उपसंहार (i)
उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे अतीत एवं प्राकृत दृष्टियोंसे अगोचर जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनोंका आधार एवं सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम लक्ष्य है । उसका अनुभव करके कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्रातव्य हो जानेके लिये ही मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । मनुष्य यदि चाहे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग‒किसी भी एक योगमार्गका अनुसरण करके उस तत्त्वको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है । उसे चाहिये कि वह इन्द्रियाँ और उनके विषयोंको महत्त्व न देकर विवेक-विचारको ही महत्त्व दे और ‘असत्’ से माने हुए सम्बन्धमें सद्भावका त्याग करके ‘सत्’ का अनुभव कर ले ।
सत्ता दो प्रकारकी होती है‒पारमार्थिक और सांसारिक । पारमार्थिक सत्ता तो स्वतःसिद्ध (अविकारी) है, पर सांसारिक सत्ता उत्पन्न होकर होनेवाली (विकारी) है । साधकसे भूल यह होती है कि वह विकारी सत्ताको स्वतःसिद्ध सत्तामें मिला लेता है, जिससे उसे संसार सत्य प्रतीत होने लगता है अर्थात् वह संसारको सत्य मानने लगता है [*] । इस कारण वह राग-द्वेषके वशीभूत हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह विवेकदृष्टिको महत्त्व देकर पारमार्थिक सत्ताकी सत्यता एवं सांसारिक सत्ताकी असत्यताको अलग-अलग पहचान ले । इससे उसके राग-द्वेष बहुत कम हो जाते हैं । विवेकदृष्टिकी पूर्णता होनेपर साधकको तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे उसमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं और उसे भगवत्तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।
------------------------------------------
[*] अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमं ततो द्वयम् ॥
…………(वाक्यसुधा २०)
‘अस्ति, भाति, प्रिय, रूप तथा नाम‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्मके रूप हैं और अन्तिम दो जगत्के ।’
‒इस श्लोकमें आया ‘अस्ति' पद परमात्माके स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूपका वाचक है और‒
जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
………..(निरुक्त १ । १ । २)
‘उत्पन्न होना, अस्तित्व धारण करना, सत्तावान् होना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार कहे गये हैं ।’ यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसारके विकारी स्वरूपका वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप ‘अस्ति’ में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )