङ्गनाओं के साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की।
मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्ण ने छः महीने की रात बनायी । परंतु उस रासलीला में
सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोद से पूर्ण रात्रि एक क्षण के समान
बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदय की वेला में वे सभी
व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घर को लौटीं । श्रीनन्दनन्दन
साक्षात् नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुर में
जा पहुँचीं ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र का यह
मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापों को
हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथ पूरक
तथा मङ्गल का धाम हैं साधारण लोगों को यह धर्म, अर्थ और काम
प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओं को मोक्ष देनेवाला है । राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने
तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २०-३८ ।।
.....................................................
*कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।
पुण्डरीकाक्ष
गोविन्द गरुडध्वज ते नमः ||
जनार्दन
जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।
दामोदर
हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥
अद्यैव
देव परिपूर्णतमस्तु साक्षाद्
भूभूरिभारहरणाय
सतां शुभाय ।
प्राप्तोऽसि
नन्दभवने परतः परस्त्वं
कृत्वा
हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥
अंशांशकांशककलाभिरुताभिरामं
वेशप्रपूर्णनिचयाभिरतीवयुक्तः
।
विश्वं
विभर्षि रसरासमलङ्करोषि
वृन्दावनं
च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥
गोलोकनाथ
गिरिराजपते परेश
वृन्दावनेश
कृतनित्यविहारलील ।
राधापते
व्रजवधूजनगीतकीर्ते
गोविन्द
गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ।
श्रीमन्निकुञ्जलतिकाकुसुमाकरस्त्वं
श्रीराधिकाहृदयकण्ठविभूषणस्त्वम्
।
श्रीरासमण्डलपतिर्व्रजमण्डलेशो
ब्रह्माण्डमण्डलमहीपरिपालकोऽसि
॥
.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260 (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)
सोमवार, 19 दिसंबर 2022
शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 03)
।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।
शिव और आसुरि को गोपीरूप से
रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन
(पोस्ट 03)
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान्
शिव, आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदय से ऐसा निश्चय करके वहाँ से चले। वे दोनों
श्रीकृष्णदर्शन के लिये व्रज – मण्डल में गये । वहाँ की भूमि दिव्य वृक्षों,
लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस
दिव्य भूमि का दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ।
उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी
गोप- सुन्दरियाँ हाथ में बेंत की छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं । उन
द्वारपालिकाओं ने मार्ग में स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डल में जाने से
रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शन की
लालसा से यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी
द्वारपालिकाओं ने उन दोनों से कहा ॥ १ –४ ॥
द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम
कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावन को चारों ओर से घेरकर निरन्तर रासमण्डल की रक्षा
कर रही हैं । इस कार्य में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने ही हमें नियुक्त किया है। इस
एकान्त रासमण्डल में एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थान में
गोपीयूथ के सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके
अभिलाषी हो तो इस मानसरोवर में स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूप की
प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डल के
भीतर जा सकते हो ॥ ५-७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओं के
यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवर में स्नान करके, गोपी भाव को प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८
॥
सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस
रासमण्डल की मनोहरता बढ़ा रही थी । वह सुन्दर प्रदेश माधवी लता- समूहों से व्याप्त
और कदम्बवृक्षों से आच्छादित था। वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमा की चाँदनी ने उसको
प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकार की कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी ।
यमुनाजी की रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओं से रासमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी।
मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे
थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजी के जलस्पर्श से शीतल-मन्द वायु के बहने से हिलते
हुए तरुपल्लवों द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियों से, प्राङ्गणों और खंभों की पंक्तियों से, फहराती हुई
दिव्य पताकाओं से और सुवर्णमय कलशों से सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहों से
सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गों से एवं भ्रमरों की गुंजारों और वाद्यों की मधुर
ध्वनियों से व्याप्त रासमण्डल की शोभा देखते ही बनती थी ।
सहस्रदलकमलों की सुगन्ध से पूरित शीतल,
मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओर से उस स्थान को सुवासित कर रहा था।
रास- मण्डल के निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी
नायिका हंसगामिनी श्रीराधा से सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे । रास मण्डल के भीतर
निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्ण का लावण्य करोड़ों
कामदेवों को लज्जित करनेवाला था ।
हाथ में वंशी और बेंत लिये तथा
श्रीअङ्ग पर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें
श्रीवत्सका चिह्न,कौस्तुभमणि तथा वनमाला
शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा
बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की
कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी । मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन
मनोरथदान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे । ९–१९ ॥
....शेष आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260 (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)
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