“भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान करो ॥ १ ॥
करम, उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो ।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो ॥ २ ॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो ।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परूसि धरो ॥ ३ ॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहिं कुंजरो-नरो ।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि-कटक तरो ॥ ४ ॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो ।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो ।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥“
………………..(विनय-पत्रिका, पद २२६)
जिसे दूसरे का भरोसा हो, वह भले ही करे, पर मेरे तो यह ‘राम’ नाम ही कल्पवृक्ष है । अन्त में कहते हैं‒‘मेरे तो माय-बाप दोउ आखर’‒मेरे तो माँ-बाप ये दोनों अक्षर ‘र’ और ‘म’ हैं । मैं तो इनके आगे बच्चेकी तरह अड़ रहा हूँ । यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शंकर साक्षी हैं; मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय । गवाही देनेवालेसे कहा जाता है कि ‘सच्चा-सच्चा कहते हो न ? तो गंगाजल उठाओ सिरपर !’ ऐसे भगवान् शंकर जो गंगाको हर समय सिरपर अपनी जटामें धारण किये हुए रहते हैं, उनकी साक्षी में कहता हूँ । वे कहते हैं तुलसीदासको तो यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक ‘राम’ नामसे ही हो सकता है । इस प्रकार ‘राम’ नाम लेनेसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं । कितनी बढ़िया बात है !
“नहि कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम नाम अवलंबन एकू ॥
कालनेमि कलि कपट निधानू ।
नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥“
……………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २७ । ७-८)
वेदोंमें तीन काण्ड हैं‒कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । इसलिये कहते हैं कि कलियुग में कर्म का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते, भक्ति का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते और ‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ वह तो कड़ा है ही, कर ही नहीं सकते । तो कहते हैं एक ‘राम’ नाम ही अवलम्बन है उसके लिये ।
यह कलियुग महाराज कालनेमि राक्षस है, कपट का खजाना है और नाम महाराज हनुमान् जी हैं । हनुमान्जी संजीवनी लेने के लिये जा रहे थे । रास्ते में प्यास लग गयी । मार्ग में कालनेमि तपस्वी बना हुआ बड़ी सुन्दर जगह आश्रम बनाकर बैठ गया । रावण ने यह सुन लिया था कि हनुमान् जी संजीवनी लाने जा रहे हैं और संजीवनी सूर्योदय से पहले दे देंगे तब तो लक्ष्मण जी जायगा और नहीं तो मर जायगा । इसलिये किसी तरहसे हनुमान् को रोकना चाहिये । कालनेमि ने कहा कि ‘मैं रोक लूँगा ।’ वह तपस्वी बनकर बैठ गया । हनुमान्जीने साधु देखकर उसे नमस्कार किया । ‘तुम कैसे आये हो ?’ ‘महाराज ! प्यास लग गयी ।’ तो बाबाजी कमण्डलु का जल देने लगा । ‘इतने जल से मेरी तृप्ति नहीं होगी ।’ ‘अच्छा, जाओ, सरोवर में पी आओ ।’ वहाँ गये तो मकरी ने पैर पकड़ लिया, उसका उद्धार किया । उसने सारी बात बतायी कि ‘महाराज ! यह कालनेमि राक्षस है और आपको कपट करके ठगने के लिये बैठा है ।’ हनुमान् जी लौटकर आये तो वह बोला‒‘लो भाई, आओ ! दीक्षा दें तुम्हारे को ।’ हनुमान्जी ने कहा‒‘महाराज, पहले गुरुदक्षिणा तो ले लीजिये ।’ पूँछ में लपेट कर ऐसा पछाड़ा कि प्राणमुक्त कर दिये । कलियुग कपट का खजाना है । जो नाम महाराज का आश्रय ले लेता है, वह कपट में नहीं आता ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे