शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन.........

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युग में श्रीरामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है )


गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

राम राम रटते रहो जब लगि घट मे प्रान। कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।।

हनुमान जी का सिद्धांत है कि जीव चाहे लेटा हो या बैठा हो अथवा खडा ही क्यों न हो, जिस किसी भी दशा में श्रीराम नाम का स्मरण करके वह भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाता है |

“आसीनो वा शयानो वा तिष्ठन् वा यत्र कुत्र वा |
श्रीरामनाम संस्मृत्य याति तत्परमं पदम् ||”


बुधवार, 12 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 06)


सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्व

संसारमें एक तो प्रवृत्ति (करना) होती है और एक निवृत्ति (न करना) होती है । जिसका आदि और अन्त हो, वह क्रिया अथवा अवस्था कहलाती है । प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रवृत्ति क्रिया है, वैसे ही निवृत्ति भी क्रिया है । प्रवृत्ति निवृत्तिको और निवृत्ति प्रवृत्तिको जन्म देती है । क्रिया और अवस्थामात्र प्रकृतिकी ही होती है; तत्त्वकी नहीं । इस दृष्टिसे प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं । निर्विकल्प समाधितक प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी ‘व्युत्थान’ होता है । अतएव जागने, चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिके समान सोना, बैठना, मौन होना, मूर्छित होना, समाधिस्थ होना आदि भी क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ ही हैं ।

अवस्थासे अतीत जो अक्रिय परमात्मतत्त्व है, उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर वह तत्त्व नहीं बदलता । वह वास्तविक तत्त्व सहज-निवृत्तिरूप है । उस तत्त्वमें मनुष्यमात्रकी (स्वरूपसे) स्वाभाविक स्थिति है । वह परमतत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें स्वाभाविकरूपसे ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है । अतएव उस सहज-निवृत्तिरूप परमतत्त्वको जो चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे प्राप्त कर सकता है । आवश्यकता केवल प्राकृत-दृष्टियोंके प्रभावसे मुक्त होनेकी है ।

‘स्वयम्’ का प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । साधक प्रमादवश अपनी वास्तविक सत्ताको (जहाँसे ‘अहम्’ उठता है अथवा जो ‘अहम्’ का आधार है) भूलकर माने हुए ‘अहम्’ को ही (जो उत्पन्न होनेपर सत्तावान् है) अपनी सत्ता या अपना स्वरूप मान लेता है । माना हुआ ‘अहम्’ बदलता रहता है, पर वास्तविक तत्त्व (स्वरूप) कभी नहीं बदलता । इस माने हुए ‘अहम्’ को भगवान्‌ने इदंतासे कहा है; जैसे‒‘अहङ्कार इतीयम्’ (गीता ७ । ४) और ‘अपरा इयम्’ (गीता ७ । ५) । जबतक यह माना हुआ ‘अहम्’ रहता है तबतक साधकका प्रकृति-(प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप अवस्था-) से सम्बन्ध बना रहता है, और उसमें साधक निवृत्तिको अधिक महत्त्व देता रहता है । यह ‘अहम्’ प्रवृत्तिमें ‘कार्य’-रूपसे और निवृत्तिमें ‘कारण’-रूपसे रहता है । ‘अहम्’ का नाश होते ही प्रवृत्ति और निवृत्तिसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषका प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता । ऐसा होनेपर प्रवृत्ति और निवृत्तिका नाश नहीं होता, अपितु उनका बाह्य चित्रमात्र रहता है । इस प्रकार वास्तविक तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिके अनुभवको ही दार्शनिकोंने सहज-निवृत्ति, सहजावस्था, सहज-समाधि आदि नामोंसे कहा है ।
 
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे माने हुए प्रत्येक संयोगका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । कारण यह है कि संसारसे माना हुआ संयोग अस्वाभाविक और उसका वियोग स्वाभाविक है । विचारपूर्वक देखा जाय तो संयोगकालमें भी वियोग ही है अर्थात् संयोग है ही नहीं । परंतु संसारसे माने हुए संयोगमें सद्‌भाव (सत्ता-भाव) कर लेनेसे वियोगका अनुभव नहीं हो पाता । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो जिसका वियोग होता है, उस प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । जैसे, बाल्यावस्थासे वियोग हो गया, तो अब उसकी सत्ता कहाँ है ? जैसे वर्तमानमें भूतकालकी सत्ता नहीं है, वैसे ही वर्तमान और भविष्यत्कालकी भी सत्ता नहीं है । जहाँ भूतकाल चला गया, वहीं वर्तमान जा रहा है और भविष्यत्काल भी वहीं चला जायगा । इसीलिये भगवान्‌ने गीतामें कहा है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥“
                                         ...................(२ । १६)

‘असत्‌ की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी महापुरुषोंके द्वारा देखा गया है ।’

प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे वियोगका अनुभव होनेपर सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्वका ज्ञान हो जाता है और वियुक्त होनेवाले संसारकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार न करनेसे वह तत्त्वज्ञान दृढ़ हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे



मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 05)


साध्यतत्त्व की एकरूपता

जैसे नेत्र तथा नेत्रों से दीखने वाला दृश्य‒दोनों सूर्य से प्रकाशित होते हैं, वैसे ही बहिःकरण, अन्तःकरण, विवेक आदि सब उसी परम प्रकाशक तत्त्व से प्रकाशित होते हैं‒‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ (श्वेताश्वतर॰ ६ । १४) । जो वास्तविक प्रकाश अथवा तत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनों का आधार है । जितने भी दार्शनिक हैं, प्रायः उन सबका तात्पर्य उसी तत्त्व को प्राप्त करने में है । दार्शनिकों की वर्णन-शैलियाँ तथा साधन-पद्धतियाँ तो अलग-अलग हैं, पर उनका तात्पर्य एक ही है । साधकों में रुचि, विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण उनके साधनों में तो भेद हो जाते हैं, पर उनका साध्यतत्त्व वस्तुतः एक ही होता है ।

“नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधरसे, आगे अस्थल एक ॥“

दिशाओं की भिन्नता के कारण नगर में जाने के अलग-अलग मार्ग होते हैं । नगर में कोई पूर्व से, कोई पश्रिम से, कोई उत्तर से और कोई दक्षिण से आता है; परन्तु अन्त में सब एक ही स्थान पर पहुँचते हैं । इसी प्रकार साधकों की स्थिति की भिन्नता के कारण साधन-मार्गोंमें भेद होने पर भी सब साधक अन्त में एक ही तत्त्व को प्राप्त होते हैं । इसीलिये संतों ने कहा है‒

“पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥“

प्रत्येक मनुष्य की भोजन की रुचि में दूसरे से भिन्नता रहती है; परंतु ‘भूख’ और ‘तृप्ति’ सब की समान ही होती है अर्थात् अभाव और भाव सब के समान ही होते हैं । ऐसे ही मनुष्यों की वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा आदि में बहुत भेद रहते हैं; परंतु ‘रोना’ और ‘हँसना’ सब के समान ही होते हैं अर्थात् दुःख और सुख सब को समान ही होते हैं । ऐसा नहीं होता कि यह रोना या हँसना तो मारवाड़ी है, यह गुजराती है, यह बँगाली है आदि ! इसी प्रकार साधन-पद्धतियोमें भिन्नता रहने पर भी साध्य की ‘अप्राप्तिका दुःख’ और ‘प्राप्तिका आनन्द’ सब साधकों को समान ही होते हैं ।

वह परमात्मतत्त्व ही ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करता है, विष्णुरूप से सब का पालन-पोषण करता है और रुद्ररूप से सबका संहार करता है‒‘भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥’ (गीता १३ । १६) । वही तत्त्व अनेक अवतार लेकर, अनेक रूपों में लीला करता है । इस प्रकार अनेक रूपों से दीखने पर भी वह तत्त्व वस्तुतः एक ही रहता है और तत्त्व-दृष्टि से एक ही दीखता है । इस तत्त्वदृष्टि की प्राप्ति को ही दार्शनिकों ने मोक्ष, परमात्मप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान आदि नामोंसे कहा है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


सोमवार, 10 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 04)



जिस प्रकार प्रकाश बल्ब में नहीं होता, अपितु बल्ब में आता है, उसी प्रकार यह अनादिसिद्ध विवेक भी बुद्धि में पैदा नहीं होता, अपितु बुद्धि में आता है । इन्द्रियदृष्टि की अपेक्षा बुद्धिदृष्टि की प्रधानता होनेसे विवेक विशेष स्फुरित होता है, जिससे सत्‌ की सत्ता और असत्‌ के अभाव का अलग-अलग ज्ञान हो जाता है । विवेकपूर्वक असत्‌ का त्याग कर देनेपर जो शेष रहता है, वही तत्त्व है । तत्त्वदृष्टि से देखनेपर एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वके सिवा संसार, शरीर, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचिन्मात्र भी नहीं रहती । तब एकमात्र ‘वासुदेवः सर्वम्’‒‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका बोध हो जाता है ।

इस प्रकार यह संसार बहिकरण-(इन्द्रियाँ-) से देखनेपर नित्य एवं सुखदायी, अन्तःकरण-(बुद्धि-) से देखनेपर अनित्य एवं दुःखदायी तथा तत्त्वसे देखनेपर परमात्मस्वरूप दिखायी देता है ।

साधककी विवेकदृष्टि और सिद्धकी तत्त्वदृष्टिमें अन्तर यह है कि विवेकदृष्टिसे सत् और असत्-दोनों अलग-अलग दीखते हैं और सत्‌का अभाव नहीं एवं असत्‌का भाव नहीं‒ऐसा बोध होता है । इस प्रकार विवेकदृष्टिका परिणाम होता है‒असत्‌के त्यागपूर्वक सत्‌की प्राप्ति । जहाँ सत्‌की प्राप्ति होती है वहाँ तत्त्वदृष्टि रहती है । तत्त्वदृष्टिसे संसार कभी सत्यरूपसे प्रतीत नहीं होता । तात्पर्य है कि विवेकदृष्टिमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं और तत्त्वदृष्टिमें केवल सत् रहता है ।

विवेकको महत्त्व देनेसे इन्द्रियों का ज्ञान लीन हो जाता है । उस विवेकसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, वहाँ विवेक भी लीन हो जाता है ।

वास्तविक दृष्टि‒- वस्तुतः तत्त्वदृष्टि ही वास्तविक दृष्टि है । इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि वास्तविक नहीं है; क्योंकि जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी ये दृष्टियाँ हैं । अतः ये दृष्टियाँ सांसारिक अथवा पारमार्थिक विषयमें पूर्ण निर्णय नहीं कर सकतीं । तत्त्वदृष्टिमें ये सब दृष्टियाँ लीन हो जाती हैं । जैसे रात्रिमें बल्ब जलानेसे प्रकाश होता है; परंतु वही बल्ब यदि मध्याह्नकालमें (दिनके प्रकाशमें) जलाया जाता है तो उसके प्रकाश का भान तो होता है, पर उस प्रकाश का (सूर्य के प्रकाश के सामने) कोई महत्त्व नहीं रहता; वैसे ही इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि अज्ञान (अविद्या) अथवा संसारमें तो काम करती हैं; पर तत्त्वदृष्टि हो जानेपर इन दृष्टियोंका उसके (तत्त्वदृष्टिके) सामने कोई महत्त्व नहीं रह जाता । ये दृष्टियाँ नष्ट तो नहीं होतीं, पर प्रभावहीन हो जाती हैं । केवल सच्चिदानन्दरूपसे एक ज्ञान शेष रह जाता है; उसीको भगवत्तत्त्व या परमात्मतत्त्व कहते हैं । वही वास्तविक तत्त्व है । शेष सब अतत्त्व हैं ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 9 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 03)


वह तत्त्व ही संसाररूपसे भास रहा है । परंतु जबतक उधर दृष्टि नहीं जाती, तबतक संसार-ही-संसार दीखता है, तत्त्व नहीं । जैसे, जबतक ‘यह गंगाजी हैं’‒इस तरफ दृष्टि नहीं जाती, तबतक वह साधारण नदी ही दीखती है । परमात्मतत्त्व तत्त्वदृष्टिसे ही देखा जा सकता है ।

तीन प्रकारकी दृष्टियाँ :

मनुष्यकी दृष्टियाँ तीन प्रकारकी हैं‒ 

(१) इन्द्रियदृष्टि (बहिःकरण) [*], 
(२) बुद्धिदृष्टि (अन्तःकरण) [**] ...और 
(३) तत्त्वदृष्टि (स्वरूप)[***]   
---‒ये तीनों दृष्टियाँ क्रमशः एक-एकसे सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ हैं ।

संसार असत् और अस्थिर होते हुए भी इन्द्रियदृष्टि से देखनेपर सत् एवं स्थिर प्रतीत होता है, जिससे संसारमें राग हो जाता है । बुद्धिदृष्टिमें वस्तुतः विवेक ही प्रधान है । जब बुद्धिमें भोगों-(इन्द्रियों तथा उनके विषयों-) की प्रधानता नहीं होती, अपितु विवेककी प्रधानता होती है, तब बुद्धिदृष्टिसे संसार परिवर्तनशील और उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला दीखता है, जिससे संसारसे वैराग्य हो जाता है ।

जड-चेतन, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दो वस्तुओंके अलग-अलग ज्ञानको ‘विवेक’ कहते हैं । यह विवेक प्राणिमात्रमें स्वतः विद्यमान है । पशुपक्षियोंमें शरीर-निर्वाहके योग्य ही (खाद्य-अखाद्यका) विवेक रहता है; परंतु मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे जाग्रत् होता है । विवेक अनादि है । भगवान् कहते हैं‒

“प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।“
                                               . ..............(गीता १३ । १९)
(प्रकृति और पुरुष‒इन दोनोंको ही तू अनादि जान)|

‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभौ’ (दोनों) पदसे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, वैसे ही इन दोनोंका भेद ज्ञानरूप विवेक भी अनादि है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ ॥ (गीता २ । १६) ‘तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्-असत् दोनोंका ही तत्त्व देखा है’‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभयोः’ पदसे भी यही बात सिद्ध होती है ।

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[*] यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
    अतत्त्वार्थवदल्पं च  तत्तामसमुदाहृतम् ॥
   ............(१८  । २२)
[**] सर्वभूतेषु    येनैकं          भावमव्ययमीक्षते ।
      विभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
       ...............(१८ । २०)
[***] बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
       वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
    ..............(७ । १९)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शनिवार, 8 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 02)


यदि साधक की समझ में यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्ग से भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व की प्राप्ति बहुत सुगमता से हो सकती है [*] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । उनका कभी कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कठिनता का प्रश्न ही नहीं है । नित्यप्राप्त परमात्मा की प्राप्ति में कठिनाई प्रतीत होने का प्रधान कारण है‒सांसारिक सुखकी इच्छा । इसी कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको परिश्रम-साध्य एवं कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्व की प्राप्ति में कठिनता नहीं है, प्रत्युत संसार के त्याग में कठिनता है, जो कि निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्व का सुगमता से अनुभव करने के लिये संसार से माने हुए संयोग का वर्तमान में ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है, जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुख की इच्छा का परित्याग कर दिया जाय ।

तत्त्व-दृष्टिसे एक परमात्मतत्त्व के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं----ऐसा ज्ञान हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरणके चक्रमें नहीं पड़ता । भगवान् कहते हैं‒

“यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।“
 ...................(गीता ४ । ३५)
‘जिसे जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।’

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[*] कर्मयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--

“ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि  महाबाहो   सुखं   बन्धात्प्रमुच्यते ॥“
...........(गीता ५ । ३)

‘हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।’

ज्ञानयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--

“युञ्जन्नेवं सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन   ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं    सुखमश्नुते ॥“
  ........(गीता ६ । २८)

‘अपने-आप को सदा परमात्मा में लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुख को प्राप्त हो जाता है ।’

भक्तियोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒

“अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥“
   .....(गीता ८ । १४)

‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुगमतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’

[ इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकमें ‘गीतामें तीनों योगोंकी समानता’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । ]

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 01)



भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व वह तत्त्व है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता, जो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है, जो सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप है और जो जीवमात्रका वास्तविक स्वरूप है । वह एक ही तत्त्व निर्गुण-निराकार होनेसे ‘ब्रह्म’, सगुण-निराकार होनेसे ‘परमात्मा’ तथा सगुण-साकार होनेसे ‘भगवान्’ नामसे कहा जाता है‒--

“वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं  यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥“
                           …………………..(श्रीमद्भागवत १ । २ । ११)

वही एक तत्त्व संसारमें अनेक रूपोंसे भास रहा है । जिस प्रकार स्वर्णसे बने गहनोंमें नाम, आकृति, उपयोग, तौल और मूल्य अलग-अलग होते हैं एवं ऊपरसे मीना आदि होनेसे रंग भी अलग-अलग होते हैं, परंतु इतना होनेपर भी स्वर्णतत्त्वमें कोई अन्तर नहीं आता, वह वैसा-का-वैसा ही रहता है । इसी प्रकार जो कुछ भी देखने, सुनने, जाननेमें आता है, उन सबके मूलमें एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है; इसीके अनुभवको गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है (७ । १९) ।

इस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये संसारमें तीन योग मुख्य माने जाते हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर भगवत्तत्त्वको प्राप्त हो जाता है‒

“यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥“
                                 ……………..(गीता ४ । २३)
“योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥“
                                 ……………..(गीता ५ । ६)
ज्ञानयोगमें साधक परमात्माको तत्त्वसे जानकर उनमें प्रविष्ट हो जाता है‒--
“ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।“
                                 ………………(गीता १८ । ५५)

भक्तियोगमें साधक अनन्यभक्तिसे भगवान्‌को तत्त्वसे जान लेता है, उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है और उनमें प्रविष्ट हो जाता है । गीतामें भगवान् कहते हैं‒

“भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन   प्रवेष्टुं  च  परन्तप ॥“
                        …………………(११ । ५४)

साधक अपनी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार चाहे योगमार्गसे चले, चाहे ज्ञानमार्गसे चले, चाहे भक्तिमार्गसे चले, अन्तमें इन सभी मार्गोंके साधकोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है । वही एक तत्त्व शास्त्रोंमें अनेक नामोंसे वर्णित हुआ है । उस तत्त्वका अनुभव होनेके बाद फिर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


बुधवार, 5 अप्रैल 2023

कलियुग में नाम-महिमा



“भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान करो ॥ १ ॥
करम, उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो ।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो ॥ २ ॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो ।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परूसि धरो ॥ ३ ॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहिं कुंजरो-नरो ।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि-कटक तरो ॥ ४ ॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो ।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो ।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥“
                  ………………..(विनय-पत्रिका, पद २२६)

जिसे दूसरे का भरोसा हो, वह भले ही करे, पर मेरे तो यह ‘राम’ नाम ही कल्पवृक्ष है । अन्त में कहते हैं‒‘मेरे तो माय-बाप दोउ आखर’‒मेरे तो माँ-बाप ये दोनों अक्षर ‘र’ और ‘म’ हैं । मैं तो इनके आगे बच्चेकी तरह अड़ रहा हूँ । यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शंकर साक्षी हैं; मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय । गवाही देनेवालेसे कहा जाता है कि ‘सच्चा-सच्चा कहते हो न ? तो गंगाजल उठाओ सिरपर !’ ऐसे भगवान् शंकर जो गंगाको हर समय सिरपर अपनी जटामें धारण किये हुए रहते हैं, उनकी साक्षी में कहता हूँ । वे कहते हैं तुलसीदासको तो यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक ‘राम’ नामसे ही हो सकता है । इस प्रकार ‘राम’ नाम लेनेसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं । कितनी बढ़िया बात है !

“नहि कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम   नाम    अवलंबन      एकू ॥
कालनेमि  कलि   कपट   निधानू ।
नाम   सुमति  समरथ    हनुमानू ॥“
                          ……………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २७ । ७-८)

वेदोंमें तीन काण्ड हैं‒कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । इसलिये कहते हैं कि कलियुग में कर्म का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते, भक्ति का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते और ‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ वह तो कड़ा है ही, कर ही नहीं सकते । तो कहते हैं एक  ‘राम’ नाम ही अवलम्बन है उसके लिये ।

यह कलियुग महाराज कालनेमि राक्षस है, कपट का खजाना है और नाम महाराज हनुमान्‌ जी हैं । हनुमान्‌जी संजीवनी लेने के लिये जा रहे थे । रास्ते में प्यास लग गयी । मार्ग में कालनेमि तपस्वी बना हुआ बड़ी सुन्दर जगह आश्रम बनाकर बैठ गया । रावण ने यह सुन लिया था कि हनुमान्‌ जी संजीवनी लाने जा रहे हैं और संजीवनी सूर्योदय से पहले दे देंगे तब तो लक्ष्मण जी जायगा और नहीं तो मर जायगा । इसलिये किसी तरहसे हनुमान्‌ को रोकना चाहिये । कालनेमि ने कहा कि ‘मैं रोक लूँगा ।’ वह तपस्वी बनकर बैठ गया । हनुमान्‌जीने साधु देखकर उसे नमस्कार किया । ‘तुम कैसे आये हो ?’ ‘महाराज ! प्यास लग गयी ।’ तो बाबाजी कमण्डलु का जल देने लगा । ‘इतने जल से मेरी तृप्ति नहीं होगी ।’ ‘अच्छा, जाओ, सरोवर में पी आओ ।’ वहाँ गये तो मकरी ने पैर पकड़ लिया, उसका उद्धार किया । उसने सारी बात बतायी कि ‘महाराज ! यह कालनेमि राक्षस है और आपको कपट करके ठगने के लिये बैठा है ।’ हनुमान्‌ जी लौटकर आये तो वह बोला‒‘लो भाई, आओ ! दीक्षा दें तुम्हारे को ।’ हनुमान्‌जी ने कहा‒‘महाराज, पहले गुरुदक्षिणा तो ले लीजिये ।’ पूँछ में लपेट कर ऐसा पछाड़ा कि प्राणमुक्त कर दिये । कलियुग कपट का खजाना है । जो नाम महाराज का आश्रय ले लेता है, वह कपट में नहीं आता ।

राम !   राम !!   राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

।। श्री जानकीवल्लभो विजयते।।

हे राघव ! सीता के सहित आप सर्वदा मेरे हृदय में निवास करें; मुझे चलते-फिरते सदा आपका स्मरण बना रहे ॥

(सदा मे सीतया सार्धं हृदये वस राघव ।
गच्छतस्तिष्ठतो वापि स्मृतिः स्यान्मे सदा त्वयि)
          ....अध्यात्मरामायण (३-४-४४)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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