सोमवार, 3 अप्रैल 2023

साधक के लिए करणीय

 


यदि संभव हो तो सात दिन में एक बार, जिनसे स्वभाव मिलता हो— ऐसे सत्संगी भाइयों के साथ बैठकर आपस में विचार-विनिमय करें और उनके सामने अपने दोषों को बिना किसी संकोच तथा छिपाव के स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर दें तथा उनको हटाने के लिए उनसे परामर्श लें | ऐसा करने से साधक के दोष शीघ्र ही मिट जाते हैं |


...ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज




श्रीराम जय राम जय जय राम !

“तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । 
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥“
 
( हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चंदन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं )


शनिवार, 1 अप्रैल 2023

श्रीसीतारामाभ्यां नम:

“परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।“

( जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता )

-----श्रीरामचरितमानस(उत्तरकाण्ड), पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर


शुक्रवार, 31 मार्च 2023

आत्महत्या पाप है !


जो क्रोध में आकर अथवा किसी बात से दु:खी होकर आत्महत्या कर लेता है, वह दुर्गति में चला जाता है अर्थात् भूत-प्रेत-पिशाच बन जाता है | आत्महत्या करने वाला महापापी होता है | कारण कि यह मनुष्य- शरीर भगवत्प्राप्ति के लिए ही मिला है; अत: भगवत्प्राप्ति न करके अपने ही हाथ से मनुष्य-शरीर को खो देना बड़ा भारी पाप है, अपराध है दुराचार है | दुराचारी की सद्गति कैसे होगी ? 

अत:मनुष्य को कभी भी आत्महत्या करने का विचार मन में नहीं आने देना चाहिए |

--गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित दुर्गति से बचो नामक पुस्तक से


गुरुवार, 30 मार्च 2023

श्रीराम नवमी के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं !!



जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल ।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल ॥

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥ 
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥ 
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै ॥ 
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ॥ 
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥

योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए--- जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए । क्योंकि श्रीराम का जन्म सुख का मूल है ॥ 
दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए । मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई । नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने खास आयुध धारण किए हुए थे, दिव्य आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे । इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए ॥ दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ । वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं । श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं ॥ वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह भरे हैं । वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती । जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए । वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने पूर्व जन्म की सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का वात्सल्य- प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए) ॥ माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, मेरे लिए यह सुख परम अनुपम होगा । माता का यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक रूप होकर रोना शुरू कर दिया । 
तुलसीदासजी कहते हैं- जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और फिर संसार रूपी कूप में नहीं गिरते ॥ 

(गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81,  गीताप्रेस गोरखपुर


बुधवार, 29 मार्च 2023

गीता में ज्योतिष



महाप्रलयपर्यन्तं कालचक्रं प्रकीर्तितम् ।
कालचक्रविमोक्षार्थं श्रीकृष्णं  शरणं व्रज ॥

ज्योतिष में काल मुख्य है अर्थात् काल को लेकर ही ज्योतिष चलता है । उसी कालकों भगवान्‌ने अपना स्वरूप बताया है कि ‘गणना करनेवालों में मैं काल हूँ’‒‘कालः कलयतामहम्’ (१० । ३०) । उस कालकी गणना सूर्य से होती है । इसी सूर्य को भगवान्‌ ने ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’ (१० । २१) कहकर अपना स्वरूप बताया है ।

सत्ताईस नक्षत्र होते है । नक्षत्रों का वर्णन भगवान्‌ ने ‘नक्षत्राणामहं शशी’ (१० । २१) पदों से किया है । इनमेंसे सवा दो नक्षत्रों की एक राशि होती है । इस तरह सत्ताईस नक्षत्रों की बारह राशियों होती है । उन बारह राशियोंपर सूर्य भ्रमण करता है अर्थात् एक राशिपर सूर्य एक महीना रहता है । महीनों का वर्णन भगवान्‌ ने ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’ (१० । ३५) पदोंसे किया है । दो महीनोंकी एक ऋतु होती है, जिसका वर्णन ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ पदों से किया गया है । तीन ऋतुओं का एक अयन होता है । अयन दो होते हैं‒उत्तरायण और दक्षिणायन; जिनका वर्णन आठवें अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में हुआ है । इन दोनों अयनों को मिलाकर एक वर्ष होता है । लाखों वर्षोंका एक युग होता है [*] जिसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘सम्भवामि युगे युगे’ (४ ।८) पदों से किया है । ऐसे चार (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि) युगोंकी एक चतुर्युगी होती है । ऐसी एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन (सर्ग) और एक हजार चतुर्युगी की ही ब्रह्माकी एक रात (प्रलय) होती है, जिसका वर्णन आठवें अध्याय के सत्रहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है । इस तरह ब्रह्माकी सौ वर्षकी आयु होती है । ब्रह्मा की आयु पूरी होने पर महाप्रलय होता है, जिसमें सब कुछ परमात्मा में लीन हो जाता है । इसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘कल्पक्षये’ (९ । ७) पद से किया है । इस महाप्रलयमें केवल ‘अक्षयकाल’-रूप एक परमात्मा ही रह जाते है, जिसका वर्णन भगवान्‌ ने ‘अहमेवाक्षयः कालः’ (१० । ३३) पदोंसे किया है ।

तात्पर्य यह हुआ कि महाप्रलय तक ही ज्योतिष चलता है अर्थात् प्रकृतिके राज्य में ही ज्योतिष चलता है, प्रकृति से अतीत परमात्मा में ज्योतिष नहीं चलता । अतः मनुष्य को चाहिये कि वह इस प्राकृत कालचक्र से छूटनेके लिये, इससे अतीत होनेके लिये अक्षयकाल-रूप परमात्मा की शरण ले ।
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[*] सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षों का ‘सत्ययुग’, बारह लाख छियानबे हजार वर्षों का ‘त्रेतायुग’, आठ लाख चौसठ हजार वर्षोंका ‘द्वापरयुग’ और चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का ‘कलियुग’ होता है ।

‒---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


मंगलवार, 28 मार्च 2023

।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।



माँ ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत-से हैं, किंतु  उन सब में मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ; मेरे-जैसा चञ्चल  कोई विरला ही होगा ।शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है, क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना सम्भव है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः |
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे 
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||


श्री रामचन्द्र चरणौ शिरसा नमामि

“कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।“

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। [क्योंकि] इस युग में श्रीराम जी के निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार [रूपी समुद्र] से तर जाता है)


सोमवार, 27 मार्च 2023

पारब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 02)


श्रीराम, माँ कौसल्या से कहते हैं कि अब इस निर्गुण भक्ति का साधन बतलाता हूँ--- 

अपने धर्म का अत्यंत निष्काम भाव से आचरण करने से, अत्युत्तम हिंसाहीन कर्मयोग से  मेरे दर्शन, स्तुति, महापूजा, स्मरण और वंदन से, प्राणियों में मेरी भावना करने से, असत्य के त्याग और सत्संग से, महापुरुषों का अत्यन्त मान करने से, दु:खियों पर दया करने से, अपने समान पुरुषों से मैत्री करने से, वेदान्तवाक्यों का श्रवण करने से, मेरा नाम-संकीर्तन करने से, सत्संग और कोमलता से, अहंकार का त्याग करने से और मेरे भागवत-धर्मों की इच्छा करने से जिसका चित्त शुद्ध होगया है, वह पुरुष मेरे गुणों का श्रवण करने से ही अति सुगमता से मुझे प्राप्त करलेता है |  जिस प्रकार वायु के द्वारा गन्ध अपने आश्रय को छोड़कर घ्राणेन्द्रिय में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार योगाभ्यास में लगा हुआ चित्त आत्मा में लीन हो जाता है | 

समस्त प्राणियों में आत्मरूप से मैं ही स्थित हूँ, हे मात: ! उसे  न जानकर मूढ़ पुरुष केवल बाह्य भावना करता है | किन्तु क्रियासे उत्पन्न हुए  अनेक पदार्थों से भी मेरा संतोष नहीं होता | अन्य  जीवों का तिरस्कार करने वाले प्राणियों से  प्रतिमा में  पूजित होकर भी मैं वास्तव में पूजित नहीं होता | मुझ परमात्मदेव का अपने कर्मों द्वारा प्रतिमा आदि में तभी तक पूजन करना चाहिए जब तक कि समस्त प्राणियों में और अपने-आप में मुझे स्थित न जाने | जो अपने आत्मा और  परमात्मा में भेदबुद्धि करता है उस भेददर्शी को मृत्यु अवश्य भय उत्पन्न करती है,इसमें संदेह नहीं |

इसलिए अभेददर्शी भक्त समस्त परिछिन्न प्राणियों में स्थित मुझ एकमात्र परमात्मा का ज्ञान, मान और मैत्री आदि से पूजन करे | इस प्रकार मुझ शुद्ध चेतना को ही जीवरूप से स्थित जानकर बुद्धिमान पुरुष  अहर्निश सब प्राणियों को चित्त से ही प्रमाण करे | इसलिए जीव और ईश्वर का भेद कभी न देखे |  हे मात: ! मैंने तुमसे यह भक्तियोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया | इनमें से एक का भी अवलंबन करने से पुरुष आत्यन्तिक शुभ प्राप्त कर लेता है | अत: हे मात: ! मुझे सब प्राणियों के अन्त:करण में  स्थित जानते हुए अथवा पुत्ररूप से भक्तियोग के द्वारा नित्यप्रति स्मरण करते रहने से तुम शान्ति प्राप्त करोगी | 
भगवान् राम के ये वचन सुनकर कौसल्या जी आनंद से भर गयीं | और हृदय में निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करती हुई संसार-बन्धन को काटकर तीनों प्रकार की गतियों को पारकर परमगति को प्राप्त हुई |    

जय सियाराम जय सियाराम  !

-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ६८-८३
#मोक्ष प्राप्ति के मार्ग
#श्री राम गीता



पारब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 01)


एक दिन जब श्रीरघुनाथ जी एकांत में ध्यानमग्न थे, प्रियभाषिणी श्री कौसल्याजी ने उन्हें साक्षात् नारायण जानकर अति भक्तिभाव से उनके पास आ उन्हें प्रसन्न जान अतिहर्ष से विनयपूर्वक  कहा—

“ हे राम ! तुम संसार के आदिकारण  हो तथा स्वयं आदि,अंत और मध्य से रहित  हो | तुम परमात्मा, परानन्दस्वरूप.सर्वत्र पूर्ण, जीवरूप से शरीररूप पुर में शयन करने वाले सबके स्वामी हो; मेरे प्रबल पुण्य के उदय होने से ही तुमने मेरे गर्भ से जन्म लिया है | हे रघुश्रेष्ठ ! अब अन्त समय में मुझे आज ही (कुछ पूछने का) समय मिला है , अब तक मेरा अज्ञानजन्य संसारबन्धन पूर्णतया नहीं टूटा | हे विभो ! मुझे संक्षेप में कोई ऐसा उपदेश दीजिये जिससे अब भी मुझे भवबन्धन काटने वाला ज्ञान हो जाए |”

तब मातृभक्त,दयामय, धर्मपरायण भगवान् राम ने इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन कहने वाली अपनी जराजर्जरित शुभलक्षणा माता से कहा—

“मैंने  पूर्वकाल में मोक्षप्राप्ति के साधनरूप तीन मार्ग बतलाये हैं –कर्मयोग, ज्ञानयोग और  सनातन भक्तियोग | हे मात: ! (साधक के) गुणानुसार भक्ति के तीन भेद हैं | जिसका जैसा स्वभाव होता है उसकी भक्ति भी वैसे ही भेद वाली होती है | जो पुरुष हिंसा, दंभ या मात्सर्य के उद्देश्य से भक्ति करता है तथा जो भेददृष्टि वाला और क्रोधी होता है वह तामस भक्त माना गया है | जो फल की इच्छा वाला, भोग चाहने वाला तथा धन और यश की कामना वाला होता है  और भेदबुद्धि से अर्चा आदि में मेरी पूजा करता है वह रजोगुणी होता है | तथा जो पुरुष परमात्मा को अर्पण किये हुए कर्म-सम्पादन करने के लिए अथवा ‘करना चाहिए’ इस लिए भेदबुद्धि से कर्म करता है वह सात्त्विक है | जिसप्रकार गंगाजी का जल समुद्र में लीन होजाता है उसी प्रकार जब मनोवृत्ति मेरे गुणों के आश्रय से मुझ अनन्त गुणधाम में निरन्तर लगी रहे, तो वही मेरे निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है | मेरे प्रति जो निष्काम और अखण्ड भक्ति उत्पन्न होती है वह साधक को सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि और सायुज्य * -चार प्रकार की मुक्ति देती है; किन्तु उसके देने पर भी वे भक्तजन मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ ग्रहण नहीं करते | हे मात: ! भक्तिमार्ग का आत्यंतिक योग यही है | इसके द्वारा भक्त तीनों गुणों को पारकर मेरा ही रूप हो जाता है |
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*वैकुंठादि भगवान् के लोकों को प्राप्त करना ‘सालोक्य’ मुक्ति है | हर समय भगवान् ही के निकट रहना ‘सामीप्य’ है, भगवान् के समान ऐश्वर्य लाभ करना ‘सार्ष्टि’ है और भगवान् में लीन हो जाना ‘सायुज्य’ है |

#जय सियाराम जय सियाराम  !

(शेष आगामी पोस्ट में) 
-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ५३-६७
#मोक्ष प्राप्ति के मार्ग
#श्री राम गीता


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...