गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

श्रीकृष्णाय वयं नुम:


नाथ ! 

आप स्वरूप से निष्क्रिय होनेपर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवाले पर भी समस्त अभिलषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 

तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
     स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद
     सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥

(श्रीमद्भागवत ३|२१|२१)


बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धाँ सत्यमुपासते तेऽर्च्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न, आपूर्य्यमाणपक्षमापूर्य्यमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासानुदड्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वेद्युतं, तान्‌ वैद्युतान्‌ पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्‌ गमयति ते ते ब्रह्मलोकेषु पराः। परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः॥’
………( बृहदारण्य उ० २ । ६ )

‘जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्य में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चि से दिन रूप होते हैं, दिन से शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्ष से उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायण से देवलोकरूप होते हैं, देवलोक से आदित्यरूप होते हैं, आदित्य से विद्युतरूप होते हैं, यहां से अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। वहां अनन्त वर्षों तक वह रहते हैं, उनको वापस नहीं लौटना पड़ता ।’ यह देवयान मार्ग है । एवं--

‘अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिँ रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासान्‌ दक्षिणाऽऽदित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाञ्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताँस्तत्र देवा यथा सोमँराजाननाप्यायस्वापक्षीयस्त्वेत्येवमनाँस्तत्र भक्षयन्ति.....।’
……..( बृहदारण्यक उ० २ । ६ )

जो सकाम भाव से यज्ञ-दान तथा तपद्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रिरूप होते हैं, रात्रि से कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, दक्षिणायन से पितृलोक को और वहां से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं। चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं...और देवता उनको भक्षण करते हैं।’ यहां ‘अन्न’ होने और ‘भक्षण’ करनेसे यह मतलब है कि वे देवताओं की खाद्य वस्तु में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अथवा ‘अन्न’ शब्द से उन जीवों को देवताओं का आश्रयी समझना चाहिये। नौकर को भी अन्न कहते हैं, सेवा करने वाले पशुओं को भी अन्न कहते हैं-- "पशवः अन्नम्‌" आदि वाक्यों से यह सिद्ध है। वे देवताओं के नौकर होने से अपने सुखों से वञ्चित नहीं हो सकते। यह पितृयान मार्ग है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

भगवान्‌ कहते हैं-
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल षण्मासा उत्तरायणम‌्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्‌।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
.....................( गीता ८ । २४ से २६ )

‘दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता, शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है। उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात्‌ परमेश्वर की उपासना से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।’ तथा जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता, रात्रि अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्गसे मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। जगत्‌ के यह शुक्ल और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमेंसे एक ( शुक्ल मार्ग ) द्वारा गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे ( कृष्ण मार्ग ) के द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात्‌ जन्म मृत्युको प्राप्त होता है।

शुक्ल-अर्चि या देवयान मार्गसे गये हुए योगी नहीं लौटते और कृष्ण-धूम या पितृयान मार्गसे गये हुए योगियों को लौटना पड़ता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 04)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


तीन प्रकारकी गति

जब साधक ध्यान करने बैठता है--कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्त से परमात्मा का चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्व के अभ्यास के कारण उसे प्रायः उन्हीं कार्यों या भावों की स्फुरणा होती है, जैसे कार्यों में वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार बार मन को विषयोंसे हटाने का प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चाताप भी करता है तथापि पूर्व का अभ्यास उसकी वृत्तियों को सदाके कार्यों की ओर खींच ले जाता है। जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मन की साधना को सहसा अपनी इच्छानुसार नहीं बना सकता, तब जीवनभर के अभ्यास के विरुद्ध मृत्युकाल में हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान्‌ भी कहते हैं--सदा तद्भावभावितः।’

यदि ऐसा ही होता तो शनैः शनैः उपरामताको प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मन को परमात्मा में लगाने की आज्ञा भगवान्‌ कैसे देते? ( गीता ६ । २५ )। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है--जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनि में जाना पड़ता है !

ऊर्ध्वगति के दो भेद-इस ऊर्ध्व गति के दो भेद हैं। एक ऊर्ध्व गति से वापस लौटकर आना पड़ता है। इसी को गीता में शुक्लकृष्ण गति और उपनिषदों में देवयान पितॄयान कहा है। सकाम भावसे वेदोक्त कर्म करने वाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूममार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होकर वहां दिव्य देवताओं के विशाल भोग भोगकर , पुण्य क्षीण होते ही पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं और निष्कामभाव से भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले-परोक्षभाव से परमेश्वर को जानने वाले योगीजन क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होजाते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 03)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



तीन प्रकारकी गति

यहां यह प्रश्न होता है कि यदि वासना के अनुसार ही अच्छे बुरे लोकों की प्राप्ति होती है तो कोई मनुष्य अशुभ वासना ही क्यों करेगा ? सभी कोई उत्तम लोकों को पाने के लिये उत्तम वासना ही करेंगे ? इसका उत्तर यह है कि अन्तकाल की वासना या कामना अपने आप नहीं होती, वह प्रायः उसके तात्कालिक कर्मों के अनुसार ही हुआ करती है। आयु के शेष काल में या अन्तकाल के समय मनुष्य जैसे कर्मों में लिप्त रहता है, करीब करीब उन्हीं के अनुसार उसकी मरण-काल की वासना होती है। मृत्यु का कोई पता नहीं, कब आ जाय, इससे मनुष्य को सदा सर्वदा उत्तम कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। सर्वदा शुभ कर्मों में लगे रहनेसे वासना भी शुद्ध रहेगी, सर्वथा शुद्ध वासना रहना ही सत्त्वगुणी स्थिति है क्योंकि देह के सभी द्वारों में चेतनता और बोध-शक्ति का उत्पन्न होना ही सत्त्वगुण की वृद्धि का लक्ष्ण है ( गीता १४ । ११ ) और इस स्थिति में होनेवाली मृत्यु ही ऊर्ध्वलोकों की प्राप्ति का कारण है।
जो लोग ऐसा समझते हैं कि अन्तकालमें सात्त्विक वासना कर ली जायगी, अभी से उसकी क्या आवश्यकता है ? वे बड़ी भूल करते हैं । अन्तकाल में वही वासना होगी, जैसी पहले से होती रही होगी ।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:  

जीव अपनी पूर्वकी योनिसे, योनिके अनुसार साधनोंद्वारा प्रारब्ध कर्मका फल भोगनेके लिये पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मराशि के अनन्त संस्कारोंको साथ लेकर सूक्ष्म शरीरसहित परवश नयी योनिमें आता है। गर्भसे पैदा होनेवाला जीव अपनी योनिका गर्भकाल पूरा होनेपर प्रसूतिरूप अपान वायुकी प्रेरणासे बाहर निकलता है और प्राण निकलनेपर सूक्ष्म शरीर और शुभाशुभ कर्मराशिके संस्कारोंसहित कर्मानुसार भिन्न भिन्न साधनों और मार्गों द्वारा मरणकाल की कर्मजन्य वासना के अनुसार परवशता से भिन्न भिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। संक्षेपमें यही सिद्धान्त है। परन्तु इतने शब्दोंसे ही यह बात ठीक समझमें नहीं आती ।
शास्त्रोंके विविध प्रसंगोंमें भिन्न भिन्न वर्णन पढ़कर भ्रमसा हो जाता है, इसलिये कुछ विस्तार से विवेचन किया जाता है-
तीन प्रकारकी गति
भगवान्‌ने श्रीगीताजीमें मनुष्यकी तीन गतियां बतलायी हैं।---अधः, मध्य और ऊर्ध्व । तमोगुणसे नीची, रजोगुणसे बीचकी और सतोगुणसे ऊंची गति प्राप्त होती है। भगवान्‌ने कहा है-
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥
……………( गीता १४ । १८ )
‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात्‌ मनुष्य लोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष, अधोगति अर्थात्‌ कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं।’ यह स्मरण रखना चाहिये कि, तीनों गुणोंमेंसे किसी एक या दो का सर्वथा नाश नहीं होता , संग और कर्मोंके अनुसार कोईसा एक गुण बढ़कर शेष दोनों गुणोंको दबा लेता है। तमोगुणी पुरुषोंकी संगति और तमोगुणी कार्योंसे तमोगुण बढ़कर रज और सत्त्वको दबाता है, रजोगुणी संगति और कार्योंसे रजोगुण बढ़कर तम और सत्त्वको दबा लेता है तथा इसीप्रकार सतोगुणी संगति और कार्योंसे सत्त्वगुण बढ़कर रज और तमको दबा लेता है ( गीता १४ । १० )। जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ होता है, उसीमें मनुष्यकी स्थिति समझी जाती है और जिस स्थितिमें मृत्यु होती है, उसीके अनुसार उसकी गति होती है। यह नियम है कि अन्तकालमें मनुष्य जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उसीप्रकारके भावको वह प्राप्त होता है। ( गीता ८ । ६ )। सतोगुणमें स्थिति होनेसे ही अन्तकालमें शुभ भावना या वासना होती है। शुभ वासनामें सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेसे मनुष्य निर्मल ऊर्ध्वके लोकोंको जाता है।
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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 01)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


एक सज्जन का प्रश्न है कि ‘इस देहमें जीव कहाँ से, कैसे और क्यों आता है, क्या क्या वस्तुएँ साथ लाता है । गर्भ से बाहर कैसे निकलता है और प्राण निकलने पर कहां कैसे और क्यों जाता है तथा क्या क्या वस्तुएँ साथ ले जाता है ?’ प्रश्नकर्त्ता ने शास्त्रप्रमाण और युक्तियोंसहित उत्तर लिखने का अनुरोध किया है।
प्रश्न वास्तव में बड़ा गहन है, इसका वास्तविक उत्तर तो सर्वज्ञ योगी महात्मागण ही दे सकते हैं, मेरा तो इस विषय पर कुछ लिखना एक विनोद के सदृश है । मैं किसी को यह माननेके लिये आग्रह नहीं करता कि इस प्रश्न पर मैं जो कुछ लिख रहा हूं, सो सर्वथा निर्भ्रान्त और यथार्थ है, क्योंकि ऐसा कहने का मैं कोई अधिकार नहीं रखता । अवश्य ही शास्त्र सन्त महात्माओं के प्रसाद से मैंने अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार जो कुछ समझा है, उस में मुझे तत्त्वतः कोई शङ्का नहीं है।
इस विषय में मनस्वियों में बड़ा मतभेद है, जो लोग जीव की सत्ता केवल मृत्यु तक ही समझते हैं और पुनर्जन्म आदि बिल्कुल नहीं मानते, उनकी तो कोई बात ही नहीं है, परन्तु पुनर्जन्म मानने वालों में भी मतभेद की कमी नहीं है। इस अवस्था में अमुक मत ही सर्वथा सत्य है, यह कहनेका मैं अपना कोई अधिकार नहीं समझता, तथापि अपने विचारों को नम्रता के साथ पाठकों के सन्मुख इसीलिये रखता हूं, वे इस विषय का मनन अवश्य करें।
वेदान्त के मत से तो संसार माया का कार्य होने से वास्तव में गमनागमन का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता, परन्तु यह सिद्धान्त समझाने की वस्तु नहीं है, यह तो वास्तविक स्थिति है । इस स्थिति में स्थित पुरुष ही इसका यथार्थ रहस्य जानते हैं । जिस यथार्थता में एक शुद्ध सत्‌ चित्‌ आनन्दघन ब्रह्म के सिवा अन्य का सर्वथा अभाव है । उसमें तो कुछ भी कहना सुनना संभव नहीं होता, जहां व्यवहार है, वहां इस स्थिति का सिद्धान्त सामने रखनेमात्र से काम नहीं चलता । वहां सृष्टि, जीव, जीव के कर्म, कर्मानुसार गमनागमन और भोग आदि सभी सत्य हैं। अतएव यही समझकर यहां इस विषयपर कुछ विचार किया जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


रविवार, 12 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 13)


  अन्त में हम एक बात और कहकर इस लेख को समाप्त करते हैं। दुःखरूप संसार से छूटने का एक सर्वोत्तम उपाय है-परमात्मा की शरण लेकर विवेक और वैराग्ययुक्त बुद्धि से दु:ख, शोक, भय और चिन्ता का त्याग । इसपर यदि कोई कहे कि दुःख-सुख तो प्रारब्ध के अनुसार भोगने ही पड़ते हैं तो इसका उत्तर यह है कि दुःख-सुख के निमित्तों का प्राप्त होना और हट जाना ही प्रारब्ध का फल है, उन निमित्तों को लेकर हमें जो चिन्ता, शोक, भय एवं विषाद होता है वह हमारी मूर्खता से होता है, अज्ञान से होता है। उनके होने में प्रारब्ध हेतु नहीं है। पुत्र का वियोग हो जाना, धनका अपहरण हो जाना, व्यापार में घाटा लग जाना, इज्जत-आबरू का चला जाना, बीमारी और अपकीर्ति का होना- ये सब घटनाएँ प्रारब्ध के कारण होती हैं; परंतु इनसे जो हमें विषाद होता है, उसमें हमारा अज्ञान हेतु है, प्रारब्ध नहीं। यदि हम स्वयं इन घटनाओं से दुःखी न हों तो इन घटनाओं की ताकत नहीं कि वे हमें दुःखी कर सकें। यदि इन घटनाओं में दुःखी करने की शक्ति होती तो उनसे ज्ञानियों को भी दुःख होता; परन्तु ज्ञानी जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिये शास्त्र डंके की चोट पर यह कहते हैं कि उन्हें अप्रिय-से-अप्रिय घटना को लेकर भी दुःख नहीं होता, वे सुख-दु:ख से परे हो जाते हैं। उनकी दृष्टि में प्रिय-अप्रिय कुछ रह नहीं जाता। उनके विषय में श्रुति कहती है-'तरति शोकमात्मवित्। (छा० ७।१ । ३) आत्मा को जान लेने वाला शोक से तर जाता है। हर्षशोकौ जहाति' (कठ० १।२।१२) -ज्ञानी पुरुष हर्ष और शोक का त्याग कर देता है, दोनों ही स्थितियों को लाँघ जाता है।  'तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः' (ईश०७)- सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखने वाले आत्मदर्शी पुरुष के लिये शोक और मोह का कोई कारण नहीं रह जाता। भगवान् भी गीता में अर्जुन से अपने उपदेश के प्रारम्भ में ही कहते हैं-

 

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।

गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥

...(२। ११)

'हे अर्जुन ! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के-से वचनों को कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।'

 

इससे यह सिद्ध होता है कि शोक न करना हमारे हाथ में है। यदि ऐसी बात न होती और इसका सम्बन्ध प्रारब्ध से होता तो ज्ञानोत्तर काल में ज्ञानी को भी शोक होता और भगवान् भी शोक छोड़ने के लिये अर्जुन को कभी न कहते। शरीरों का उत्पत्ति-विनाश और क्षयवृद्धि तथा सांसारिक पदार्थों का संयोग-वियोग ही प्रारब्ध से सम्बन्ध रखता है; उनके विषय में जो चिन्ता, भय और शोक होता है वह अज्ञान के कारण ही होता है। सांसारिक विपत्ति के आने पर भी जो शोक नहीं करते-रोते नहीं, उनकी उससे कोई हानि नहीं होती। अतः परमात्मा की शरण ग्रहण करके प्रमाद,आलस्य,पाप,भोग,शोकमोह,विषाद,चिन्ता एवं भय का त्याग कर हमें परमात्मा के स्वरूप में अचलभाव से स्थित हो जाना चाहिये।

 

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

# लोक परलोक

# परलोक

 

   



शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 12)

  

१ शरीर से होनेवाले दोष तीन हैंबिना दिया हुआ धन लेना, शास्त्रविरुद्ध हिंसा और परस्त्रीगमन ।

२ वाचिक पाप चार हैं-- कठोर वचन कहना, झूठ बोलना, चुगली करना और बे-सिर-पैर की ऊल-जलूल बातें करना।

३ मानसिक पाप तीन हैं--दूसरे का माल मारने का दाँव सोचना, मन से दूसरे का अनिष्टचिन्तन करना और मैं शरीर हूँ-इस प्रकार का झूठा अभिमान करना।

(मनु० १२। ७-६-५)

 

इन त्रिविध पापों का नाश करने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में तीन प्रकार के तप बतलाये हैं-शारीरिक तप, वाचिक तप और मानस तप। उक्त तीन प्रकार के तप का स्वरूप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है-

 

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

...(गीता १७। १४)

देवता, ब्राह्मण, गुरु (माता-पिता एवं आचार्य आदि) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।

 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥

...(गीता १७। १५)

जो उद्वेग को न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है-वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।'

 

मन:प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥

...(गीता १७। १६)

'मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रता इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है।

प्रत्येक कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि वह उपर्युक्त तीनों प्रकार के तप का सात्त्विक भाव से अभ्यास करे।

 

{श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत् त्रिविधं नरैः।

अफलाकाक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥}

...(गीता १७। १७)

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?



परलोक और पुनर्जन्म (पोस्ट 11)


  

भगवान् ने भी गीता में कहा है-

 

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥

...(१६। २४)

'इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत कर्म ही करनेयोग्य है।

 

यदि नाना प्रकार के शास्त्रों को देखने से तथा उनमें कहीं-कहीं आये हुए परस्परविरोधी वाक्यों को पढ़ने से बुद्धि भ्रमित हो जाय और शास्त्र के यथार्थ तात्पर्य का निर्णय न कर सके तो पूर्वकाल में हमारी दृष्टि में शास्त्र के मर्म को जाननेवाले जो भी महापुरुष हो गये हों उनके बतलाये हुए मार्ग का अनुसरण करना चाहिये। शास्त्रों की भी यही आज्ञा है। महाभारतकार कहते हैं-

 

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना

नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम्।

धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां ।

महाजनो येन गतः स पन्थाः॥

…(वन० ३१३। ११७)

धर्म के विषय में तर्क की कोई प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं, श्रुतियाँ भिन्न-भिन्न तात्पर्यवाली हैं तथा ऋषिमुनि भी कोई एक नहीं हुआ है जिससे उसी के मत को प्रमाणस्वरूप माना जाय, धर्म का तत्त्व गुहा में छिपा हुआ है, अर्थात् धर्म की गति अत्यन्त गहन है, इसलिये (मेरी समझ में) जिस मार्ग से कोई महापुरुष गया हो, वही मार्ग है, अर्थात् ऐसे महापुरुष का अनुकरण करना ही धर्म है।' उन्हीं के आचरण को अपना आदर्श बना लेना चाहिये और उसी के अनुसार चलने की चेष्टा करनी चाहिये।

 

यदि किसी को ऐसे महापुरुषों के मार्ग में भी संशय हो तो फिर उसे यही उचित है कि वह वर्तमानकाल के किसी जीवित सदाचारी महात्मा पुरुष को-जिसमें भी उसकी श्रद्धा हो और जिसे वह श्रेष्ठ महापुरुष समझता हो अपना आदर्श बना ले और उनके बतलाये हुए मार्ग को ग्रहण करे, उनके आदेश के अनुसार चले । और यदि किसी पर भी विश्वास न हो तो अपने अन्तरात्मा, अपनी बुद्धि को ही पथप्रदर्शक बना ले-एकान्तमें बैठकर विवेकवैराग्ययुक्त बुद्धिसे शान्ति एवं धीरज के साथ स्वार्थत्यागपूर्वक निष्पक्षभाव से विचार करे कि मेरा ध्येय क्या है, मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये। इस प्रकार अपने हिताहित का विचार करके संसार में कौन-सी वस्तु मेरे लिये ग्राह्य है और कौन-सी अग्राह्य है, इसका निर्णय कर ले और फिर दृढतापूर्वक उस निश्चयपर स्थित हो जाय। जो मार्ग उसे ठीक मालूम हो, उसपर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जाय और जो आचरण उसे निषिद्ध जंचे उन्हें छोड़ने की प्राणपण से चेष्टा करे, भूलकर भी उस ओर न जाय। इस प्रकार निष्पक्षभाव से विचार करनेपर, अन्तरात्मा से पूछनेपर भी उसे भीतर से यही उत्तर मिलेगा कि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और परोपकार आदि ही श्रेष्ठ ; हिंसा,असत्य, व्यभिचार और दूसरे का अनिष्ट आदि करने के लिये उसका अन्तरात्मा उसे कभी न कहेगा। नास्तिक से-नास्तिक को भी भीतर से यही आवाज सुनायी देगी। इस प्रकार अपना लक्ष्य स्थिर कर लेने के बाद फिर कभी उसके विपरीत आचरण न करे। अच्छी प्रकार निर्धारित किये हुए अपने ध्येय के अनुसार चलना ही आत्मा का उत्थान करना है और उस निश्चयके अनुसार न चलकर उसके विपरीत मार्गपर चलना ही उसका पतन है। जो आचरण अपनी दृष्टि में तथा दूसरों की दृष्टि में भी हेय है, उसे जान-बूझकर करना मानो अपने-आप ही फाँसी लगाकर मरना, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना, अपने ही हाथों अपना अहित करना है। इसीलिये भगवान् कहते हैं 'नात्मानमवसादयेत्' (गीता ६।५), जान-बूझकर अपनेआप अपना पतन न करे। | हमारे शास्त्रों में मन, वाणी और शरीर से होनेवाले कुछ दोष गिनाये हैं और साथ ही मन, वाणी और शरीर के पाँच-पाँच तप भी बतलाये हैं। आत्मा का उद्धार चाहने वाले मनुष्य को चाहिये कि वह उपर्युक्त मन, वाणी और शरीर के दोषों का त्याग करे और शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों प्रकार के तप का आचरण करे।

 

शेष आगामी पोस्ट में

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्म (एवं वैराग्य)“ पुस्तक से             

# क्या है परलोक?

# लोक परलोक

# परलोक

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...