रविवार, 16 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 10)



उपसंहार (i)

उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे अतीत एवं प्राकृत दृष्टियोंसे अगोचर जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनोंका आधार एवं सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम लक्ष्य है । उसका अनुभव करके कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्रातव्य हो जानेके लिये ही मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । मनुष्य यदि चाहे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग‒किसी भी एक योगमार्गका अनुसरण करके उस तत्त्वको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है । उसे चाहिये कि वह इन्द्रियाँ और उनके विषयोंको महत्त्व न देकर विवेक-विचारको ही महत्त्व दे और ‘असत्’ से माने हुए सम्बन्धमें सद्भावका त्याग करके ‘सत्’ का अनुभव कर ले ।

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒पारमार्थिक और सांसारिक । पारमार्थिक सत्ता तो स्वतःसिद्ध (अविकारी) है, पर सांसारिक सत्ता उत्पन्न होकर होनेवाली (विकारी) है । साधकसे भूल यह होती है कि वह विकारी सत्ताको स्वतःसिद्ध सत्तामें मिला लेता है, जिससे उसे संसार सत्य प्रतीत होने लगता है अर्थात् वह संसारको सत्य मानने लगता है [*] । इस कारण वह राग-द्वेषके वशीभूत हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह विवेकदृष्टिको महत्त्व देकर पारमार्थिक सत्ताकी सत्यता एवं सांसारिक सत्ताकी असत्यताको अलग-अलग पहचान ले । इससे उसके राग-द्वेष बहुत कम हो जाते हैं । विवेकदृष्टिकी पूर्णता होनेपर साधकको तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे उसमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं और उसे भगवत्तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

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[*] अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमं ततो द्वयम् ॥
…………(वाक्यसुधा २०)

‘अस्ति, भाति, प्रिय, रूप तथा नाम‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्मके रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌के ।’
‒इस श्लोकमें आया ‘अस्ति' पद परमात्माके स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूपका वाचक है और‒

जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
………..(निरुक्त १ । १ । २)

‘उत्पन्न होना, अस्तित्व धारण करना, सत्तावान् होना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार कहे गये हैं ।’ यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसारके विकारी स्वरूपका वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप ‘अस्ति’ में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शनिवार, 15 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 09)


ज्ञानीके व्यवहार की विशेषता

तत्त्वज्ञान होनेसे पूर्वतक साधक (अन्तःकरणको अपना माननेके कारण) तत्त्वमें अन्तःकरणसहित अपनी स्थिति मानता है । ऐसी स्थितिमें उसकी वृत्तियाँ व्यवहारसे हटकर तत्त्वोन्मुखी हो जाती हैं, अतः उसके द्वारा संसारके व्यवहारमें भूलें भी हो सकती हैं । अन्तःकरण-(जडता-) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर जड-चेतनके सम्बन्धसे होनेवाला सूक्ष्म ‘अहम्’ पूर्णतः नष्ट हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्वरूपमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक स्थिति रहती है । इसलिये साधनावस्थामें अन्तःकरणको लेकर तत्त्वमें तल्लीन होनेके कारण जो व्यवहारमें भूलें हो सकती हैं, वे भूलें सिद्धावस्थाको प्राप्त तत्त्वज्ञ पुरुषके द्वारा नहीं होतीं, अपितु उसका व्यवहार स्वतः स्वाभाविक सुचारुरूपसे होता है और दूसरोंके लिये आदर्श होता है [*] । इसका कारण यह है कि अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्थिति तो अपने स्वाभाविक स्वरूप अर्थात् तत्त्वमें हो जाती है और अन्तःकरणकी स्थिति अपने स्वाभाविक स्थान‒शरीर-(जडता-) में हो जाती है । ऐसी स्थितिमें तत्त्व तो रहता है, पर तत्त्वज्ञ (तत्त्वका ज्ञाता) नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व (अहम्) पूर्णतः मिट जाता है । व्यक्तित्वके मिटनेपर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ? उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें अन्तकरणसहित संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी सत्ताका भाव नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है । अन्तःकरणसे अपना कोई सम्बन्ध न रहनेपर उसका अन्तःकरण मानो जल जाता है । जैसे गैसकी जली हुई बत्तीसे विशेष प्रकाश होता है, वैसे ही उस जले हुए अन्तःकरणसे विशेष ज्ञान प्रकाशित होता है ।

जिस प्रकार परमात्माकी सत्ता-स्फूर्तिसे संसारमात्रका व्यवहार चलते रहनेपर भी परमात्मतत्त्व- (ब्रह्म-) में किंचित भी अन्तर नहीं आता, उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुषके स्वभाव [†], जिज्ञासुओंकी जाननेकी अभिलाषा [‡] और भगवत्प्रेरणा [§]‒-- इनके द्वारा तत्त्वज्ञ पुरुषके शरीरसे सुचारु रूप से व्यवहार होते रहने पर भी उसके स्वरूप में किंचित भी अन्तर नहीं आता । उसमें स्वतःसिद्ध निर्लिप्तता रहती है [**] । जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तब तक उसके अन्तःकरण और बहिःकरणसे आदर्श व्यवहार होता रहता है ।

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[*] “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥“
…………………….(गीता ३ । २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ (वचनोंसे) प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं ।’

[†] “सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥“
……………….(गीता ३ । ३३)

[‡] “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥“
……………..(गीता ४ । ३४)

[§] अहम्‌का नाश होनेपर तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्‌के साथ एकता हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), अतः उसके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाएँ भगवत्प्रेरित ही होती हैं ।

[**] अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥…(गीता १३ । ३१)
प्रकाश च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥“…(गीता १४ । २२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥“…(गीता १४ । २३)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 08)



व्यवहार के विविध रूप

साधारण (विषयी) पुरुष, विवेकी (साधक) पुरुष और तत्त्वज्ञ (सिद्ध) पुरुष‒तीनोंके भाव अलग-अलग होते हैं । साधारण पुरुष संसारको सत् मानकर राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं । इसके आगे विचारदृष्टिकी प्रधानतावाले विवेकी पुरुषका व्यवहार राग-द्वेषरहित एवं शास्त्रविधिके अनुसार होता है[*] । विवेकदृष्टिकी प्रधानता रहनेके कारण‒किंचित राग-द्वेष रहनेपर भी उसका (विवेकदृष्टि-प्रधान साधकका) व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक नहीं होता अर्थात् वह राग-द्वेषके वशीभूत होकर व्यवहार नहीं करता[**] । उसमें राग-द्वेष बहुत कम‒नहींके बराबर रहते हैं । जितने अंशमें अविवेक रहता है, उतने ही अंशमें राग-द्वेष रहते हैं । जैसे-जैसे विवेक जाग्रत् होता जाता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं और वैराग्य बढ़ता चला जाता है । वैराग्य बढ़नेसे बहुत सुख मिलता है; क्योंकि दुःख तो रागमें ही है[***] । पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर राग-द्वेष पूर्णतः मिट जाते हैं । विवेकी पुरुषको संसारकी सत्ता दर्पणमें पड़े हुए प्रतिबिम्बके समान असत् दीखती है । इसके आगे तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञ पुरुष स्वप्नकी स्मृतिके समान संसारको देखता है । इसलिये बाहरसे व्यवहार समान होनेपर भी विवेकी और तत्त्वज्ञ पुरुषके भावोंमें अत्यन्त अन्तर रहता है ।

साधारण पुरुषमें इन्द्रियोंकी, साधक पुरुषमें विवेक-विचारकी और सिद्ध पुरुषमें स्वरूपकी प्रधानता रहती है । साधारण पुरुषके राग-द्वेष पत्थरपर पड़ी लकीरके समान (दृढ़) होते हैं । विवेकी पुरुषके राग-द्वेष आरम्भमें बालूपर पड़ी लकीरके समान एवं विवेककी पूर्णता होनेपर जलपर पड़ी लकीरके समान होते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुषके राग-द्वेष आकाशमें पड़ी लकीरके समान (जिसमें लकीर खिंचती ही नहीं, केवल अँगुली दीखती है) होते हैं; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती ।

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[*] “तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
.........................(गीता १६ । २४)

‘तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’

[**] “इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥“
......................(गीता ३ । ३४)

‘इन्द्रिय, इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण-मार्गमें विघ्र करनेवाले महान् शत्रु हैं ।’

[***] साधकको चाहिये कि वह इस साधनजन्य सुखमें सन्तोष अथवा सुखका भोग न करें भगवान् कहते हैं कि‒---

“तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसड्‌गेन चानघ ॥“
.........................(गीता १४ । ६)

‘हे निष्पाप अर्जुन ! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है । वह सुखके सम्बन्ध (भोग) से और ज्ञानके सम्बन्ध-(अभिमान-) से साधकको बाँधता है ।’

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 07)


तत्त्वप्राप्तिका उपाय

तत्त्वको प्राप्त करनेका सर्वोत्तम उपाय है‒एकमात्र तत्त्वप्राप्तिका ही उद्देश्य बनाना । वास्तवमें उद्देश्य पहले बना है और उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मनुष्य-शरीर पीछे मिला है । परंतु मनुष्य भोगोंमें आसक्त होकर अपने उस (तत्त्व-प्राप्तिके) उद्देश्यको भूल जाता है । इसलिये उस उद्देश्यको पहचानकर उसकी सिद्धिका दृढ़ निश्रय करना है । उद्देश्यपूर्तिका निश्चय जितना दृढ़ होता है, उतनी ही तेजीसे साधक तत्त्वप्राप्तिकी ओर अग्रसर होता है । उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये सबसे पहले साधक बहिःकरण-(इन्द्रियदृष्टि-) को महत्त्व न देकर अन्तःकरण-(बुद्धि अथवा विचारदृष्टि-) को महत्त्व दे । विचारदृष्टिसे दिखायी देगा कि जितने भी शरीरादि सांसारिक पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पत्तिसे पहले भी नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे एवं वर्तमानमें भी वे निरन्तर बदल रहे हैं । तात्पर्य यह कि सब पदार्थ आदि और अन्तवाले हैं । जो पदार्थ आदि और अन्तवाला होता है, वह वास्तवमें होता ही नहीं; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो पदार्थ आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका) । इस प्रकार विचार-दृष्टिको महत्त्व देनेसे सत् और असत्, प्रकृति और पुरुषके अलग-अलग ज्ञान-(विवेक-) का अनुभव हो जाता है और साधकमें वास्तविक तत्त्व-(सत्-) को प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है । संसारके सुखको तो क्या, साधनजन्य सात्त्विक सुखका भी आश्रय न लेनेसे परम व्याकुलता जाग्रत् हो जाती है । फलतः साधक संसार-(असत्‌-) से सर्वथा विमुख हो जाता है और उसे तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होनेसे एकमात्र सत्-तत्त्व‒भगवत्तत्त्वकी सत्ताका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन.........

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युग में श्रीरामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है )


गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

राम राम रटते रहो जब लगि घट मे प्रान। कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।।

हनुमान जी का सिद्धांत है कि जीव चाहे लेटा हो या बैठा हो अथवा खडा ही क्यों न हो, जिस किसी भी दशा में श्रीराम नाम का स्मरण करके वह भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाता है |

“आसीनो वा शयानो वा तिष्ठन् वा यत्र कुत्र वा |
श्रीरामनाम संस्मृत्य याति तत्परमं पदम् ||”


बुधवार, 12 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 06)


सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्व

संसारमें एक तो प्रवृत्ति (करना) होती है और एक निवृत्ति (न करना) होती है । जिसका आदि और अन्त हो, वह क्रिया अथवा अवस्था कहलाती है । प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रवृत्ति क्रिया है, वैसे ही निवृत्ति भी क्रिया है । प्रवृत्ति निवृत्तिको और निवृत्ति प्रवृत्तिको जन्म देती है । क्रिया और अवस्थामात्र प्रकृतिकी ही होती है; तत्त्वकी नहीं । इस दृष्टिसे प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं । निर्विकल्प समाधितक प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी ‘व्युत्थान’ होता है । अतएव जागने, चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिके समान सोना, बैठना, मौन होना, मूर्छित होना, समाधिस्थ होना आदि भी क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ ही हैं ।

अवस्थासे अतीत जो अक्रिय परमात्मतत्त्व है, उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर वह तत्त्व नहीं बदलता । वह वास्तविक तत्त्व सहज-निवृत्तिरूप है । उस तत्त्वमें मनुष्यमात्रकी (स्वरूपसे) स्वाभाविक स्थिति है । वह परमतत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें स्वाभाविकरूपसे ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है । अतएव उस सहज-निवृत्तिरूप परमतत्त्वको जो चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे प्राप्त कर सकता है । आवश्यकता केवल प्राकृत-दृष्टियोंके प्रभावसे मुक्त होनेकी है ।

‘स्वयम्’ का प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । साधक प्रमादवश अपनी वास्तविक सत्ताको (जहाँसे ‘अहम्’ उठता है अथवा जो ‘अहम्’ का आधार है) भूलकर माने हुए ‘अहम्’ को ही (जो उत्पन्न होनेपर सत्तावान् है) अपनी सत्ता या अपना स्वरूप मान लेता है । माना हुआ ‘अहम्’ बदलता रहता है, पर वास्तविक तत्त्व (स्वरूप) कभी नहीं बदलता । इस माने हुए ‘अहम्’ को भगवान्‌ने इदंतासे कहा है; जैसे‒‘अहङ्कार इतीयम्’ (गीता ७ । ४) और ‘अपरा इयम्’ (गीता ७ । ५) । जबतक यह माना हुआ ‘अहम्’ रहता है तबतक साधकका प्रकृति-(प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप अवस्था-) से सम्बन्ध बना रहता है, और उसमें साधक निवृत्तिको अधिक महत्त्व देता रहता है । यह ‘अहम्’ प्रवृत्तिमें ‘कार्य’-रूपसे और निवृत्तिमें ‘कारण’-रूपसे रहता है । ‘अहम्’ का नाश होते ही प्रवृत्ति और निवृत्तिसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषका प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता । ऐसा होनेपर प्रवृत्ति और निवृत्तिका नाश नहीं होता, अपितु उनका बाह्य चित्रमात्र रहता है । इस प्रकार वास्तविक तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिके अनुभवको ही दार्शनिकोंने सहज-निवृत्ति, सहजावस्था, सहज-समाधि आदि नामोंसे कहा है ।
 
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे माने हुए प्रत्येक संयोगका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । कारण यह है कि संसारसे माना हुआ संयोग अस्वाभाविक और उसका वियोग स्वाभाविक है । विचारपूर्वक देखा जाय तो संयोगकालमें भी वियोग ही है अर्थात् संयोग है ही नहीं । परंतु संसारसे माने हुए संयोगमें सद्‌भाव (सत्ता-भाव) कर लेनेसे वियोगका अनुभव नहीं हो पाता । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो जिसका वियोग होता है, उस प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । जैसे, बाल्यावस्थासे वियोग हो गया, तो अब उसकी सत्ता कहाँ है ? जैसे वर्तमानमें भूतकालकी सत्ता नहीं है, वैसे ही वर्तमान और भविष्यत्कालकी भी सत्ता नहीं है । जहाँ भूतकाल चला गया, वहीं वर्तमान जा रहा है और भविष्यत्काल भी वहीं चला जायगा । इसीलिये भगवान्‌ने गीतामें कहा है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥“
                                         ...................(२ । १६)

‘असत्‌ की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी महापुरुषोंके द्वारा देखा गया है ।’

प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे वियोगका अनुभव होनेपर सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्वका ज्ञान हो जाता है और वियुक्त होनेवाले संसारकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार न करनेसे वह तत्त्वज्ञान दृढ़ हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे



मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 05)


साध्यतत्त्व की एकरूपता

जैसे नेत्र तथा नेत्रों से दीखने वाला दृश्य‒दोनों सूर्य से प्रकाशित होते हैं, वैसे ही बहिःकरण, अन्तःकरण, विवेक आदि सब उसी परम प्रकाशक तत्त्व से प्रकाशित होते हैं‒‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ (श्वेताश्वतर॰ ६ । १४) । जो वास्तविक प्रकाश अथवा तत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनों का आधार है । जितने भी दार्शनिक हैं, प्रायः उन सबका तात्पर्य उसी तत्त्व को प्राप्त करने में है । दार्शनिकों की वर्णन-शैलियाँ तथा साधन-पद्धतियाँ तो अलग-अलग हैं, पर उनका तात्पर्य एक ही है । साधकों में रुचि, विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण उनके साधनों में तो भेद हो जाते हैं, पर उनका साध्यतत्त्व वस्तुतः एक ही होता है ।

“नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधरसे, आगे अस्थल एक ॥“

दिशाओं की भिन्नता के कारण नगर में जाने के अलग-अलग मार्ग होते हैं । नगर में कोई पूर्व से, कोई पश्रिम से, कोई उत्तर से और कोई दक्षिण से आता है; परन्तु अन्त में सब एक ही स्थान पर पहुँचते हैं । इसी प्रकार साधकों की स्थिति की भिन्नता के कारण साधन-मार्गोंमें भेद होने पर भी सब साधक अन्त में एक ही तत्त्व को प्राप्त होते हैं । इसीलिये संतों ने कहा है‒

“पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥“

प्रत्येक मनुष्य की भोजन की रुचि में दूसरे से भिन्नता रहती है; परंतु ‘भूख’ और ‘तृप्ति’ सब की समान ही होती है अर्थात् अभाव और भाव सब के समान ही होते हैं । ऐसे ही मनुष्यों की वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा आदि में बहुत भेद रहते हैं; परंतु ‘रोना’ और ‘हँसना’ सब के समान ही होते हैं अर्थात् दुःख और सुख सब को समान ही होते हैं । ऐसा नहीं होता कि यह रोना या हँसना तो मारवाड़ी है, यह गुजराती है, यह बँगाली है आदि ! इसी प्रकार साधन-पद्धतियोमें भिन्नता रहने पर भी साध्य की ‘अप्राप्तिका दुःख’ और ‘प्राप्तिका आनन्द’ सब साधकों को समान ही होते हैं ।

वह परमात्मतत्त्व ही ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करता है, विष्णुरूप से सब का पालन-पोषण करता है और रुद्ररूप से सबका संहार करता है‒‘भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥’ (गीता १३ । १६) । वही तत्त्व अनेक अवतार लेकर, अनेक रूपों में लीला करता है । इस प्रकार अनेक रूपों से दीखने पर भी वह तत्त्व वस्तुतः एक ही रहता है और तत्त्व-दृष्टि से एक ही दीखता है । इस तत्त्वदृष्टि की प्राप्ति को ही दार्शनिकों ने मोक्ष, परमात्मप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान आदि नामोंसे कहा है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


सोमवार, 10 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 04)



जिस प्रकार प्रकाश बल्ब में नहीं होता, अपितु बल्ब में आता है, उसी प्रकार यह अनादिसिद्ध विवेक भी बुद्धि में पैदा नहीं होता, अपितु बुद्धि में आता है । इन्द्रियदृष्टि की अपेक्षा बुद्धिदृष्टि की प्रधानता होनेसे विवेक विशेष स्फुरित होता है, जिससे सत्‌ की सत्ता और असत्‌ के अभाव का अलग-अलग ज्ञान हो जाता है । विवेकपूर्वक असत्‌ का त्याग कर देनेपर जो शेष रहता है, वही तत्त्व है । तत्त्वदृष्टि से देखनेपर एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वके सिवा संसार, शरीर, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचिन्मात्र भी नहीं रहती । तब एकमात्र ‘वासुदेवः सर्वम्’‒‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका बोध हो जाता है ।

इस प्रकार यह संसार बहिकरण-(इन्द्रियाँ-) से देखनेपर नित्य एवं सुखदायी, अन्तःकरण-(बुद्धि-) से देखनेपर अनित्य एवं दुःखदायी तथा तत्त्वसे देखनेपर परमात्मस्वरूप दिखायी देता है ।

साधककी विवेकदृष्टि और सिद्धकी तत्त्वदृष्टिमें अन्तर यह है कि विवेकदृष्टिसे सत् और असत्-दोनों अलग-अलग दीखते हैं और सत्‌का अभाव नहीं एवं असत्‌का भाव नहीं‒ऐसा बोध होता है । इस प्रकार विवेकदृष्टिका परिणाम होता है‒असत्‌के त्यागपूर्वक सत्‌की प्राप्ति । जहाँ सत्‌की प्राप्ति होती है वहाँ तत्त्वदृष्टि रहती है । तत्त्वदृष्टिसे संसार कभी सत्यरूपसे प्रतीत नहीं होता । तात्पर्य है कि विवेकदृष्टिमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं और तत्त्वदृष्टिमें केवल सत् रहता है ।

विवेकको महत्त्व देनेसे इन्द्रियों का ज्ञान लीन हो जाता है । उस विवेकसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, वहाँ विवेक भी लीन हो जाता है ।

वास्तविक दृष्टि‒- वस्तुतः तत्त्वदृष्टि ही वास्तविक दृष्टि है । इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि वास्तविक नहीं है; क्योंकि जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी ये दृष्टियाँ हैं । अतः ये दृष्टियाँ सांसारिक अथवा पारमार्थिक विषयमें पूर्ण निर्णय नहीं कर सकतीं । तत्त्वदृष्टिमें ये सब दृष्टियाँ लीन हो जाती हैं । जैसे रात्रिमें बल्ब जलानेसे प्रकाश होता है; परंतु वही बल्ब यदि मध्याह्नकालमें (दिनके प्रकाशमें) जलाया जाता है तो उसके प्रकाश का भान तो होता है, पर उस प्रकाश का (सूर्य के प्रकाश के सामने) कोई महत्त्व नहीं रहता; वैसे ही इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि अज्ञान (अविद्या) अथवा संसारमें तो काम करती हैं; पर तत्त्वदृष्टि हो जानेपर इन दृष्टियोंका उसके (तत्त्वदृष्टिके) सामने कोई महत्त्व नहीं रह जाता । ये दृष्टियाँ नष्ट तो नहीं होतीं, पर प्रभावहीन हो जाती हैं । केवल सच्चिदानन्दरूपसे एक ज्ञान शेष रह जाता है; उसीको भगवत्तत्त्व या परमात्मतत्त्व कहते हैं । वही वास्तविक तत्त्व है । शेष सब अतत्त्व हैं ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 9 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 03)


वह तत्त्व ही संसाररूपसे भास रहा है । परंतु जबतक उधर दृष्टि नहीं जाती, तबतक संसार-ही-संसार दीखता है, तत्त्व नहीं । जैसे, जबतक ‘यह गंगाजी हैं’‒इस तरफ दृष्टि नहीं जाती, तबतक वह साधारण नदी ही दीखती है । परमात्मतत्त्व तत्त्वदृष्टिसे ही देखा जा सकता है ।

तीन प्रकारकी दृष्टियाँ :

मनुष्यकी दृष्टियाँ तीन प्रकारकी हैं‒ 

(१) इन्द्रियदृष्टि (बहिःकरण) [*], 
(२) बुद्धिदृष्टि (अन्तःकरण) [**] ...और 
(३) तत्त्वदृष्टि (स्वरूप)[***]   
---‒ये तीनों दृष्टियाँ क्रमशः एक-एकसे सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ हैं ।

संसार असत् और अस्थिर होते हुए भी इन्द्रियदृष्टि से देखनेपर सत् एवं स्थिर प्रतीत होता है, जिससे संसारमें राग हो जाता है । बुद्धिदृष्टिमें वस्तुतः विवेक ही प्रधान है । जब बुद्धिमें भोगों-(इन्द्रियों तथा उनके विषयों-) की प्रधानता नहीं होती, अपितु विवेककी प्रधानता होती है, तब बुद्धिदृष्टिसे संसार परिवर्तनशील और उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला दीखता है, जिससे संसारसे वैराग्य हो जाता है ।

जड-चेतन, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दो वस्तुओंके अलग-अलग ज्ञानको ‘विवेक’ कहते हैं । यह विवेक प्राणिमात्रमें स्वतः विद्यमान है । पशुपक्षियोंमें शरीर-निर्वाहके योग्य ही (खाद्य-अखाद्यका) विवेक रहता है; परंतु मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे जाग्रत् होता है । विवेक अनादि है । भगवान् कहते हैं‒

“प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।“
                                               . ..............(गीता १३ । १९)
(प्रकृति और पुरुष‒इन दोनोंको ही तू अनादि जान)|

‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभौ’ (दोनों) पदसे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, वैसे ही इन दोनोंका भेद ज्ञानरूप विवेक भी अनादि है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ ॥ (गीता २ । १६) ‘तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्-असत् दोनोंका ही तत्त्व देखा है’‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभयोः’ पदसे भी यही बात सिद्ध होती है ।

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[*] यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
    अतत्त्वार्थवदल्पं च  तत्तामसमुदाहृतम् ॥
   ............(१८  । २२)
[**] सर्वभूतेषु    येनैकं          भावमव्ययमीक्षते ।
      विभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
       ...............(१८ । २०)
[***] बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
       वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
    ..............(७ । १९)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...