रविवार, 19 मार्च 2023

दीवानों की दुनियां (पोस्ट 02)


अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत्‌ भरा है, फिर कहते हैं, जगत्‌ मुझमें है, मैं उसमें नहीं हूं, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत्‌ ही मुझमें है और न मैं इसमें हूं।  यह सब मेरी मायाका अप्रतिम प्रभाव है।’  मेरी लीला है।  यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं।  वे जानते हैं कि जगत्‌में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओतप्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है।  यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके सङ्कल्पसे, बाजीगरके खेलकी भांति, उस सङ्कल्पके ही आधारपर स्थित है।  जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी?  इसीलिये परमात्माके सङ्कल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है।  परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक सङ्कल्पमात्र है । वास्तव में केवल परमात्मा ही अपने आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है !  इस रहस्यको  तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओं की दृष्टि दूसरी होजाती है ।   इसीलिये वे प्रत्येक शुभाशुभ घटनामें सम रहते हैं-जगत्‌ का बड़े से बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ, लाभ ही नहीं है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शनिवार, 18 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 01)

 या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
 यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

 भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सब भूत प्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।"  अर्थात्‌ साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रातदिनका अन्तर है।  साधारण संसारी-लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रीकी भाँति उनके विचारमें वही परम सुखकर हैं, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियों की स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द में परमात्मा में होती है, उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे?  इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहां विषयोंके  संग्रह और भोग में लगे रहते हैं,-उनका जीवन भोग-परायण रहता है, वहां तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगों को कोई वस्तु ही समझते हैं।  साधारण लोगों की दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ता के सिवा मूर्ख-विद्वान्‌ की कोई पहेली ही नहीं रह जाती।  इसीलिये वे जगत्‌ को सत्य और सुखरूप समझने वाले अविद्या के फन्देमें फँसकर रागद्वेषके आश्रयसे भोगों में रचे-पचे हुए लोगों को समय समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं।  ऐसे पुरुष जीवन-मत्यु दोनों से ऊपर उठे हुए होते हैं।  अन्तर्जगत्‌ में प्रविष्ट होकर दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेने के कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत्‌ का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है।  ऐसे ही महात्माओं के लिये भगवान्‌ ने कहा है-
 वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥

 ‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है।  ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत्‌ केवल एक परमात्मा का ही विस्तार है, वही अनेक रूपों से इस संसार में व्यक्त हो रहे हैं।  प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं।  असल में व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है।  परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न भिन्न व्यक्तरूपों में प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मा से पृथक्‌ नहीं है।’  ऐसे महात्मा ही परमात्मा की इस अद्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणा का पद पद पर प्रत्यक्ष करते हैं कि-

 मया ततमिदं सर्वं जगद्‌व्यक्तमूर्तिना।
 मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
 न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌।
 भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥

 ‘मुझ सच्चिदान्दघन अव्यक्त परमात्मा से यह समस्त विश्व परिपूर्ण है, और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूं, ये समस्त भूत भी मुझ में स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभाव को देख, कि समस्त भूतों का धारण पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतों में स्थित नहीं है।’  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शुक्रवार, 17 मार्च 2023

।। जय श्री राम ।।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । 
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥

( जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं )


गुरुवार, 16 मार्च 2023

राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे । राम के भजन बिनु, मुक्ति नहिं पाव रे ।।

।। जय श्री राम ।। 


दुनिया के लिये रोने में और भगवान्‌ के लिये रोने में बड़ा फर्क है । दुनिया के लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्‌ के लिये रोते हैं तो आँसू ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवाले के हृदय में जलन होती है और भगवान्‌ के लिये रोनेवाले के हृदय में ठण्डक होती है । भगवान्‌ के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है ! संसार की तरफ चलने में ही दुःख है । भगवान्‌ की तरफ चलने में सुख-ही-सुख है । भगवान् मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख !

जैसे भगवान्‌ को हनुमान जी बहुत प्यारे हैं, ऐसे ही कलियुग में भजन करनेवाला भगवान्‌ को बहुत प्यारा है ।

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘बिन्दु में सिन्धु’ पुस्तक से


बुधवार, 15 मार्च 2023

श्रीजानकीवल्लभो विजयते !

“ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥“

( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए )


मंगलवार, 14 मार्च 2023

जय श्री राम

“तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । जानहिं भगत भगत उर चंदन॥“

( हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चंदन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं )


सोमवार, 13 मार्च 2023

“ नाहं वसामि वैकुंठे ........."

“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च | 
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”  

.................... ( पद्मपुराण उ. १४/२३)

                                                               (भगवान् कहते हैं कि हे नारद !  मैं न तो  वैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं  ।  मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं)  | 

श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |


शनिवार, 11 मार्च 2023

गुरु को ढूंढना नहीं पड़ता !


।। जय श्री हरि ।।

श्रोता‒  आजकल दुनिया में ढूँढ़ने पर भी गुरु नहीं मिलता । मिलता है तो ठग मिलता है । हम गुरु ढूँढ़ने के लिये कई तीर्थों में गये, पर कोई मिला ही नहीं । आप कहते हैं कि जगद्गुरु कृष्ण को अपना गुरु मान लो । अगर आप यह घोषणा कर दें कि भाई ! आप लोग कृष्ण को ही गुरु मानो तो यह वहम ही मिट जाय ........!

स्वामीजी‒  वास्तव में गुरु को ढूँढ़ना नहीं पड़ता । फल पककर तैयार होता है तो तोता खुद उसको ढूँढ़ लेता है । ऐसे ही अच्छे गुरु खुद चेले को ढूँढ़ते हैं, चेले को ढूँढ़ना नहीं पड़ता । जैसे ही आप कल्याण के लिये तैयार हुए, गुरु फट आ टपकेगा ! फल पककर तैयार होता है तो तोता अपने-आप उसके पास आता है, फल तोते को नहीं बुलाता । ऐसे ही आप तैयार हो जाओ कि अब मुझे अपना कल्याण करना है तो गुरु अपने-आप आयेगा ।

‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तक से


शुक्रवार, 10 मार्च 2023

सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नमः।।


प्रलयपयोधि में मार्कण्डेयजी को भगवद्विग्रह का दर्शन 

महामुनि मार्कण्डेय जी की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् नारायण ने उनसे वर माँगने को कहा | मुनि ने कहा- हे प्रभो !  आपने कृपा करके अपने मनोहर रूप का दर्शन कराया है, फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपकी माया का दर्शन करना चाहता हूँ | तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् बदरीवन को चले गए | एक दिन मार्कण्डेयजी पुष्पभद्रा नदी के तट पर भगवान् की उपासना में तन्मय थे | उसी समय एकाएक उनके समक्ष प्रलयकाल का दृश्य उपस्थित हो गया | भगवान् की माया के प्रभाव से उस प्रलयकालीन समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें करोड़ों वर्ष बीत गए और –--

“एकार्णव की उस अगाध जलराशि-बीच वटबृक्ष विशाल ,
दीख पडा उसकी शाखा पर बिछा पलंग एक तत्काल |
उसपर रहा विराज एक था कमलनेत्र एक सुन्दर बाल,
देख प्रफुल्ल कमल-मुख मुनि मार्कण्डेय हो गए चकित निहाल ||
...............(पदरत्नाकर)

---अकस्मात् एक दिन उन्हें उस प्रलय-पयोधि के मध्य एक विशाल वटवृक्ष दिखाई पडा | उस वटवृक्ष की एक शाखा पर एक सुन्दर-सा पलंग बिछा हुआ था | उस पलंग पर कमल-जैसे नेत्र वाला एक सुन्दर बालक विराज रहा था | उसके प्रफुल्लित कमल-जैसे मुख को देखकर मार्कण्डेय मुनि विस्मित तथा  सफल-मनोरथ हो गए |

---{कल्याण वर्ष ९०,सं०६..जून,२०१६}


बुधवार, 8 मार्च 2023

जय श्री सीताराम

“सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥“

( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...