अब ‘परमात्मज्ञान’ का वर्णन किया जाता है । सृष्टिमात्रमें ‘है’ के समान कोई सार चीज है ही नहीं । लोक-परलोक, चौदह भुवन, सात द्वीप, नौ खण्ड आदि जो कुछ है, उसमें सत्ता (‘है’) एक ही है । यह सब संसार प्रतिक्षण बदलता है, इतनी तेजीसे बदलता है कि इसको दो बार नहीं देख सकते । जैसे, नया मकान कई वर्षोंके बाद पुराना हो जाता है तो वह प्रतिक्षण बदलता है, तभी पुराना होता है । इस प्रतिक्षण बदलनेको ही भूत-भविष्य-वर्तमान, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, सत्य-त्रेता-द्वापर-कलियुग आदि नामोंसे कहते हैं । प्रतिक्षण बदलनेपर भी यह हमें ‘है’-रूपसे इसलिये दीखता है कि हमने इस बदलनेवालेके ऊपर ‘है’ (परमात्मतत्त्व) का आरोप कर लिया कि ‘यह है’ । वास्तवमें यह है नहीं, प्रत्युत ‘है’ में ही यह सब है । यह तो निरन्तर बदलता है, पर ‘है’ ज्यों-का-त्यों रहता है । ‘है’ जितना प्रत्यक्ष है, उतना यह संसार प्रत्यक्ष नहीं है । जो निरन्तर बदलता है, वह प्रत्यक्ष कहाँ है ? ‘है’ इतना प्रत्यक्ष है कि यह कभी बदला नहीं, कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, बदलनेकी कभी सम्भावना ही नहीं । इसलिये गीतामें आया है‒
“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.................(२ । १६)
‘असत्का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है ।’
तात्पर्य है कि जो निरन्तर बदलता है, उसका भाव कभी नहीं हो सकता और जो कभी नहीं बदलता, उसका अभाव कभी नहीं हो सकता । ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता और ‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता । असत् कभी विद्यमान नहीं है और ‘है' सदा विद्यमान है । जिसका अभाव है, उसीका त्याग करना है और जिसका भाव है, उसीको प्राप्त करना है‒इसके सिवाय और क्या बात हो सकती है ! ‘है’ को स्वीकार करना है और ‘नहीं’ को अस्वीकार करना है‒यही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है ।
जो सत्ता (‘है’) है, वह ‘सत्’ है, उसका जो ज्ञान है, वह ‘चित्’ (चेतन) है तथा उसमें जो दुःख, सन्ताप, विक्षेपका अत्यन्त अभाव है, वह ‘आनन्द’ है । सत्के साथ ज्ञान और ज्ञानके साथ आनन्द स्वतः भरा हुआ है । ज्ञानके बिना सत् जड है और सत्के बिना ज्ञान शून्य है । किसी भी बातका ज्ञान होते ही एक प्रसन्नता होती है‒यह ज्ञानके साथ आनन्द है । परमात्मतत्त्व सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है । वह सच्चिदानन्द परमात्मतत्त्व ‘है’-रूपसे सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे