सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:

“चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् |
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ||”

( श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड विस्तार वाला है और उसका एक एक अक्षर भी मनुष्यों के महान् पापों को नाश करने वाला है )


मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव !!



माता-पिता की सेवा का तात्पर्य कृतज्ञता में है । माता-पिता ने बच्चे के लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर ऋण है । उस ऋण को पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँ ने पुत्र की जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ी से माँ के लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँ से लाये ? यह भी तो माँ ने ही दी है ! उसी चमड़ी की जूती बनाकर माँ को दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देने का अभिमान ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिता का अंश है । पिता के उद्योग से ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल माता-पिता की सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेने से वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है ।

........गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तक से


रविवार, 26 फ़रवरी 2023

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् |
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः ||
इत्थं विचारयति कोषगते द्विरेफे |
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ||

रात्रि बीतेगी सुन्दर प्रभात होगा ! सूर्य निकलेगा, कमलों का समूह खिलेगा ! --इस प्रकार कमल की डोडी में बैठे हुए भौंरा सोच ही रहा था कि उसके ऐसा सोचते-सोचते.... हाय ! बड़ा दु:ख है कि हाथी, उसी कमलिनी को उखाड़ कर ले गया !! 

उसे क्या पता था कि उसके भाग्य में क्या लिखा है ?

मनुष्य भी इसी प्रकार दु:ख के समय में सुख के लिए कितनी ही मधुर कल्पनाएँ करता रहता है , किन्तु उसका दु:ख समाप्त हो नहीं पाता कि काल उसे ग्रस लेता है --उसके ऊपर कुछ भी निर्भर नही होता | होता वही है जो ईश्वर चाहता है !!


बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 19)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

आवागमन से छूटने का उपाय

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जानेपर जीवनमुक्त पुरुष लोकदृष्टि में जीता हुआ और कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में उसका कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई कहे कि, सम्बन्ध बिना उससे कर्म कैसे होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में वह तो किसी कर्म का कर्ता है नहीं, पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का जो शेष भाग अवशिष्ट है, उसके भोग के लिये उसी के वेग से, कुलाल के न रहने पर भी कुलालचक्र की भांति कर्ता के अभाव में भी परमेश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे पूर्व-स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं, परन्तु वे कर्तॄत्व-अहंकारसे शून्य कर्म किसी पुण्य-पाप के उत्पादक न होनेके कारण वास्तव में कर्म ही नहीं समझे जाते ( गीता १८ । १७ )।
जो लोकदृष्टि में दीखता है, वह अन्तकाल में तत्त्वज्ञान के द्वारा तीनों शरीरों का अत्यन्त अभाव होने से जब शुद्ध सच्चिदानन्दघन में तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है (गीता २।७२), तब उसे विदेहमुक्ति कहते हैं। जिस माया से कहीं भी नहीं आने जानेवाले निर्मल निर्गुण सच्चिदानन्दरूप आत्मा में भ्रमवश आने जाने की भावना होती है, भगवान्‌ की भक्ति के द्वारा उस माया से छूटकर इस परमपद की प्राप्ति के लिये ही हम सब को प्रयत्न करना चाहिये !

ॐ तत्सत् !

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम:॥



जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



आवागमन से छूटने का उपाय

जब तक परमात्मा की भक्ति उपासना निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंद्वारा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्नि से अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णतः भस्म नहीं हो जाती, तबतक उन्हें भोगने के लिये जीव को परवश होकर शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, मूल प्रकृति और अन्तःकरण तथा इन्द्रियों को साथ लिये लगातार बारम्बार जाना आना पड़ता है। जाने और आने में यही वस्तुएं साथ जाती आती हैं। जीव के पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भ में आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मों के अंश विशेष निर्मित प्रारब्ध का भोग करना ही इसके जन्म का कारण है।

कर्म या तो भोग से नाश होते हैं या प्रायश्चित्त निष्काम कर्म उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं ।
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान्‌ कहते हैं--

तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥
........( गीता ८ । ७ )

‘अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इसप्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं। इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है। यही मुक्ति है, इसीका नाम परमपदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं-एक सद्योमुक्ति और दूसरी क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयान-मार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है। सद्योमुक्ति दो प्रकारकी होती है-जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 17)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




सूक्ष्मदेह का आना जाना कर्मबन्धन न छूटने तक चला ही करता है |
प्रलयमें भी सूक्ष्म शरीर रहता है--

प्रलयकाल में भी जीवों के यह सत्रह तत्त्वों के शरीर ब्रह्माके समष्टि सूक्ष्मशरीरमें अपने अपने संचितकर्म-संस्कारों सहित विश्राम करते हैं और सृष्टिकी आदिमें उसीके द्वारा पुनः इनकी रचना हो जाती है; ( गीता ८ । १८ )। महाप्रलयमें ब्रह्मा सहित समष्टि व्यष्टि सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शान्त होनेपर शान्त हो जाते हैं, उस समय एक मूल प्रकृति रहती है, जिसको अव्याकृत माया कहते हैं। उसी महाकाल में जीवों के समस्त कारण शरीर अमुक कर्म-संस्कारों सहित अविकसित रूप से विश्राम पाते हैं। सृष्टिकी आदिमें सृष्टिके आदिपुरुष द्वारा ये सब पुनः रचे जाते हैं; ( गीता १४ । ३-४ )। अर्थात्‌ परमात्मारूप अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति ही चराचरसहित इस जगत्‌ को रचती है, इसी तरह यह संसार आवागमनरूप चक्र में घूमता रहता है; ( गीता ९ । १० )। महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति-- यह दो ही वस्तु रह जाती है, उस समय जीवों का प्रकृतिसहित पुरुष में लय हुआ करता है, इसीसे सृष्टि की आदि में उनका पुनरुत्थान होता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 16)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

यहां यह एक शङ्का बाकी रह जाती है कि श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के २२वें श्लोक में कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’

इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे ही तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने जाने स्वर्ग नरकादि भोगने की बात कैसे सिद्ध होती है, परन्तु गीता स्वयं तीन गतियां निर्देश कर आना जाना स्वीकार करती है। इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?

इसका समाधान यह है कि यह शङ्का ही ठीक नहीं है। भगवान्‌ ने इस सम्बन्ध में यह नहीं कहा कि, मरते ही जीव को दूसरा ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाता है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्रा का बयान करता हुआ कहता है ‘मैं बम्बई से कलकत्ते पहुंचा, वहां से कानपुर और कानपुर से दिल्ली चला आया।’ इस कथन से क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्ते में प्रवेश कर गया था या कानपुर से दिल्ली उसी दम आगया ? रास्ते का वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर ही है, इसीप्रकार जीवका भी देह परिवर्तनके लिये लोकान्तरों में जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलने की बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि वायुके साथ सूक्ष्मशरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाता है, जो ऊर्ध्व-गामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरक-गामियोंको तमोमय प्रेत पिशाच आदिका होता है। वह सूक्ष्म होनेसे हम लोगोंकी स्थूलदृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शङ्का निरर्थक है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 15)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

चौबीस तत्त्वोंके स्थूल शरीरमेंसे निकलकर जब यह जीव बाहर आता है, तब स्थूल देह तो यहीं रह जाता है। प्राणमय कोषवाला सत्रह तत्त्वोंका सूक्ष्म शरीर इसमेंसे निकलकर अन्य शरीरमें चला जाता है। भगवान्‌ने कहा है-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
शरीरं यदवाप्नोति यञ्चाप्युत्‌क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌॥
( गीता १५ । ७ - ८ )

इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित पांचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है। जैसे गन्धके स्थानसे वायु गन्धको ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे मनसहित इन इन्द्रियोंको ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।’

प्राण वायु ही उसका शरीर है, उसके साथ प्रधानता से पाँच ज्ञानेन्द्रियां और छठा मन (अन्तःकरण ) जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्त्व हैं। यही सत्रह तत्त्वोंका शरीर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कारके साथ जीवके साथ जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...