अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत् भरा है, फिर कहते हैं, जगत् मुझमें है, मैं उसमें नहीं हूं, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत् ही मुझमें है और न मैं इसमें हूं। यह सब मेरी मायाका अप्रतिम प्रभाव है।’ मेरी लीला है। यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं। वे जानते हैं कि जगत्में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओतप्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है। यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके सङ्कल्पसे, बाजीगरके खेलकी भांति, उस सङ्कल्पके ही आधारपर स्थित है। जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी? इसीलिये परमात्माके सङ्कल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है। परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक सङ्कल्पमात्र है । वास्तव में केवल परमात्मा ही अपने आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है ! इस रहस्यको तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओं की दृष्टि दूसरी होजाती है । इसीलिये वे प्रत्येक शुभाशुभ घटनामें सम रहते हैं-जगत् का बड़े से बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ, लाभ ही नहीं है।
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...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)