शनिवार, 29 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 05



आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान एक ही है । कारण कि चिन्मय सत्ता एक ही है, पर जीव की उपाधि से अलग-अलग दीखती है । भगवान् कहते हैं‒

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।“
                                         ..............(गीता १५ । ७)

(इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा सदा से मेरा ही अंश है ।)

प्रकृतिके अंश ‘अहम्’ को पकडने के कारण ही यह जीव अंश कहलाता है । अगर यह अहम्‌ को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है । सत्ता (होनेपन) के सिवाय सब कल्पना है । वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, आश्रय है, जीवनदाता है । उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है । वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है । सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है । सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । गीतामें आया है‒

“यथा सर्वगतं सौक्ष्मादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥“
                 ............(१३ । ३२)

(जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता ।)

तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता केवल शरीर आदि में स्थित नहीं है, प्रत्युत आकाश की तरह सम्पूर्ण शरीरों के, सृष्टिमात्र के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है । तात्पर्य है कि सर्वदेशीय सत्ता एक ही है । साधक का लक्ष्य निरन्तर उस सत्ता की ओर ही रहना चाहिये ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 12)


प्रश्न‒यज्ञ आदि करने से देवताओं की पुष्टि होती है और यज्ञ आदि न करनेसे वे क्षीण हो जाते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फल-फूल लगते हैं; परन्तु यदि उनको खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फल-फूल विशेषता से लगते हैं । ऐसे ही शास्त्रविधि के अनुसार देवताओं के लिये यज्ञादि अनुष्ठान करनेसे देवताओं को खुराक मिलती है, जिससे वे पुष्ट होते हैं और उनको बल मिलता है, सुख मिलता है । परंतु यज्ञ आदि न करनेसे उनको विशेष बल, शक्ति नहीं मिलती ।

यज्ञ आदि न करने से मर्त्यदेवताओं की शक्ति तो क्षीण होती ही है, आजानदेवताओ में जो कार्य करने की क्षमता होती है, उसमें भी कमी आ जाती है । उस कमी के कारण ही संसार में अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि उपद्रव होने लगते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

(हे राम ! जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 04


साधकको ‘सत्’ और ‘चित्’ (चेतन) की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये । सत्‌का स्वरूप है‒सत्तामात्र और चित्‌का स्वरूप है‒ज्ञानमात्र । उत्पत्तिका आधार होनेसे यह ‘सत्ता’ (सत्) है तथा प्रतीतिका प्रकाशक होनेसे यह ‘ज्ञान’ (चित्) है । यह सत्ता और ज्ञान ही ‘चिन्मय सत्ता’ है, जो कि हमारा स्वरूप है । जैसे, सुषुप्तिमें अनुभव होता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया अर्थात् मैं तो था ही’‒ यह ‘सत्ता’ है और ‘मुझे कुछ भी पता नहीं था’‒यह ‘ज्ञान’ है । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें अपनी सत्ता तथा अहम्‌के अभावका (मुझे कुछ भी पता नहीं था‒इसका) ज्ञान रहता है । जैसे, आँखसे सब वस्तुएँ दीखती हैं, पर आँखसे आँख नहीं दीखती; अतः यह कह सकते हैं कि जिससे सब वस्तुएँ दीखती हैं, वही आँख है । ऐसे ही जिसको अहम्‌के भाव और अभावका ज्ञान होता है, वही चिन्मय सत्ता (स्वरूप) है । उस चिन्मय सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । चित् ही बुद्धिमें ज्ञान-रूपसे आता है और भौतिक जगत्‌में (नेत्रोंके सामने) प्रकाश-रूपसे आता है । बुद्धिमें जानना और न जानना रहता है तथा नेत्रोंके सामने प्रकाश और अँधेरा रहता है । जैसे सम्पूर्ण संसारकी स्थिति एक सत्ताके अन्तर्गत है, ऐसे ही सम्पूर्ण पढ़ना, सुनना, सीखना, समझना आदि एक ज्ञानके अन्तर्गत है । ये सत् और चित् सबके प्रत्यक्ष हैं, किसीसे भी छिपे हुए नहीं हैं । इनके सिवाय जो असत् है, वह ठहरता नहीं है और जो जड़ है, वह टिकता नहीं है । सत् और चित्‌का अभाव कभी विद्यमान नहीं है एवं असत् और जडका भाव कभी विद्यमान नहीं है । सत् और चित् सबसे पहले भी हैं, सबसे बादमें भी हैं और अभी भी ज्यों-के-त्यों हैं ।

जिनकी मान्यतामें कालकी सत्ता है, उनके लिये यह कहा जाता है कि परमात्मतत्त्व भूतमें भी है, भविष्यमें भी है और वर्तमानमें भी है । वास्तवमें न तो भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान ही है, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही है । वह परमात्मतत्त्व कालका भी महाकाल है, कालका भी भक्षण करनेवाला है‒     
                   
(१)  ब्रह्म अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
       उलट कालको खात है हरिया गुरुगम होय ॥
 (२) नवग्रह चौसठ जोगिणी,  बावन बीर प्रजंत ।
      काल भक्ष सबको करै,    हरि शरणै डरपंत ॥
                                           .............. (करुणासागर ६४)

काल उसी को खाता है, जो पैदा हुआ है । जो पैदा ही नहीं हुआ, उसको काल कैसे खाये ? ऐसा वह परमात्मतत्त्व जीवमात्र को नित्यप्राप्त है । उस सर्वसमर्थ परमात्मतत्त्वमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वह कभी किसीसे अलग हो जाय, कभी किसीको अप्राप्त हो जाय । वह नित्य-निरन्तर सबमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, नित्यप्राप्त है । यह ‘परमात्मज्ञान’ है ।

नारायण ! नारायण !!

   (शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 11)


प्रश्न‒भक्तों के सामने भगवान् किस रूपसे आते हैं ?

उत्तर‒सामान्य भक्त (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि) के सामने भगवान् देवरूपसे आते हैं और विशेष भक्ति- (अनन्यभाव-) वाले भक्त के सामने भगवान् सच्चिदानन्दमय (महाविष्णु आदि) रूप से आते हैं । परंतु भक्त उन दोनों रूपोंको अलग-अलग नहीं जान सकता । यदि भगवान् जना दें, तभी वह जान सकता है ।

वास्तव में देखा जाय तो दोनों रूपों में तत्त्वसे कोई भेद नहीं है, केवल अधिकार में भेद है । भगवान् देवरूप में सीमित शक्ति से प्रकट होते हैं और सच्चिदानन्दमयरूप में असीम शक्तिसे ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम !

“जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥“

( मुनिगण जन्म-जन्म में अनेकों प्रकार का साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता, जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 03


अब ‘परमात्मज्ञान’ का वर्णन किया जाता है । सृष्टिमात्रमें ‘है’ के समान कोई सार चीज है ही नहीं । लोक-परलोक, चौदह भुवन, सात द्वीप, नौ खण्ड आदि जो कुछ है, उसमें सत्ता (‘है’) एक ही है । यह सब संसार प्रतिक्षण बदलता है, इतनी तेजीसे बदलता है कि इसको दो बार नहीं देख सकते । जैसे, नया मकान कई वर्षोंके बाद पुराना हो जाता है तो वह प्रतिक्षण बदलता है, तभी पुराना होता है । इस प्रतिक्षण बदलनेको ही भूत-भविष्य-वर्तमान, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, सत्य-त्रेता-द्वापर-कलियुग आदि नामोंसे कहते हैं । प्रतिक्षण बदलनेपर भी यह हमें ‘है’-रूपसे इसलिये दीखता है कि हमने इस बदलनेवालेके ऊपर ‘है’ (परमात्मतत्त्व) का आरोप कर लिया कि ‘यह है’ । वास्तवमें यह है नहीं, प्रत्युत ‘है’ में ही यह सब है । यह तो निरन्तर बदलता है, पर ‘है’ ज्यों-का-त्यों रहता है । ‘है’ जितना प्रत्यक्ष है, उतना यह संसार प्रत्यक्ष नहीं है । जो निरन्तर बदलता है, वह प्रत्यक्ष कहाँ है ? ‘है’ इतना प्रत्यक्ष है कि यह कभी बदला नहीं, कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, बदलनेकी कभी सम्भावना ही नहीं । इसलिये गीतामें आया है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.................(२ । १६)

‘असत्‌का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’

तात्पर्य है कि जो निरन्तर बदलता है, उसका भाव कभी नहीं हो सकता और जो कभी नहीं बदलता, उसका अभाव कभी नहीं हो सकता । ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता और ‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता । असत् कभी विद्यमान नहीं है और ‘है' सदा विद्यमान है । जिसका अभाव है, उसीका त्याग करना है और जिसका भाव है, उसीको प्राप्त करना है‒इसके सिवाय और क्या बात हो सकती है ! ‘है’ को स्वीकार करना है और ‘नहीं’ को अस्वीकार करना है‒यही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है ।

जो सत्ता (‘है’) है, वह ‘सत्’ है, उसका जो ज्ञान है, वह ‘चित्’ (चेतन) है तथा उसमें जो दुःख, सन्ताप, विक्षेपका अत्यन्त अभाव है, वह ‘आनन्द’ है । सत्‌के साथ ज्ञान और ज्ञानके साथ आनन्द स्वतः भरा हुआ है । ज्ञानके बिना सत् जड है और सत्‌के बिना ज्ञान शून्य है । किसी भी बातका ज्ञान होते ही एक प्रसन्नता होती है‒यह ज्ञानके साथ आनन्द है । परमात्मतत्त्व सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है । वह सच्चिदानन्द परमात्मतत्त्व ‘है’-रूपसे सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 10)


 मनु और शतरूपा तप कर रहे थे तो ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा,विष्णु और महेश कई बार उनके पास आये, पर उन्होंने अपना तप नहीं छोड़ा । अन्त में जब परब्रह्म परमात्मा उनके पास आये, तब उन्होंने अपना तप छोड़ा और उनसे वरदान माँगा ।

वास्तव में भगवान्‌ का सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप-दोनों एक ही हैं । मनु-शतरूपा भगवान्‌के सच्चिदानन्दमयरूप (महाविष्णु) को देखना चाहते थे,इसलिये भगवान् उनके सामने उसी रूपसे आये, अन्यथा ब्रह्माण्डके विष्णु तथा महाविष्णु में कोई भेद नहीं है । अवतार के समय भी भगवान् सब को सच्चिदानन्दमयरूप से अर्थात् भगवत्स्वरूपसे नहीं दीखते‒‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ (गीता ७ । २५) । अर्जुन को भगवान् जैसे दीखते थे, वैसे दुर्योधन को नहीं दीखते थे । परशुराम को भगवान् राम पहले राजकुमारके रूपमें दीखते थे, पीछे भगवत्स्वरूप से दीखने लगे ! तात्पर्य है कि भगवान् एक होते हुए भी दूसरे के भाव के अनुसार अलग-अलग रूप से प्रकट होते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 26 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 02



पुस्तकों की पढ़ाई करनेका, शास्त्रोंकी बातें सीखने का उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्व को समझनेका उद्देश्य हो तो हम श्रुति विप्रतिपत्तिसे तर गये ! तात्पर्य है कि हमें न तो मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय मतभेदकी मुख्यता रखनी है । किसी मत, सम्प्रदाय का भी कोई आग्रह नहीं रखना है [*] । इतना हो जाय तो हम योगके, तत्त्वज्ञानके अधिकारी हो गये ! इससे अधिक किसी अधिकार-विशेषकी जरूरत नहीं है । अब इस बातपर विचार करना है कि तत्त्वज्ञान क्या है ?

तत्त्वज्ञान सबसे सरल है, सबसे सुगम है और सबके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है । तात्पर्य है कि इसको करनेमें, समझनेमें और पानेमें कोई कठिनता है ही नहीं । इसमें करना, समझना और पाना लागू होता ही नहीं । कारण कि यह नित्यप्राप्त है और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सम्पूर्ण अवस्थाओंमें सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है । तत्त्वज्ञान जितना प्रत्यक्ष है, उतना प्रत्यक्ष यह संसार कभी नहीं है । तात्पर्य है कि हमारे अनुभवमें तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट आता है, उतना स्पष्ट संसार नहीं आता । इस बातको इस प्रकार समझना चाहिये । जीव अनेक योनियोंमें जाता है । वह कभी मनुष्य बनता है, कभी पशु-पक्षी बनता है, कभी देवता बनता है, कभी राक्षस बनता है, कभी असुर बनता है, कभी भूत-प्रेत-पिशाच बनता है तो शरीर वही नहीं रहता, पर जीव स्वयं सत्तारूपसे वही रहता है । स्वभाव वही नहीं रहा, आदत वही नहीं रही, भाषा वही नहीं रही, व्यवहार वही नहीं रहा, लोक (स्थान) वही नहीं रहा, समय वही नहीं रहा; सब कुछ बदल गया, पर स्वयंकी सत्ता नहीं बदली । अगर सत्ता वही नहीं रहेगी तो तरह-तरहके नाम तथा रूप कौन धारण करेगा ? इसलिये गीतामें आया है‒

“भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।“
...........(८ । १९)

‘वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर लीन होता है ।’ जो उत्पन्न हो-होकर लीन होता है, वह शरीर है और जो वही रहता है, वह जीवका असली स्वरूप अर्थात् चिन्मय सत्ता (होनापन) है । यह ‘आत्मज्ञान’ का वर्णन हुआ ।

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[*] नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधर से, आगे अस्थल एक ॥
पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठ की, ढुरे एक ही ठौर ॥
जब लगि काची खीचड़ी, तब लगि खदबद होय ।
संतदास सीज्यां पछे, खदबद करै न कोय ॥

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 09)


प्रश्न‒भगवान्‌ के दर्शन करने पर भी देवता मुक्त क्यों नहीं होते ?

उत्तर‒मुक्ति भाव के अधीन है, क्रिया के अधीन नहीं । देवता केवल भोग भोगने के लिये ही स्वर्गादि लोकों में गये हैं । अतः भोगपरायणता के कारण उनमें मुक्ति की इच्छा नहीं होती । इसके सिवा देवलोक में मुक्ति का अधिकार भी नहीं है ।

भगवान्‌के दो रूप होते हैं‒सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप । प्रत्येक ब्रह्माण्ड के जो अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और महेश होते हैं, वह भगवान्‌ का देवरूप है और जो सबका मालिक, सर्वोपरि परब्रह्म परमात्मा है, वह भगवान्‌का सच्चिदानन्दमयरूप है । इस सच्चिदानन्दमय-रूपको ही शास्त्रोंमें महाविष्णु आदि नामोंसे कहा गया है । भगवान्‌ को भक्ति के वश में होकर भक्तों के सामने तो सच्चिदानन्दमयरूप से प्रकट होना पड़ता है, पर देवताओं के सामने वे देवरूप से ही प्रकट होते हैं । कारण कि देवता केवल अपनी रक्षा के लिये ही भगवान्‌ को पुकारते हैं, मुक्त होने के लिये नहीं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...