शनिवार, 25 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०६)

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जंघे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादांगुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥
नखान्‌ दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥
शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

भगवती कटिभाग में और विंध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे । सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे ॥३१॥ नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करे । श्री देवी पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे ॥३२॥ अपनी दाढ़ों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे । रोमवालियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरीदेवी रक्षा करे ॥३३॥ पार्वती देवी रक्त , मज्जा , वसा , मांस , हड्डी और मेदा की रक्षा करे । आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे ॥३४॥  मूलाधार आदि कमल - कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणिदेवी स्थित होकर रक्षा करे । नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे । जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता , वह अभेद्यादेवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे ॥३५॥ ब्रह्माणि ! आप मेरे वीर्य की रक्षा करे । छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी - देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धिकी रक्षा करे ॥३६॥ 

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शुक्रवार, 24 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०५)


दन्तान्‌ रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमंगला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे व्रजधारिणी॥२७॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चांगुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी॥३०॥

कौमारी दाँतों की और चण्डिका कंठप्रदेश की रक्षा करे । चित्रघण्टा गले की घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे ॥२५॥ कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमंगला मेरी वाणी की रक्षा करे । भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश ( मेरुदण्ड ) - में रहकर रक्षा करे ॥२६॥कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे । दोनों कंधोंमें खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे ॥२७॥दोनों हाथों में दंडिनी और अंगुलियों में अम्बिका रक्षा करे । शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे । कुलेश्वरी कुक्षि (पेट ) – में रहकर रक्षा करे ॥२८॥ महादेवी दोनों स्तनों की और शोक विनाशिनी देवी मन की रक्षा करे । ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे ॥२९॥ नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे । पूतना और कामिका लिंगकी और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे ॥३०॥

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गुरुवार, 23 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०४)

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥१९॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया में चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
मालाधारी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
शंखिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

उत्तर दिशा में कौमारी और ईशान - कोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे । ब्रह्माणि ! तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे ॥१९॥इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे । जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे ॥२०॥वाम भाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे । उद्द्योतिनी शिखा की रक्षा करे । उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे ॥२१॥ ललाट में मालाधारी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरे भौहों का संरक्षण करे । भौहों के मध्यभाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे ॥२२॥ दोनों नेत्रों के मध्य भाग में शंखिनी और कानों में द्वारवासिनी रक्षा करे । कालिका देवी कपोलों की तथा भगवती शांकरी मूलभाग की रक्षा करे ॥२३॥ नासिका में सुगंधा और ऊपर के ओठ में चर्चिका देवी रक्षा करे । नीचे के ओठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा करे ॥२४॥

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अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०३)

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्‌॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्‌॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥१५॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिन।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिये रथपर बैठी दिखायी देती हैं । ये शंख , चक्र , गदा , शक्ति , हल ,और मूसल , खेटक और तोमर , परशु तथा पाश , कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथों में धारण करती हैं । दैत्यों के शरीर का नाश करना , भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना – यही उनके शस्त्र –धारण का उद्देश्य है ॥१३ - १५॥ [कवच आरम्भ करने के पहले इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये - ] महान् रौद्ररूप , अत्यंत घोर पराक्रम , महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि ! तुम महान् भय का नाश करनेवाली हो , तुम्हें नमस्कार है ॥१६॥  तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है । शत्रुओं का भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके ! मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री ( इंद्रशक्ति) मेरी रक्षा करे । अग्निकोण में अग्निशक्ति , दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारी मेरी रक्षा करे । पश्चिम दिशा में वारूणी और वायव्यकोण में मृगपर सवारी करनेवाली देवी मेरी रक्षा करे ॥१७- १८॥

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जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!

जय श्रीसीताराम !

तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस, हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे।  पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है।  वह यह है-

 अहं हरे तवपादैकमूल
 दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
 मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
 गृणीत वाक्‌ कर्मकरोतु कायः॥

 अर्थात्‌, हे भगवन्‌ !  मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ ।  हे प्राणेश्‍वर!  मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता रहे।  मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे।  और, मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवामें लगा रहे।

 किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीय’ ही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े।  सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये।  अन्तमें यही विनय है, नाथ!

 अर्थ न धर्म न काम-रुचि, गति न चहौं निर्बान।
 जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
 परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
 प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥

   ------तुलसी

 क्यों नहीं कह देते, कि ‘एवमस्तु !’  

( श्रीवियोगी-हरिजी )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६.कल्याण  ( पृ० ७५५ )


बुधवार, 22 मार्च 2023

अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०२)

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषा जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो , रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो , विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों , उनका कभी कोई अमंगल नहीं होता। युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखायी देती । उन्हें शोक , दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती ॥६-७॥ जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है , उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है । देवेश्वरि ! जो तुम्हारा चिंतन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो ॥८॥ चामुण्डादेवी प्रेतपर आरुढ़ होती हैं । वाराही भैंसे पर सवारी करती है । ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है । वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं ॥९॥ माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती है । कौमारी का वाहन मयूर है । भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसनपर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं ॥१०॥ वृषभपर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है । ब्राह्मीदेवी हंसपर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं ॥११॥ इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से समपन्न हैं । इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं , जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं ॥१२॥

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


अथ देव्याः कवचम्‌ (पोस्ट ०१)


विनियोग

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप्‌ छन्दः, चामुण्डा देवता, अंगन्यासोक्तमातरो बीजम्‌, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्‌, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठांगत्वेन जपे विनियोगः।

॥ ॐ नमश्चण्डिकायै॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्‌।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्‌।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्‌॥३॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्‌॥४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है।

मार्कण्डेय जी ने कहा – पितामह ! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करनेवाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये॥१॥
ब्रह्माजी बोले – ब्रह्मन् ! ऐसा साधन तो एक देवीका कवच ही है ,जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय,पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है । महामुने ! उसे श्रवण करो ॥२॥ देवी की नौ मूर्तियाँ हैं, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं । प्रथम नाम ‘ शैलपुत्री ’ है । दूसरी मूर्तिका नाम ‘ ब्रह्मचारिणी ’ है। तीसरा स्वरूप ‘ चंद्रघण्टा ’ के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को ‘ कूष्माण्डा ’ कहते हैं। पाँचवीं दुर्गा का नाम ‘ स्कन्दमाता’ है । देवी के छठे रूपको ‘ कात्यायनी ’ कहते है। सातवाँ ‘कालरात्रि’ और आठवाँ स्वरूप ‘महागौरी ’ के नाम से प्रसिद्ध है । नवीं दुर्गा का नाम ‘ सिद्धिदात्री ’ है । ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ॥२-५॥

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................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक (कोड 1281) से


दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 05)


संसार के लोग जिन सब वस्तुओं के नाश हो जानेपर रोते और पुनः मिलने की आकांक्षा करते हैं या जिनकी अप्राप्ति में अभावका अनुभव कर दुखी होते हैं और प्राप्त होने पर हर्षसे फूल जाते हैं, तत्त्वदर्शीं पुरुष इस तरह नहीं करते, वे इस रहस्यको समझते हैं, इसलिये वे समय समयपर बच्चोंके साथ बच्चे बनकर खेलते हैं, बच्चोंके खेलमें शामिल हो जाते हैं, परन्तु होते हैं उन बच्चोंको खेलका असली तत्त्व समझाकर सदाको शोक-मुक्त कर देनेके लिये ही !

 ऐसे भगवान्‌ के प्यारे भक्त विश्वकी प्रत्येक क्रियामें परमात्माकी लीलाका अनुभव करते हैं, वे सभी अनुकूल और प्रतिकूल घटनाओंमें परमात्माको ओतप्रोत समझकर , लीलारूपमें उनको अवतरित समझकर, उनके नित्य नये नये खेलोंको देखकर प्रसन्न होते हैं और सब समय सब तरहसे और सब ओरसे सन्तुष्ट रहते हैं।  ऐसे लोगोंको जगत्‌के लोग-जिनका मन भोगोंमें, उन्हें सुखरूप समझकर फँसा हुआ है, स्वार्थी, अकर्मण्य, आलसी, पागल, दीवाने और भ्रान्त समझते हैं, परन्तु वे क्या होते हैं, इस बातका पता वास्तवमें उन्हींको रहता है।  ऐसे दीवानोंकी दुनियाँ दूसरी ही होती है, उस दुनियाँमें कभी राग-द्वेष, रोग-शोक, सुख-दुःख नहीं होते।  वह दुनियाँ सूर्य चन्द्रसे प्रकाशित नहीं होती, स्वतः प्रकाशित रहती है।  इतना ही नहीं, उसी दुनिया के परम प्रकाश से ही सारे विश्व को प्रकाश मिलता है।

!! ॐ तत्सत् !!

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


मंगलवार, 21 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 04)


सांसारिक लोग धन, मान, ऐश्‍वर्य, प्रभुता, बल, कीर्ति आदि की प्राप्ति के लिये परमात्मा की कुछ भी परवा न कर अपना सारा जीवन इन्हीं पदार्थों के प्राप्त करने में लगा देते हैं और इसीको परम पुरुषार्थ मानते हैं।  इसके विपरीत परमात्माकी प्राप्तिके अभिलाषी पुरुष परमात्मा के लिये इन सारी लोभनीय वस्तुओंका तृणवत्‌, नहीं, नहीं, विषवत्‌ परित्याग कर देते हैं और उसी में उनको बड़ा आनन्द मिलता है।  पहले को मान प्राण समान प्रिय है तो दूसरा मान-प्रतिष्ठा को शूकरी-विष्ठा समझता है।  पहला धन को-जीवन का आधार समझता है तो दूसरा लौकिक धन को परमधन की प्राप्ति में प्रतिबन्धक मानकर उसका त्याग कर देता है।  पहला प्रभुता प्राप्तकर जगत्‌ पर शासन करना चाहता है तो दूसरा ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना’ बनकर महापुरुषोंके चरणकी रजका अभिषेक करनेमें ही अपना मंगल मानता है।  दोनोंके भिन्न भिन्न ध्येय और मार्ग हैं।  ऐसी स्थितिमें एक दूसरे को पथभ्रान्त समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।  यह तो विषयी और मुमुक्षु का अन्तर है।  परन्तु इससे पहले किये हुए विवेचन के अनुसार मुक्त अथवा भगवदीय लीलामें सम्मिलित भक्तके लिये तो जगत्‌ का स्वरूप ही बदल जाता है।  इसी से वह इस खेल से मोहित नहीं होता।  जब छोटे लड़के काँच के या मिट्‍टी के खिलौनों से खेलते और उनके लेन-देन ब्याह-शादी में लगे रहते हैं, तब बड़े लोग उनके खेल को देखकर हँसा करते हैं, परन्तु छोटे बच्चों की दृष्टिमें वह बड़ोंकी भांति कल्पित वस्तुओंका खेल नहीं होता।  वे उसे सत्य समझते हैं और जरा-जरासी वस्तुके लिये लड़ते हैं, किसी खिलौने के टूट जाने या छिन जानेपर रोते हैं, वास्तव में उनके मनमें बड़ा कष्ट होता है।  नया खिलौना मिल जानेपर वे बहुत हर्षित होते हैं।  जब माता-पिता किसी ऐसे बच्चेको, जिसके मिट्‍टी के खिलौने टूट गये हैं या छिन गये हैं, रोते देखते हैं तो उसे प्रसन्न करनेके लिये कुछ खिलौने और दे देते हैं, जिससे वह बच्चा चुप हो जाता है और अपने मनमें बहुत हर्षित होता है परन्तु सच्चे हितैषी माता-पिता बालक को केवल खिलौना देकर ही हर्षित नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे तो इस खिलौने के टूटनेपर भी उन्हें फिर रोना पड़ेगा।  अतएव वे समझाकर उनका यह भ्रम भी दूर कर देना चाहते हैं कि खिलौने वास्तव में सच्ची वस्तु नहीं है।  मिट्‍टी की मामूली चीज हैं, उनके जाने-आने या बनने-बिगड़ने में कोई विशेष लाभ-हानि नहीं है।  इसी प्रकार की दशा संसार के मनुष्यों की हो रही है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................

...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


सोमवार, 20 मार्च 2023

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 03)


इसी प्रकार लोकदृष्टि से भासने वाले महान्‌ से महान्‌ दुःख में वे महात्मा विचलित नहीं होते, क्योंकि उनकी दृष्टिमें दुःख-सुख कोई वस्तु ही नहीं रह गये हैं ।  ऐसे महापुरुष ही ब्रह्म में नित्य स्थित समझे जाते हैं।  भगवान्‌ ने गीतामें कहा है-

 न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।
 स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥

 ऐसे स्थिरबुद्धि संशय-शून्य ब्रह्मवित्‌ महात्मा लोकदृष्टि से प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टि से अप्रिय पदार्थ को पाकर उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मा में नित्य अभिन्न भावसे स्थित हैं।  जगत्‌ के लोगो को जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओतप्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं।  क्योंकि वे सांसारिक शुभाशुभ के परित्यागी हैं।
 ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनसे कभी जगत्‌का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएं लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों।  सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल विपरीतगति असत्य-परायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते है, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते।  वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं।  लोगों की दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्ष की बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई, उनकी, और उनके रहस्य को समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषों की दृष्टिमें उससे देश और विश्व का बड़ा भारी मंगल हुआ ।  इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान्‌ के सङ्केतानुसार सब प्रकार के धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल भगवान्‌ के वचनके अनुसार ही महासंग्राम के लिये सहर्ष प्रस्तुत होगया था ।  जगत्‌में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं, अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता।  परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती।  सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे।  अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान्‌ की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है।  परन्तु इनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्रायः प्रतिकूल ही हुआ करती है।  क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनामें पूरी प्रतिकूलता रहती है।  

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५.  मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...