आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान एक ही है । कारण कि चिन्मय सत्ता एक ही है, पर जीव की उपाधि से अलग-अलग दीखती है । भगवान् कहते हैं‒
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।“
..............(गीता १५ । ७)
(इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा सदा से मेरा ही अंश है ।)
प्रकृतिके अंश ‘अहम्’ को पकडने के कारण ही यह जीव अंश कहलाता है । अगर यह अहम् को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है । सत्ता (होनेपन) के सिवाय सब कल्पना है । वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, आश्रय है, जीवनदाता है । उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है । वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है । सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है । सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । गीतामें आया है‒
“यथा सर्वगतं सौक्ष्मादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥“
............(१३ । ३२)
(जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता ।)
तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता केवल शरीर आदि में स्थित नहीं है, प्रत्युत आकाश की तरह सम्पूर्ण शरीरों के, सृष्टिमात्र के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है । तात्पर्य है कि सर्वदेशीय सत्ता एक ही है । साधक का लक्ष्य निरन्तर उस सत्ता की ओर ही रहना चाहिये ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे