एक प्रकाश्य (संसार) है और एक प्रकाशक (परमात्मा) है अथवा एक ‘यह’ है और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ है । अहम् न तो प्रकाश्य (‘यह’) में है और न प्रकाशक (सत्ता) में ही है, प्रत्युत केवल माना हुआ है । जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी है और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी है, उसका नाम ‘अहम्’ है और वही ‘जीव’ है । तात्पर्य है कि जड के सम्बन्ध से संसार की इच्छा अर्थात् ‘भोगेच्छा’ है और चेतन के सम्बन्धसे परमात्मा की इच्छा अर्थात् ‘जिज्ञासा’ है । अतः अहम् (जड-चेतनकी ग्रंथि) में जड-अंश की प्रधानता से हम परमात्मा को चाहते है * । माने हुए अहम् का नाश होनेपर भोगेच्छा मिट जाती है और जिज्ञासा पूरी हो जाती है अर्थात् तत्व रह जाता है । वास्तवमें परमात्माकी इच्छा भी संसारकी इच्छाके कारण ही है । संसारकी इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वतःसिद्ध है ।
साधनकी ऊँची अवस्थामें ‘मेरेको तत्वज्ञान हो जाय, मैं मुक्त हो जाऊँ’—यह इच्छा भी बाधक होती है । जब तक अंतःकरणमें असत् की सत्ता दृढ़ रहती है, तब तक तो जिज्ञासा सहायक होती है, पर असत् की सत्ता शिथिल होने पर जिज्ञासा भी तत्वज्ञान में बाधक होती है । कारण कि जैसे प्यास जलसे दूरी सिद्ध करती है, ऐसे ही जिज्ञासा तत्वसे दूरी सिद्ध करती है, जब कि तत्व वास्तवमें दूर नहीं है, प्रत्युत नित्यप्राप्त है । दूसरी बात, तत्वज्ञानकी इच्छासे व्यक्तित्व (अहम्) दृढ़ होता है, जो तत्वज्ञानमें बाधक है । वास्तवमें तत्वज्ञान, मुक्ति स्वतःसिद्ध है । तत्वज्ञानकी इच्छा करके हम अज्ञानको सत्ता देते है, अपनेमें अज्ञानकी मान्यता करते है, जब कि वास्तवमें अज्ञानकी सत्ता है नहीं । इसलिए तत्वज्ञान होनेपर फिर मोह नहीं होता —‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (गीता ४/३५); क्योंकि वास्तवमें मोह है ही नहीं । मिटता वही है, जो नहीं होता और मिलता वही है, जो होता है ।
साधकको स्वतःस्वाभाविक एकमात्र ‘है’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय —इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्वबोध है । कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक ‘है’ ही शेष रह जाता है । वह ‘है’ अपेक्षावाले ‘नहीं’ और ‘है’ —दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें ‘नहीं’ भी नहीं है और ‘है’ भी नहीं है । वह सत्ता ज्ञानस्वरूप है, चिन्मयमात्र है । वह सत्ता नित्य जाग्रत् रहती है । सुषुप्तिमें अहंसहित सब करण लीन हो जाते है, पर अपनी सत्ता लीन नहीं होती—यह सत्ताकी नित्यजागृति है । वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, प्रत्युत नित्य नयी ही बनी रहती है; क्योंकि उसमें काल नहीं है । उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है ।
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* मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरुँ नहीं—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊ—यह ‘आनंद’ की इच्छा है । इस प्रकार सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जड़से सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे—वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धि लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “साधन-सुधा-सिन्धु” पुस्तकसे